Saturday, October 1, 2011

नक्षत्रों का चमत्कार है, ममता की कुण्डली

प० बंगाल की मुख्यमंत्री जुझारु नेत्री सुश्री ममता बनर्जी के जन्मांग चक्र के आधार पर विवेचन प्रस्तुत कर रहा हूं- यद्यपि उनके जन्म समय की सटीक जानकारी प्राप्त नहीं हुई पर एक ज्योतिष परिचर्चा के कार्यक्रम में धनु लग्न बताया गया था। इस आधार पर सुश्री बनर्जी का ५.३० बजे प्रातः से ७.०० बजे के बीच में सम्भावित है। मैंने प्रातः ६ बजे के आसपास समय को आधार बनाकर उनके जन्मांग चक्र का विवेचन किया है। जिसमें धनु लग्न में सूर्य-बुध के साथ राहु की उपस्थिति तथा अष्टम स्थान में गुरु वक्रिय अवस्था में स्थित हैं। पराक्रम के भाव में मंगल की उपस्थिति लेकिन षष्ट स्थान में वृषभ का चंद्र स्थित है।
पहली नजर में जन्मांग सघर्ष से सम्मानजनक स्तर पहुंचाने का अंदेशा देता है। लेकिन शनि महादशा धनु लग्न (गुरु ग्रह) के लग्न जातक के सपने को साकार आते ही कर सकती है। यह भविष्यवाणी ममता जी के जन्मांग में अगर नक्षत्रों का अध्ययन न किया जाये-तो नहीं की जा सकती। ममता जी के जन्मांग में नक्षत्रों ने चमत्कार किया है- विशेष रुप से शनि विशाखा नक्षत्र में स्थित होकर लग्न व चतुर्थ जनता के भाव का चमत्कारिक फल दे पाने में सक्षम सिद्ध हुआ है-और जो ग्रह कुंडली का कारक ग्रह गुरु है उसमें अपनी महादशा में राजयोग के साथ राजभंग योग किया है।
ममता जी के जन्मांग में छठे स्थान में बैठा चन्द्रमा जो कि अष्ठम का मालिक है लेकिन नवमेश सूर्य के नक्षत्र में होने से ममता जी संघर्ष के अंधेरे को चीरकर आगे बैठी है। सूर्य बुध के साथ लग्न में राहु की उपस्थिति ममता जी के बुद्धिमता में तुनक मिजाजी स्वभाव व स्वास्थ्य पक्ष में बाधा व सप्तम स्थान में केतु की राहु नक्षत्र में स्थिती दांपत्य जीवन का सुख न देने का कारक बनी है। शनि वाणी और पराक्रम भाव का मालिक होकर लाभ भाव में बैठा है तथा गुरु के नक्षत्र में होने से लग्न व चतुर्थ भाव का अनायास सुखद फल दे रहा है। शनि की लग्न पर पूर्ण दृष्टि है तथा दुसरे स्थान का मालिक होने की वजह से मार्केश भी है- इस लिहाज से स्वास्थ्य पक्ष में बाधा/ दुर्घटना की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।
गोचर में जब गुरु मीन राशि में आया था- तब से रायटर्स पर अधिकार का लिफाफा साथ ही ले आया था- क्योंकि उस समय चौथे स्थान जो कि मां के साथ जनता का भी होता है- वहां ममता का जादू सर पर चढ़ने लगा- और शनि की महादशा ने ममता की बरसों प्रतीष्ठित मनोकामना पुरी कर दी।
नवम्बर- से शनि जब तुला राशि में आ जायेगा तो ये ढ़ाई वर्ष तो ममता जी की तूती ही बोलेगी पर जून २०१२ से दिसम्बर २०१२ के बीच का समय स्वास्थ्य व अपने ही लोगों के बीच तनाव का रुपक बन सकता है। यद्यपि लोकप्रियता का ग्राफ बढ़ेगा पर इस अवधि में तनाव भी बनेगा।सम्भावना है कि ममता जी का अपने साझेदार (कांगे्रस) से अलगाव के बीज पड़ सकते हैं।
९/२/२०१५ से २३/०१/२०१६ के बीच साझेदार से अलगाव की संभावना प्रबल बनेगी।
२०१६ से २०१९ के बीच शुक्र का अन्तर अचानक दुर्घटना का रुपक बन सकता है क्योंकि शुक्र शनि के नक्षत्र में है। और शनि मार्केश भी है। यहां यात्राओं के योग विशेष बन सकते है। स्थान परिवर्तन के आसार भी लगते हैं।
२०१९ से२०२२ का समय ममता जी के लिए गोल्डन में गोल्डन लग रहा है क्योंकि यहां सूर्य/चन्द्रमा/मंगल का अंतर आयेगा- विशेषकर चन्द्रमा और मंगल विशेष अच्छा परिणाम देंगे- सूर्य का परिणाम इतना अच्छा नहीं होगा।
* ममता जी को अपने सुरक्षा तंत्र को मजबूत रखना चाहिए क्योंकि शुक्र, राहु, प्लूटों का सूक्ष्म प्रत्यंतर अचानक किसी दुर्घटना का रुपक बना सकते हैं।
* शनि की इस महादशा अवधि में ममता जी फिर केन्द्र की राजनीति में अहम भूमिका व और उच्च पद को प्राप्त करेगी- ऐसी सम्भावना है।
* ममता जी के अष्टकवर्ग गणित में दशम से एकादशेश में चमत्कारिक बिन्दुओं की संख्या है-संघर्ष से शिखर तक के सफर में इनका विशेष योगदान रहा है।
* ममता जी को अपने परिधान में पीले रंग या लाल रंग का मिलान करना चाहिए।
* अष्टकवर्ग के बिन्दु यह जताते हैं कि ४८ वर्ष से ७२ वर्ष की समय अवधि सर्वश्रेष्ठ होगी अर्थात १ से २४ वर्ष अत्यन्त समान्य २४ से ४८ वर्ष श्रेष्ठ तथा वर्ष से ७२ वर्ष अत्यन्त श्रेष्ठ होगी।
* ममता जी को तजर्नी अंगुली में पुखराज धारण करने की सलाह.
* अपने महत्वपूर्ण कार्य मंगल व गुरुवार को करना श्रेष्ठ होगा।
* मंगल जब-जब गोचर में वृश्चिक व मकर में आयेगा तब-तब पराक्रम में कमजोरी व बाधाजनक परिस्थितियों का सामना करना पड़ सकता है- लेकिन वृषभ तुला में मंगल शानदार परिणाम देगा । इसी प्रकार सूर्य मिथुन मकर में विपरीत परिणाम देगा पर तुला में इच्छित परिणाम देगा।
चन्द्रमा, कर्क, तुला व कुंभ में मनःस्थिती व निर्णय को अनुकूल बनायेगा पर सिंह, वृश्चिक व मकर में संचरण तनाव कारक स्थिति बन सकती है।

चुटकी

१.
गृहमंत्री और
वित्तमंत्री
में ठनी
फिर
मनमोहन व सोनिया
के द्वारा
सुलह बनी
तब दोनों एक साथ
प्रेस कान्फ्रेंस में
मित्रवत से आये...
बयान के रुप में
पूर्व लिखित
स्क्रिप्ट सुनाये-
तब पत्रकारों ने
शायद यह सोचा होगा
कि एक पत्र से खबर
भी तूफानी बनती है
और एक स्क्रिप्ट
तब उस खबर को
तमाशा भी कर देती है।
अर्थात २जी स्प्रेकट्रम घोटाले पर
वो पत्र सनसनी
खेज खुलासा था,
या
फिर कॉमेडी-तमाशा था।

२.
गृहमंत्री जी की स्मरण शक्ति व गिनती शक्ति कमजोर है तब भी वो गृहमंत्री है-
क्योंकि प्रधानमंत्री जी
की भी
नैतिक शक्ति
कमजोर है।
इस देश की
ग्रह-स्थिती
कमजोर है
शायद तभी
नाकाम-बेनकाब की कमान से
देश चल रहा है।
व इनके बोझ से
बेवजह दब रहा है।

३.
तिहाड़ के
दिन
फिर गये हैं
राजा-मंत्री
मिल गये है।
भविष्य में
और भी आ सकते हैं।
सम्भावना यह कहती है
प्रधानमंत्रीजी
कैबिनेट की बैठक
तिहाड़ में भी
बुला सकते हैं।

पूछिये सवाल- क्या और क्यों?

वित्तमंत्री और गृहमंत्री के दिलों में २जी स्पेक्ट्रम पर एक पत्र को लेकर आई दरार को पी.एम.ओ व दस जनपथ की सीमेंट माटी ने चाहे लाख पाट दिया हो पर इस देश के१२० करोड़ लोगों के दिलों-दिमाग पर जो एक के बाद एक सियासती प्रहार से दरार-दर-दरार आती गई है- न तो सरकार ने इस दरार के प्रति अपनी जिम्मेदारी को स्वीकारा है और न ही इस दरार को भरने के लिए उसने गम्भीरता दिखाई है।
सरकार के लिए मंत्री और मंत्रियों के लिए सरकार-शेष चाहे रहे बेहाल-अर्थात जनता की महत्ता सिर्फ उस वक्त तक है जब चुनाव का मौसम आये तब राजनीति और राजनेताओं के लिए जनता बहार होती है-और ये भंवरों की तरह मंडराने की और उस वक्त जनता की चप्पल भी सर पर लगा लेने में कोताही नहीं बरतते-उसके बाद जनता रुपी बहार उनको अपने चमन से बाहर ही दिखती है- ये भंवरे फिर सत्ता की बहार की मौज लेने चल देते हैं। राजनीति का चरित्र जब ऐसा है तो राजनेताओं का चाल-चलन कैसा होग? कल्पना में भी कुछ अच्छा चित्रण नहीं उतरता।
ये लोग घोटालों के फूटे घड़ों को ढ़कने की प्रक्रिया जारी रख सकते हैं पर गरीबों के उघड़े तन पर कपड़े ओढ़ाने की ये लोग प्रक्रिया नहीं कर सकते... क्योंकि इनकी आंखोें में वो शर्म नहीं है जो नंगे बदन को ढ़कने की सोच भी सके!
इनके पास करोड़ों-अरबों का अकूत धन है- पर मन है कि मानता ही नहीं... फिर भी गरीबों का निवाला निगलने के लिए व देश की संपदा को विदेशों में रखने से बाज नहीं आते। इन सियासती अमीरों को अपने कर्मों का हिसाब सुद सहित देना पड़ेगा... वक्त आ रहा है.. अब वो जनता के हाथ में सिर्फ अंगुठे से छाप देने के अधिकार के साथ लाठी भी पकड़ा सकता है..अब जनता अपनी लाठी से बेरहम, बेशर्म राजनेता का कॉलर पकड़कर जवाब लेना शुरु कर दे तो आश्चर्य मत कीजिएगा... अब सियासत को जनता के लिए गम्भीर दिखने की आवश्यकता नहीं वरन जनता को अपने अधिकारों के प्रति स्वयं गम्भीर होने की आवश्यकता है- तभी राजनीति के इस दलदल में गिने-चुने कुछ अच्छे लोगों को उनका वास्तविक सम्मान भी मिलेगा और शेष को राजनीति के दंगल से बाहर भी फेंक दिया जायेगा।
राजनीति का शुद्धिकरण होना चाहिए- और लूटेरों सी भूमिका निबाहने वालों की लूट का माल जब्त करके उनको देशनिकाला दे दिया जाना चाहिए! ऐसे गद्दारो के हाथ में देश की कमान तो दूर बल्कि देश में रहने की जगह भी नहीं मिलनी चाहिए!
जनता को अपने जनप्रतिनिधियों व बड़े प्रशासनिक अधिकारियों को हजूर कहने से बाज आना चाहिए- हमने अपने सर्मथन की ताकत से इनको सांसद, विधायक, पार्षद बनाया है- अर्थात इनको बनाने वाले जब स्वयं हम हैं तो ये हजूर कैसे?
मैं यह नहीं कहता कि हम अपने जनप्रतिनिधि को सम्मान न दें- बेशक वे स्नेह, सम्मान के अधिकारी हैं- पर इसके लिए उनकी पात्रता होनी चाहिए। उनका सामन्ती अंदाज हमारे स्नेह-सम्मान के लिए उनकी पात्रता को रद्द कर जाता है। जनता को अपने-अपने क्षेत्र के जनप्रतिनिधि के आचरण-व्यवहार-योग्यता की समीक्षा करनी चाहिए व सवाल भी पूछने शुरु कर देने चाहिए- यहां पर जात-पात-मजहब व पार्टी निष्ठा को परे रख कर जनता को अपना काम शुरु कर देना चाहिेए। आपके सवाल उनकी नींद उड़ा देंगे- और वो आपके दरबार में हाजरी देने खुद आयेंगे... बस आप पूछिये सवाल क्या और क्यों?
अगर कोई जनोपयोगी कार्य नहीं हुआ तो क्यों नहीं हुआ और कोई गलत काम हुआ तो क्यों हुआ?
जिस दिन से आप सवालों की श्रृंखला शुरु कर देंगे तब उनको लगेगा कि जनता जगी हुई है- और उनके कार्यों की समालोचना होनी तय है- तब अच्छे काम करने वाले जनप्रतिनिधि प्रोत्साहित होकर और अच्छा काम करेंगे- और गलत काम करने वाले गलत काम करने से पहले बार-बार सोचेंगे! परिवर्तन की मानसिक प्रक्रिया इस तरह शुरु होगी और उजियाले की फटती पो का नजारा भी दिखेगा- पर इसके लिये जनमानस को जागना होगा-और अपने-अपने क्षेत्र से प्रक्रिया शुरु करनी होगी। आप उनसे सवाल पर सवाल तब तक पूछते रहे जब तक वो आपके सवालों का जवाब देने के लिए बाध्य न हो जाये।

Friday, September 16, 2011

लोकपाल


१.
लोकपाल स्टेडिंग कमेटी
में
लालू व अमर का
पुर्नचयन
यह बताता है कि
जन लोकपाल बिल
में
भ्रष्टाचार को रोकने में
रोड़ा अटकाने के लिए
इनको लाया जाता है।
अमर सिंह
बीमार है-
अभियुक्त है
अंतरिम जमानत पर है
पर इस सरकार की
सबसे बड़ी जरुरत है-
क्योंकि नोट काण्ड में
अमर की हिरासत
सरकार की हरारत है
और जनता के जन लोकपाल पर
सरकार की यह
सियासती शरारत है।
सरकार अपनी सीरत में
सुधार नहीं करेगी-
क्या जनता अब भी
इनमें बदलाव
नहीं करेगी?
२.
भ्रष्टाचार को
खत्म करने वाले
जन लोकपाल बिल
पर
स्टेडिंग कमेटी
में
बैठकर
लालू व अमर
निर्णय का
हिस्सा बनेंगे-
अर्थात भ्रष्टाचार
को
मिटाने
की
कवायद
अब
भ्रष्टाचारी
खुद करेंंगे।
३.
यह सरकार
अपने कर्मों
का
आने वाला फल
समझने लगी है
इसलिये जो खा चुकी है
उसको पचाने में लगी है
और जो
बच गया है-
उसको खाने में लगी है-
यहां खाने और पचाने
का
दौर चल रहा है-
और
जनता का जन लोकपाल
चारे की तरह
स्टेंडिंग कमेटी में टंगा है-
ये लोग
आम आदमी की
रोटी
कप़ड़ा
मकान
को खा चुके हैं
अब
चारा खाने वाले
सरकार को बचाने वाले
स्टेंडिंग कमेटी में
फिर आ चुके हैं।

ममता के लिए सबसे बड़ी चुनौती...

एक प्रतिष्ठित बांग्ला दैनिक में बंगाल के एक जूट उद्योगपति के द्वारा तृणमूल विधायक की शिकायत केन्द्रीय गृहमंत्री को भेजने की खबर प्रकाशित होने के बाद यह सवाल विचारणीय बन गया है कि ममता दीदी की क्लीन छवि पर उनके अपने ही लोग अपने निहित स्वार्थों की वजह से कोई दाग तो नहीं लगा रहे? प्रकाशित खबर आधारित रुप से कितनी सच्ची है? यह तो वक्त बतलायेगा-लेकिन ममता दीदी के लिए बंगाल के विकास का प्रयास जितना गम्भीर है उससे अधिक गम्भीर बात अपनी सरकार के लोगों व कर्मियों को पूर्ण नियंत्रण में रखने की है-फिर वो चाहे विधायक, सांसद, पार्षद या फिर अपने क्षेत्र में पार्टी के संपादक क्यों न हो?
अगर आम जनता के बीच इन लोगों की नेतागिरी-गुण्डागर्दी का रुपक बनकर किसी भी रुप में आती है तो इसका सीधा प्रभाव ममता जी की छवी पर पड़ेगा। देखने की बात यह भी है-कितने जनप्रतिनिधि ऐसे हैं जो उद्योगपतियों के उद्योगों में अप्रत्यक्ष रुप से हिस्सेदार बनकर उन उद्योगपतियों के हितार्थ काम कर रहे हैं। बात साफ है कि कोई उद्योगपति अगर नेता को प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष हिस्सा देगा तो वह अपने संरक्षण के साथ कंपनी को आगे बढ़ाने के लिए उस राजनैतिक हस्ती का उपयोग करेगा- यहां पर अपने प्रतिस्पर्धी को पछाड़ने या उसको कसने की स्थिती का प्रयोग भी आश्चर्यप्रद नहीं लगता।
अगर आज भी एक मकान मालिक को अपनी इमारत को ठीक-ठाक व रंग करवाने के लिये क्षेत्रीय नेता की दादागिरी की वजह से गुण्डा टेक्स देना पड़े तो फिर परिवर्तन या बदलाव शब्द सार्थक कैसे लगेगा? यह सवाल वाजिब है कि गणतंत्र में गुण्डई का राजतंत्र जनता को कब तक सहना पड़ेगा? कम से कम बंगाल की जनता के लिए ममता जी को अपनी पार्टी के साथ साझेदार पार्टी के नेताओं व कर्मियों को नैतिक रूप से कसने की कवायद करनी होगी जिससे आम जनता की शिकायत ममता जी तक पहुंच सके- व तुरन्त ठोस कार्रवाई हो जाये कुछ ऐसी व्यवस्था तो बनानी ही होगी तभी आम जनता में अन्याय का विरोध करने की हिम्मत जगेगी और शायद तभी आम जनता के प्रति ममता की ""ममता'' पक्की लगेगी!

Saturday, September 10, 2011

"आप और वे'

वे आतंकवादी है
उनके मन में बारुद है
खून खराबें का जज्बा है
जान हथेली पर रख कर
वो अपना काम कर जाते हैं।
चिदम्बरम जी-आप गृहमंत्री है
आपके पास-
सुरक्षा परियोजनाओं
की फाइलें हैं,
फाइलों में भरे पन्ने हैं।
आप इनको तकिया बनाकर
चैन की नींद सो जाते हैं ।।
आतंकियों के पास जमीर नहीं है
वे निर्दोषों का खून कर जाते हैं.
जमीर आपके पास भी नहीं है-
आप अपनी जवाबदेही से
सीधे मुकर जाते हैं.
पीड़ितों के जख्मों पर
मरहम की जगह-
नमक-मिर्ची लगाते हैं।
जमीर की इस जमीं पर
"आप और वे'
कितने मिलते नजर आते हैं !
जो खून वो करते हैं
वो दिखता है ।
जो खून आप करते हैं,
उससे नैतिकता हर पल मरती है...
वो हम महसूस करते हैं।
वे आतंकी होने का
अपना कर्म निभाते हैं
पर
आप गृहमंत्री होने का
अपना धर्म कहां निभा पाते हैं?

सांसद हो या सामन्त?

जन लोकपाल बिल को संसद के पटल पर रखवाने बाबत गांधीवादी अन्ना हजारे के आन्दोलन के वक्त राजनीति के गलियारों से संसद की महत्ता व उसकी सर्वोच्यता की बयानगी पुरे जोर-शोर से सुनाई दी- पर वे लोग संसद की जड़ को ही भूल गये-क्योंकि संसद में जनता के द्वारा चुने हुये प्रतिनिधि बैठते है-अर्थात आधार जनता ही है- फिर भी जनता के आंन्दोलन को विवादास्पद बनाने की नाकाम कोशिश राजनेताओं ने की-वो यह भूल गये कि सांसद होने का अर्थ क्या है? जनता के प्रतिनिधि होने के नाते सांसद का कर्तव्य जन सेवक के रुप में अपने क्षेत्र की जन समस्या को उठा कर उसको समाधान की प्रक्रिया को बनाना होता है- पर अधिकतर मामलों में सांसद अपने कर्तव्य को छिटका कर सामन्त की भूमिका में नजर आते हैं। खुद को राजा समझने की यह भूल ही जनता को सड़क पर उतरवा देती है- फिर वे लोग (सांसद) संसद की दुहाई देते भागते से दिखते हैं। अन्ना ने जनता को अपनी ताकत का अहसास करवा दिया है अब भी अगर सांसद सामन्ती अंदाज में नजर आते हैं-तो उनकी उल्टी गिनती उनके संसदीय क्षेत्र में जनता के द्वारा तय है- क्योंकि जनता अपने वोट की कीमत ससम्मान लेना चाहती है सांसदों के सामन्ती दरबार में लाईन लगाकर हाथ जोड़कर याचना करना नहीं चाहती!
आने वाले वक्त में सांसदों-विधायकों व पार्षदों को अपने तौर तरीकों में बदलाव करने ही होंगे अन्यथा जनता चेहरों को बदल देगी क्योंकि जनता अब सामन्तवादी अदा देखना नहीं चाहती-उसे अपना प्रतिनिधि चाहिए जो उसकी आह और वाह को समझ सकता हो! आने वाला समय दलवादी राजनीति से ऊपर उठकर व्यक्तिवादी होगा- जनता राजनैतिक दलों को नहीं बल्कि व्यक्तित्व के आंकलन से फैसला लेगी- क्योंकि उम्मीदवार अगर योग्य, नैतिक व जुझारु होगा तो वो जनता के उस वोट की कीमत को तवोज्जों देगा न कि दल के फैसले को- और ऐसे व्यक्ति ही जनता के दिलों-दिमाग पर राज करेंगे!
अन्ना हजारे के आन्दोलन ने जनता को उसके लोकतांत्रिक अधिकारों की शक्ति याद दिला दी है... अब जब जनता जग गई है तो राजनीति को अपनी सूरत व सीरत दोनों बदलनी पड़ेगी
अगर उन्होंने अपना मिजाज नहीं बदला तो जनता अपना रिवाज बदल देगी- और नामी-गिरामी चेहरों की राजनीति से छुट्टी की घोषणा हो जायेगी।
मुझे तो लगता है कि पक्के राजनेता छुट्टी में जाने के बजाय अपने मिजाज को बदलना पसंद करेंगे-क्योंकि आखिरी सांस तक रिटायरमेंट से वो इस क्षेत्र में ही बच सकते है।

Saturday, September 3, 2011

मन क्यों नहीं मिलते?

जैन धर्मावलम्बियों का प्रयूषण पर्व (सम्वत्सरी) भी प्रायः दो दिन चतुर्थी व पंचमी को मनाया जाता है। भगवान महावीर के अनुनायियों का यह मतान्तर अपने अपने पंथ/सम्प्रदायों की वजह से दुःखद लगता है। सद्भावना, मेल-मिलाप, का संदेश देने वाले इस पर्व की महत्ता को कहीं न कहीं हमारे पंथ/ सम्प्रदाय के मत रुपी अहम् से हम खुद आहत कर रहे हैं। जैन धर्म के अनुयायी जब भगवान महावीर की वाणी पर चलते हैं तो फिर मतान्तर का प्रसंग तो आना ही नहीं चाहिए। भगवान महावीर के उपदेश तो सभी के लिए एक है- फिर सम्वतसरी के इस पर्व में श्वेताम्बर में, स्थानकवासी, मूर्तिपूजक, तेरापंथी में विभिन्नता क्यो? कितना सुखद होता जब पंथ सम्प्रदाय की रेखा से बाहर आकर इस पर्व को सब एक साथ महोत्सव के रुप में मनाते, मतान्तर के अहम् को मिटाते।
सम्वत्सरी पर्व पर जैन धर्मावलम्बी अपने प्रतिष्ठानों को बंद रखते हैं-इस दिन की महत्ता तप, जप, साधना के रुप में विशेष मानी जाती है-पर सवाल यह है कि प्रतिष्ठानो को बंद रख कर विशेष जप, तप, स्वाध्याय, मनन के रुप में इस दिन का सार्थक उपयोग कितने लोग करते हैं और कितने लोग सिर्फ दिखावे के लिये प्रतिष्ठान को बंद करके अपनी श्रद्धा को दिखाते है! गौरतलब यह भावना भी है कि एक दिन उपवास, स्वाध्याय करके कहीं हम ३६४ दिनों की मनमौजी स्वतंत्रता का मानस तो नहीं बना लेते?
धर्म न तो प्रतिष्ठान के बंद करने में है न सिर्फ समवसरण जाकर अपनी उपस्थिति दर्ज करने में है- अगर ये सब करने के बाद भी मन में द्वेष, क्रोध बना रहे- तब धर्म का यह रुप सिर्फ छलावा ही प्रतीत होता है।
अगर सजग रहकर कर्मशीलता बनी रहे तो वो कर्म ही धर्म बन जाता है। हमारे धर्म शास्त्रों में अजपा जप की बात आती है-और इस स्थिति में आदमी अपना कर्म भी करता रहता है पर अंदर ही अंदर जप भी चलता रहता है- वो स्थिति जब बन जाती है तो हर दिन संवत्सरी जैसा स्वतः ही बन जाता है। उपवास करके अगर समय काटने के लिये ताश के पत्ते फेंटे जाये या फिर वातानुकूलित सिनेमाघरों में फिल्में देखी जाये- तो उसको फिर धर्म या तप के रुप में हम इसको न समझे... कुछ लोग तो उपवास इस डर से करते हैं कि सम्वत्सरी को उपवास नहीं करने से लोग क्या कहेंगे? कभी-कभी तो उपवास न करके भी लोग यह कह देते हैं कि उपवास किया था।
धर्म मन से होता है- दवाबी धर्म तो दिखावा और खुद के लिए छलावा होता है। कुछ मिनट का विशुद्ध ध्यान अंतरात्मा को र्निमल बना सकता है और एक आसन पर घंटों तक की माला, जप तब बेकार हो जाते हैं जब ध्यान भटका हुआ होता है।
इस पर्व के साथ क्षमा-याचना का बड़ा महत्व होता है- तभी इसे क्षमा पर्व भी कहा जाता है- पर यहां भी अक्सर हाथ दिखावे के लिए जुड़ते हैं- मन में कैची फिर भी चलती है ।
अगर आपका मन क्षमा देना, या लेना किसी से नहीं चाहता तो दिखावे से परहेज करना चाहिए। हम भीड़ में तो गले मिल लेते हैं और थोड़ी दूर जाकर यह भी कह देते हैं कि समाज के सामने उससे मिलना पड़ा- भला ऐसा मिलना भी क्या जरुरी? जब दिलों में रहती है फिर भी दूरी... तो ऐसे मिलने की क्या मजबूरी है?
शायद इसलिये कि-
हमने रस्मों को
निभाते देखा है
आइने से खुद को
छुपाते देखा है
जिनके दिलों में
रंजिशें भभक रही थी
जमाने के सामने
उनको गले लगाते देखा है।

Saturday, August 20, 2011

मशाल भी, मिसाल भी

अन्ना का कमाल!
१२० करोड़ की इस आबादी की दुखती रग पर हाथ इस तरह से रखा कि पूरे देश में क्रांति का करंट-सा आ गया और जिस तरह से जनसैलाब उमड़ा-उससे सरकार हिल गई। बाबा रामदेव पर उल्टा प्रहार करने में सफल रही सरकार के सिर्फ हौसले ही पस्त नहीं दिखे वरन् प्रधानमंत्री सहित उनके मंत्रियों के चेहरों पर से हवाईयां उड़ती-सी दिखी।
अन्ना हजारे ने जय प्रकाश जी के सत्याग्रह व महात्मा गांधी के आन्दोलनों की याद दिला दी- और जिस अंदाज में इस आंदोलन को दूरदर्शिता के साथ संचालित किया जा रहा है- वहां सरकार को स्ट्रोक लगाने का मौका ही नहीं मिल रहा है- सरकार बैकफुट में खेलने को मजबूर हुई है।
सरकार के कुछ मंत्रियों व प्रवक्ता की तरफ से जो अनर्गल आरोप लगाये गये उनका भुगतान सरकार को करना पड़ेगा वक्त उनसे पूरा हिसाब वसूल करेगा!
बधाई के पात्र है इस देश के युवा- जिन्होंने अपनी आवाज और उपस्थिति का जज्बा दिखा कर सरकार को यह संदेश दे दिया कि नव पीढ़ी जब सड़क पर उतरती है तो उसकी आहट से सियासत के खम्भें हिल जाते हैं।
अब स्वर्णिम भारत का युग आने वाला है-नेता-राजा नहीं होते जनता के सेवक होते हैं- यह संदेश राजनीति और सियासत को नया सबक सिखा रहा है- क्योंकि ये लोग वोट पाने के बाद कुर्सी पर ऐसे बैठते हैं- जैसे राजा बन गये हों और हमेशा बने रहेंगे। अन्ना ने नेताओं को यह समझा दिया है कि वो जन सेवक है इसलिए अपने आपको राजा समझने की भूल न करें !
देखना यह है कि सरकार के साथ विपक्ष सहित सभी दल जन लोकपाल पर क्या कहते हैं? भ्रष्टाचार सब जगह ही है इसलिये तकलीफ तो सबको होगी- इस आचार के बिना राजनीति की रोटी को क्या ये लोग चबा पायेंगे?
पर अब यह तय हो गया है कि काला धन, काला मन, काला कर्म नहीं चलेगा और नहीं चलेगी सरकार की काली नीति- जो कानून नियम का हवाला देते हुए अपने अधिकारों का अतिक्रमण कर सकती है और जनता अपने अधिकारों के लिए टुकुर-टुकुर देखती रह जाती है।
आजादी की ६४वीं वर्षगांठ के बाद का अगला दिन अन्ना क्रांति का नया सूरज ले आया- और अब लग रहा है कि असली आजादी का असली स्वाद अब इस देश को मिल कर रहेगा।
अन्ना
मशाल
भी
मिसाल भी
क्रान्ति
का
सूत्रपात भी
असली
आजादी
का
आधार भी..
देश ने देखा है...
दूसरी आजादी
के
लिए
अब दूसरा गांधी
आ गया है।

Saturday, August 13, 2011

फिल्म आरक्षण पर बवाल क्यों?

फिल्म मनोरंजन का माध्यम होती है- लेकिन कुछ फिल्मों की पटकथा जीवन के यर्थाथ को देखकर लिखी जाती है तब वह फिल्म समाज, देश को एक संदेश भी देती है और इसका प्रभाव भी पड़ता है- जैसे थी्र इडियट फिल्म में मनोरंजन के साथ-साथ शिक्षा पद्धति और हमारी मानसिकता के सच को उजागर करते हुए बदलाव की आवश्यकता को पुर-जोर आवाज दी।
प्रकाश झा की आरक्षण रिलीज होने से पहले राजनीति गलियारों में शक की निगाहों पर चढ़ गई और फिल्म के कुछ दृश्य व संवाद आपत्तिजनक बतला कर उसमें परिवर्तन की मांग कर दी गई अन्यथा रिलीज करने पर कुछ प्रदेशों में प्रतिबंधित कर दिया गया।
दरअसल यह विवाद राजनीति की जमीं पर ही हुआ है- क्योंकि इस देश की राजनीति की नाजायज संतान है आरक्षण और अब फिल्म के माध्यम से जब खुल कर पात्र और संवाद के माध्यम से सामने आता दिखा तो राजनीति में हड़कंप मच गया।
ऊंच-नीच की लकीर खिंचने की जिम्मेवार भी राजनीति है और उनकों अपना वोट बैंक बनाने के लिए आरक्षण का कटोरा पकड़ाने वाली भी राजनीति ही है। बड़े जोर-शोर से यह कहां जा रहा है कि आरक्षण को संसद, न्यायालय ने मुहर लगाई है- इसलिये इसे खैरात कहना इनका अपमान होता है- पर इन लोगों से यह पूछा जाना चाहिए कि ऊंच-नीच की दीवार बना कर -निर्बल या असहाय बता कर मानवीयता के जज्बे को दर-किनार करके सियासत के तवे पर रोटी सिकती रहे इसके लिये आरक्षण का इस्तेमाल करना क्या देशहित में उपयोगी हो पाया है? आरक्षण देकर आपने उन लोगों के स्वाभिमान को मारा है और उनके हाथों में बैशाखी पकड़ा दी है- और यह सिर्फ अपने वोट बैंक को फिक्स करने के लिए किया है? क्या यह देश के साथ खिलवाड़ नहीं है? जो सामने होता आया है-उसे आप संसद और कानून की आड़ में नजर अंदाज कर रहे हैं- सिर्फ शब्दों पर जा रहे हैं-यर्थाथ पर पर्दा डाल रहे हैं।
हम यह मानते हैं कि अमीर-गरीब दो वर्ग हैं- इनको जात-पात, धर्म से नहीं देखना चाहिए- लेकिन इस देश की राजनीति ने गरीब रुपी बड़े वर्ग के विशाल वोट बैंक को अपनी जेब में आरक्षित करने के लिए उन्हें आरक्षण दिया-और इसका दुष्प्रभाव यह हुआ कि आधिकांशतः मामलों में योग्यतायें-प्रतिभायें सर्वश्रेष्ठता साबित करने के बाद भी दरवाजे के बाहर खड़े रह गई और अयोग्यता आरक्षण की बैशाखी के सहारे प्रमुख पदों पर चयनित हो गई! इसका दुष्परिणाम देश भुगत रहा है। क्योंकि अगर योग्य व्यक्ति उच्च प्रशासनिक पद पर नहीं रहेंगे तब उस पद की गरिमा कैसे बनी रहेगी?
प्रतिभा अमीर-गरीब को नहीं देखती... वो तो ईश्वर प्रदत्त उपहार है हां उसको निखारने के लिए अगर गरीब तबके को सरकार सुविधा, संसाधन नहीं देकर अर्थात संरक्षण प्रदान नहीं करती और इसके बदले में आरक्षण की बैशाखी देती है तो यहां प्रतिभा, योग्यता के साथ क्रुर मजाक होता है क्या यह गलत नहीं है?
आरक्षण नहीं संरक्षण दीजिए-ऐसी व्यवस्था दीजिए कि हर वर्ग को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के उचित संसाधन, सुविधा मिले तथा योग्यता के आधार पर उनका चयन हो।
ऊंच-नीच, जात-पात के आधार पर यह बंटवारा आपत्तिजनक है- क्या ऊंचीं जात के लोग गरीब नहीं होते?
इस देश की सियासत मानसिकता से इतनी गरीब है कि जब तक इसकी सोच में बदलाव नहीं आयेगा तब तक इस देश में समृद्धि नहीं आ पायेगी।
आरक्षण के नाम पर राजनीति ने कुर्सी का आरक्षण किया है इस शब्द पर बहस होनी चाहिए तथा बैशाखी देने वाले इस शब्द का प्रयोग बंद हो ऐसा प्रयास होना चाहिए!
चयन की कसौटी योग्यता ही होनी चाहिए न कि आरक्षण के कोटे। जात-पात के आधार पर भेदभाव का बीज राजनीति ने अंकुरित किया है-और यह पौधा अब उसके जी का जंजाल बन रहा है।
हम सब भारतीयों को एक स्वर से सियासत की काली करतूतों का विरोध करते हुए समान शिक्षा प्रणाली और संसाधन सर्वत्र पहुंचाने का दवाब बनाकर आरक्षण को बंद करने की आवाज बुलंद करनी चाहिए!
यह मसला जो समाज-वर्ग से जोड़ा गया है- इसे राष्ट्र के परिपेक्ष्य में देखना चाहिए।
सरकारे आरक्षण नहीं- शिक्षा के उत्कृष्ट संसाधन गांव तक पहुंचाने को मजबूर हो जाये और वोट बैंक की बत्ती गुल हो जाये- तभी नई रोशनी दिखेगी और समृद्ध भारत बनेगा।...

Saturday, August 6, 2011

सरकार बीमार है-इसका इलाज कीजिये!

सोनिया गांधी जी अस्वस्थ हैं- उनका विदेश में इलाज चल रहा है- उनको स्वास्थ्य को निजी मामला कहकर निजता का सम्मान करते हुए उनके स्वास्थ्य के बारे में देश को जानकारी विस्तृत रूप से नहीं दी जा रही है। बेशक यह उनका निजी मामला है- लेकिन सोनिया जी देश की महत्वपूर्ण हस्ती है-क्योंकि वो कांग्रेस अध्यक्षा है तथा सरकार की कार्यप्रणाली पर उनका निर्देशन जुड़ा हुआ है-इस लिहाज से उन पर पड़ने वाला कोई प्रभाव सरकार व देश पर भी पड़ता है- इसलिये स्वास्थ्य की विस्तृत जानकारी को देश के सामने न रखना उनकी निजता का सम्मान तो जताता है पर देश की जनता के जिज्ञासा समाधान को नहीं बताता अर्थात कहीं न कहीं भावनात्मक रूप से ही सही इस देश की जनता के लिये यह उचित नहीं हो रहा है।
लोग जानते हैं कि इस सरकार में कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष का पद कितना प्रभाव रखता है... और वो व्यक्तित्व अगर अस्वस्थ हो जाये और कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में उनके पुत्र को कमान सौंपने की फुसफुसाहट शुरु हो जाये तो दो बातें सामने आती है- एक तो कांग्रेस अध्यक्षा की बीमारी शायद गम्भीर है अन्यथा कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में कमान उनके पुत्र को सौंपने की बात शायद नहीं चलती ।
दूसरी बात परिवारवाद की विरासत की आती है- क्या राहुल इतने परिपक्व हो गये हैं कि वो कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में सरकार को चला सकते हैं क्योंकि लोगों की यह मान्यता बन गई है कि यहां सरकार अपनी मर्जी से नहीं बल्कि कांग्रेस अध्यक्षा की मर्जी से ही चलती दिखी है- क्या राहुल इस जवाबदेही को कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में संभाल पायेंगे?
शायद कांग्रेस में नेताओं का अकाल है.... गांधी परिवार के प्रति जी हजुरी करने वालों की भरमार है- अन्यथा राहुल गांधी ही आगे खड़े नहीं दिखते, सचमुच वफादारी की मिसाल यहां दी जा सकती है- यह तो बेमिसाल है। राहुल युवा है- देश में जनता के बीच घुमे हैं-दलितों-किसानों के घरों में रहे हैं-सिर्फ यह योग्यता ही तो काफी नहीं कही जा सकती है। यू.पी. में जमीन अधिग्रहण की आलोचना करते हुए उन्होंने हरियाणा सरकार के द्वारा जमीन अधिग्रहण का उदाहरण प्रस्तुत कर हरियाणा सरकार के कसीदे पढ़े थे- लेकिन कुछ दिनों बाद वहां भी विवाद सामने आ गया।
दरअसल यहां योग्यता नहीं बल्कि विरासत के आगे सियासत घुटने टेकती नजर आती है ...और यह इस देश का दुर्भाग्य ही कहां जा सकता है।
सोनिया जी की स्वस्थता की हम दुआ करते है-उनका शरीर व मन दोनों स्वस्थ हो- हमारी यह मंगल कामना है। अब यह उन पर व सरकार पर है कि अपनी निजता के अधिकार का संरक्षण करेगी या जनता की भावनात्मक जिज्ञासा का समाधान करेगी।
हम यह नहीं जानते कि सोनिया जी के स्वास्थ्य की स्थिति वास्तविक रूप से कैसी है?-पर हालात देश के यह बताते हैं कि सरकार बीमार है और उसकी वजह से देश बीमार है... और इसके लिए सरकार की मनोस्थिति व कार्यप्रणाली के सटीक इलाज की जरूरत है... और यह निजता का मामला नहीं ११० करोड़ की आबादी वाले इस देश का मामला है और इसका इलाज जरूरी है।

Monday, August 1, 2011

जनप्रिय होम्यो विशेषज्ञ डॉ० एस.बी.चौधरी नहीं रहे...


फर्स्ट न्यूज कार्यालय डेस्क- हावड़ा। सुप्रसिद्ध होम्यो चिकित्सक डॉ. शिव बच्चन चौधरी का गुरुवार २८ जुलाई २०११ को मध्याह्न १ बजे के आस-पास र्स्वगवास हो जाने से हावड़ा क्षेत्र में शोक की लहर सी फैल गई। गौरतलब है कि पिछले कुछ माह से शारीरिक अस्वस्थता व अत्यधिक कमजोरी की वजह से वो गगनांचल मार्केट स्थित अपने चेम्बर में नहीं आ पा रहे थे- बावजूद इसके उन्होंने अपने अंतिम समय की पूर्व संध्या तक घर में दिखलाने आये रोगियों को निराश नहीं किया। ऐसे कर्मठ कर्मयोगी व मानवीयता को अपना कर्तव्य समझने वाले यशस्वी- परोपकारी व्यक्तित्व के चले जाने से उनके चाहने वालों को गहरा आघात लगा है।
डॉ० चौधरी फर्स्ट न्यूज पत्रिका के स्वास्थ्य स्तम्भ में होम्योपेथ चिकित्सा के लोकप्रिय स्तम्भ लेखक थे- फर्स्ट न्यूज का पाठक वर्ग उनके ज्ञानवर्धक आलेखों को गहरी रुचि के साथ पढ़ता था।
रोग को पकड़ने व उनके सटीक निदान की विशेष दक्षता की वजह से कोलकाता महानगर के दूरस्थ क्षेत्रों व बंगाल से बाहर अन्य शहरों के लोग भी उनकी लोकप्रियता को सुनकर आते रहते थे। ऐसे सिद्धहस्त व मानवीयता के पथिक का चला जाना निःसंदेह पीड़ादायक प्रसंग ही बन गया।
स्व० चौधरी अपने पीछे सहधर्मिणी श्रीमती मूंगा चौधरी व यशस्वी सुपुत्र डॉ० सत्येन्द्र चौधरी, संजय चौधरी (कम्प्यूटर इंजीनियर), डॉ० पूनम चौधरी व डॉ० कनक चौधरी (पुत्रवधु), श्रीमती इन्दू सिंह (पूत्री) व बलराम सिंह (दामाद- प्रोजेक्ट इंजीनियर) के साथ सुशिक्षित, पोते-पोती, नाती-नातिन का भरापूरा परिवार छोड़ गये हैं।

उनकी कृपा याद आती है...


करीब १५ वर्ष पूर्व ३१ जुलाई १९९६ को जब इस स्थूल जगत में मेरे सर से पिता का साया उठा था तब मुझे अहसास हुआ था कि सर पर से पिता रुपी इस वट वृक्ष की अनुपस्थिति का दर्द क्या होता है? इस खालीपन का अहसास उस वक्त तो और अधिक होता था- जब संघर्षों के तूफान सामने खड़े दिखते थे- और पिता के नाम, अपने स्वाभिमान, को बचाने की कवायद में अपनों के कटाक्ष होते थे और इन सबके बीच परिवार के भरण-पोषण की जवाबदेही सामने होती थी...।
यह संघर्ष नहीं भूला जाने वाला संघर्ष था- लेकिन इस व्यथा का बोझ तब कुछ कम हुआ था जब एक पुण्यात्मा ने एक दिन मुझे अपना धर्मपुत्र कह कर मेरे उन जख्मों पर मरहम सा लगा दिया और उस दिन के बाद उन्होंने वट वृक्ष रूपी अपनी सघन छाया प्रदान की... जब भी तकलीफ के क्षण आये तो वो आगे खड़े दिखे... मुझे तनाव मुक्त किया और उस तनाव को अपने ऊपर लिया... अब ऐसी कृपा को क्या कभी भूलाया जा सकता है? क्या ऐसी पुण्यात्मा कभी स्मृति से विस्मृत हो सकती है?
मैं उस व्यक्तित्व की बात कह रहा हूं- जिसने अपने जीवन के ७५ वर्षों को कर्मठता, दक्षता, मानवियता व परोपकार के गुणों से जिया। शारीरिक अस्वस्थता की गम्भीर स्थिति में भी अपने जीवन की आखरी सुबह की पूर्व सन्ध्या में भी घर आये मरीजों को देखा। मुझे गर्व है कि लोग जिसे डॉक्टर के रूप में भगवान कहते थे- उन्होंने मेरे सर पर धर्म पिता के रूप में आर्शीवाद का हाथ रखा था। दिवंगत डॉ० एस.बी.चौधरी की स्मृतियां न जाने कितने दिलों को उनकी अनुपस्थिति से आहत करेगी और भगवान से पूछेगी कि "" हे भगवान'' तुम इस दुनिया में पुण्यआत्मा को लोकोपकार करने के लिए अधिक समय क्यों नहीं देते?
जब कुछ हमारा हमसे छीन जाता है.... तो मन की शिकायत उस विधाता से जायज है...लेकिन जब कोई व्यक्तित्व अपने जीवन की शानदार पारी यादगार लम्हों व प्रतिष्ठा-जनप्रियता की पताका के साथ खेल कर चला जाये तो विधाता से शिकायत नहीं बल्कि यह याचना होनी चाहिए कि "" हे विधाता'' कर्मवीर साधक की पुण्यात्मा ने स्थूल जगत में विश्राम नहीं लिया... अब उन्हें सुख, शांति पूर्ण विश्राम व मुक्ति का द्वार तू प्रदान कर।
३१ जुलाई मेरे पिताजी की पुण्यतिथि है- २८ जुलाई मेरे धर्मपिता की नियती संयोग भी अद्भूत बनाती है... मुझे कर्मशील, यशस्वी, परोपकारी मानवियता की शाखाओं से सुरभित वट वृक्षों की छांव मिली है...।
इस स्थूल जगत में शरीर के रूप में उनका अस्तित्व चाहे न दिखे पर सूक्ष्म जगत से उनकी अनुकंपा के स्पंदन व सुरक्षा कवच की ढ़ाल तो बनी हुई ही है।
मैं इनको सादर वंदन करते हुए इनके आध्यात्मिक उत्कर्ष की प्रार्थना सर्वशक्तिमान से करता हूं।

Wednesday, July 27, 2011

बंगाल का सूरज

एक नया सूर्य
बंगाल के
आकाश में...
एक नया सूर्य
बंगाल के इतिहास में...
रश्मियां
यह
जता रही है
कि
अंधेरों की धूंध
अब खुद
जाना चाह रही है
अर्थात
रोशनी विकास की
एक नये आयाम की
नजर आ रही है
क्योंकि
उगता सूरज
अपना
रुप दिखा रहा है
और
एक नया
आलोक
अपनी चाल में
बना रहा है
अर्थात
बंगाल
का
स्वर्णिम काल
अब
आ रहा है।
-संजय सनम

बंगाल का सूरज

एक नया सूर्य
बंगाल के
आकाश में...
एक नया सूर्य
बंगाल के इतिहास में...
रश्मियां
यह
जता रही है
कि
अंधेरों की धूंध
अब खुद
जाना चाह रही है
अर्थात
रोशनी विकास की
एक नये आयाम की
नजर आ रही है
क्योंकि
उगता सूरज
अपना
रुप दिखा रहा है
और
एक नया
आलोक
अपनी चाल में
बना रहा है
अर्थात
बंगाल
का
स्वर्णिम काल
अब
आ रहा है।
-संजय सनम

""सलाम बांग्ला-सलाम ममता''

पं० बंगाल ब्रिगेड रैलियों, चक्का जाम, अचल सड़कों व रैलियों की वजह से जन सामान्य की परेशानी को नजरंदाज करने वाली राजनीति व प्रशासनिक अव्यवस्थता के नाम से अपनी खासी पहचान रखता आया है- यहां की जनता के लिए ब्रिगेड रैलियों का अर्थ बी-ग्रेड हो गया था क्योंकि इन रैलियों में अधिकतर बाहरी किराये की वो भीड़ देखी जाती थी जो मैदान को भरने के लिए बुलाई जाती थी- और प्रशासनिक व्यवस्था भी तब चरमरा जाती थी- फलस्वरूप कई बार मानवीयता भी आहत होती थी- जैसे भीड़ के रास्ते में बीमार मरीज को उपचार के लिए ले जाने वाली एम्बुलेंस फंस गई और समय पर अस्पताल न पहुंचाने से मरीज की मौत हो गई... शायद इसलिए बिग्रेड रैलियां आम जनता के लिए बी-ग्रेड सी हो गई थी।
पर गुरुवार को बिग्रेड ने न सिर्फ अपने नाम की गरिमा दिखाई वरन् आम जनता के मन की उस पुरानी परिभाषा को भी बदल दिया अगर मुखिया नेक, ईमानदार, शालीन, अनुशासित हो तो फिर उसके कार्यकर्ताओं को भी ऐसा ही बनना होता है- क्योंकि उनकों जो बार-बार बताया जाये फिर आचरण में वो आता ही है। शायद इसलिये गुरुवार को बिग्रेड का नजारा अभूतपूर्व था। वास्तव में यह असली ब्रिगेड थी- क्योंकि यहां किराये की भीड़ नहीं थी- अपने दिल की आवाज पर दीवानगी के अहसास को लेकर लाखों लोग आये थे.... इस भीड़ ने यह बताया था कि अगर कोई जनता के लिए र्ईमानदारी से काम करता है तो जनता उसके लिए सैकड़ों मिलों से सफर करके बारिश में भींगकर उसके बुलावे पर हाजिर हो जाती है।
ब्रिगेड की यह रैली तमाशा नहीं थी बल्कि आंखों को मुग्ध करने वाला नजारा थी। ममता बनर्जी राजनीति और नेताओं के लिए सीखने वाला पाठ बन रही है- कि वास्तव में नेता, सरकार, प्रशासन कैसा होना चाहिए?
महानगर में शायद पहली बार जनसमुद्र का इतना शैलाब देखा गया था और बावजूद इसके सड़के जाम नहीं थी- सड़क परिवहन अन्य दिनों की तुलना में भी बेहतर था- अर्थात आम जनता को कहीं परेशानी का सामना नहीं करना पड़ा।
ममता की दूरदर्शिता की जितनी तारीफ की जाये वो कम लगेगी क्योंकि भीड़ को नियंत्रित करने व शालीनता से गंतव्य तक जाने तथा प्रशासन को चुस्त रखने व कार्यकर्ताओं से सही रूप से काम लेने अर्थात सभी के तरफ से व्यवस्था को जीवंत रूप से बनाये रखने की अद्भुत शैली ममता जी ने दिखलाई है। एक कहावत याद आ रही है... उदय होता सूर्य अपना तेज बता देता है... ममता की कार्यशैली इस कहावत को चरितार्थ कर रही है। बंगाल में ममता के रूप में एक नया सूर्य प्रकाश की यात्रा में निकल चुका है... अर्थात अंधेरों को अब जाना ही होगा- बंगाल के स्वर्णिम युग की शुरुआत हो चुकी है।
""सलाम बांग्ला-सलाम ममता''
सरकार इसे कहते हैं
आदर्श बन रही है ममता
बंगाल के स्वर्णिम काल की शुरूआत
भीड़ तमाशा नहीं -नजारा थी
प्रशासन था जिंदा-सड़के नहीं थी जाम

Saturday, July 16, 2011

चुटकी


जिस देश में
भ्रष्टाचार
के
बड़े बमों से
हर रोज
लोग
भूखों मरते हैं।
आतंकियों !
तुम्हारे बमों से
अब
हम
उतने नहीं डरते हैं।
जो
रहनुमा बनकर
जनता
का
हक
छलते है
आतंकियों...
तुम तो बाहरी हो
तुम्हें क्या कहें?
जब
हमारे
अपने ही
बागवां बनकर
गुलशन
को
तबाह करते हैं

राहुल जवाब दे!

हर आतंकी घटना के बाद जोर शोर से निन्दा की जाती है। घटना के शिकार लोगों के पारिवारिक जनों को मुआवजा दिया जाता है- घायलों के लिए बेहतर इलाज की व्यवस्था की जाती है- राजनैताओं के बयान, घायलों का हालचाल जानने के लिये अस्पतालों के दौरों की फोटों छपती है- प्रशासन अपने आपकों चौकास दिखाता है संदिग्ध स्थानों में छापेमारी की जाती है। विशेष स्थानों की सुरक्षा चाक चौबंद की जाती है-कुल मिलाकर हर बार यह प्रक्रिया देखने-सुनने पढ़ने में आती है। यह घटनाक्रम तो आंतकियों की करतूतों के बाद की प्रक्रिया की रील है- ये आतंकी बाहरी होकर देश के भीतर इस प्रक्रिया को अंजाम देते हैं- और इन करतूतों पर पूर्ण रूप से लगाम लग जाना सुरक्षा तंत्र रूपी प्रशासन के लिये सरल नहीं कहा जा सकता?
इधर देश के अंदर देश की व्यवस्था को चलाने वाले अगर अपनी काली करतूतों से भ्रष्टाचार के बम फोड़कर बार-बार खतरा पैदा करते है.... ये हमला उन आतंकी हमलों से कम खतरनाक तो नहीं है जो किसी न किसी रूप में सतत होता रहता है और अमर बेल की तरह देश की जड़ को चुस-चुस कर पीता रहता है। इसको रोका जा सकता है पर रोकने की ईमानदारी के साथ कोशिश नहीं की जा रही है..... यह मुद्दा आतंकी हमलों से भी बड़ा अहम् मुद्दा है ... कि हमने जिनके हाथों में देश को सौंप रखा है... वे देश के धन को विदेशों में पहुंचाते रहे हैं.... उन आतंकियों से बढ़कर क्या इनका कर्म घिनौना नहीं है?
मैं राहुल गांधी के उस विवादास्पद बयान से सहमत हूं कि हर आतंकी हमले को रोकना मुश्किल है... यह कड़वा सच है। इसका राजनीतिकरण नहीं होना चाहिए.... पर एक सवाल राहुल गांधी से जरूर पूछा जाना चाहिए कि भ्रष्टाचार को समूल मिटाना तथा विदेशों में पड़ा काला धन वापस लाना तो संभव है... देश के भीतर में अपनों से जो हमला विशेष रूप से सत्ता के गलियारों से हो रहा है- उसे रोका जाना तो संभव है.... फिर जो संभव है... वो ईमानदारी के साथ क्यों नही नहीं किया जा रहा है?
अगर वो आतंकी हमलों में प्रशासन सरकार की विफलता पर पर्दा डालने का बयान दे सकते हैं तो भ्रष्टाचार-कालेधन के मुद्दे पर अपनी सरकार से सवाल क्यों नहीं करते? अगर राहुल के मन में देश की उस बड़ी आबादी के प्रति टीस है जो जमीन के बिछौने पर आसमान रूपी खुली छत के नीचे गरीबी रेखा से भी नीचे का जीवन बसर कर रही है तो राहुल को सबसे पहले अपने घर-अपनी सरकार के क्रियाकलापों को देखकर उनको ठीक करने की कवायद शुरू करनी चाहिए अगर राहुल ऐसा नहीं करते तब फिर गरीबों-दलितों-किसानों मजदूरों के घरों की वो खाई रोटी और मुन्ज की चारपाई का कर्ज नहीं उतार पायेंगे... फिर ये सारी कवायद मात्र नौटकी ही कही जायेगी।
राहुल से देश यह जवाब चाहता है कि एक तरफ गरीबों के खाली पत्तल और टूटा-फूटा बसेरा-दूसरी तरफ सियासती रौनक व खरबों का काला धन... अगर ये काला धन विदेशों से देश में आये और भ्रष्टाचार पर पुरी लगाम लगे तो इन गरीबों को पक्का घर, अन्न, बीजली, पानी, शिक्षा, चिकित्सा सब सुलभ हो सकती है... क्या वे इन गरीबों के पीड़ित जीवन के प्रति ईमानदारी से अपने घर (सरकार) को झाड़ पायेंगे? क्योंकि सरकार जिस तरह से टाल-मटोल कर रही है... वो तो जनता देख ही रही है। इस देश की जनता आतंकी हमलों से कहीं अधिक भ्रष्ट आतंकियों से पीड़ित है क्योंकि ये हमले लगातार हो रहे हैं।

Saturday, July 9, 2011

क्या वो बागवां गुनहगार नहीं है?

संप्रग सरकार में जिस तरह मंत्री बदले जा रहे हैं अर्थात कार्यरत मंत्रियों पर लग रहे दागी-आरोपों व कार्यक्षमता पर उठ रहे सवालों की वजह से सरकार की छवि को साफ करने की जो कवायद चल रही है... वो हास्यास्पद दिख रही है। अगर गंभीरता से इस पर विचार किया जाये तो लगता है कि सबसे पहला बदलाव नेतृत्व परिवर्तन का होना चाहिए अर्थात सरकार के मंत्रियों का मुखिया प्रधानमंत्री को बदला जाना चाहिए... क्योंकि क्या बागवां तब सो रहा था.... जब चमन के फूल चमन को लूटने का काम कर रहे थे और अगर वो जगा हुआ था तब उसने समय पर कठोर कार्रवाई क्यों नहीं की?अर्थात फूलों ने जो गुस्ताखी की उसकी सजा उन फूलों को जरूर मिलनी चाहिए पर बागवां भी सजा से नहीं बचना चाहिए.... क्योंकि अगर वो चमन की सार सम्हाल नहीं कर सकता तो फिर उसे बागवां बने रहने का अधिकार नहीं है... अगर वो वास्तव में नैतिक मूल्यों के प्रति ईमानदार है तो सबसे पहला इस्तीफा उसका आना चाहिए। उस चमन का हश्र कैसा होगा... जहां कोई बागवां बहारों के इशारों पर चलता हो तब उसे चमन के हालात नहीं दिखते और न ही फूलों की कारस्तानी दिखती है... सिर्फ वो बहार के इशारे देखता है और उस पर चलता है...।सवाल यह है कि क्या वो बागवां गुनहगार नहीं है? क्या वो बहार गुनहगार नहीं है? क्या इनको सजा नहीं मिलनी चाहिए?चमन की इस बर्बादी पर गुस्ताख फूलों को सजा मिलनी चाहिए पर जिस बहार से बागवां गुमराह हुआजिस बागवां से चमन बदहाल हुआ सजा -ए-खास इनको पहले मिलनी चाहिए।

Saturday, July 2, 2011

""सधे कदमों से चल रहे है अन्ना''

कभी-कभी बहुत तेज चलना और लक्ष्य को सामने खुद आता देखकर अति आत्मविश्वास के साथ छलांग लगाना बहुत खतरनाक होता है। बाबा रामदेव का प्रसंग अन्ना हजारे के लिए सबक बन गया है- और वे इसको बहुत गंभीरता के साथ लेकर उस पर सही अमल करते हुए दिख रहे हैं।

अन्ना और बाबा रामदेव का लक्ष्य एक ही है-पर शैली काफी अलग है, इन दोनों का व्यक्तित्व और जनता तक पहुंचने का तरीका भी अलग है। पर दोनों में एक फर्क है... बाबा को नया-नया प्रसिद्धी का स्वाद मिला है और सियासी गोटियों के चक्रव्यूह में घुसकर निकलने की जानकारी नहीं है। बाबा रामदेव चूंकि योग सिखाते हैं-इसलिए बोलने की आदत अधिक है अधिक बोलना कई बार गले की घंटी बन जाता है- नाप-तौल कर बोलने वाले की बात का वजन होता है क्योंकि लोग उसके व्यक्तव्य को गंभीरता से लेते है-इस प्रकार यहां भी अन्ना, बाबा रामदेव से अलग नजर आते हैं। एक बहुत महत्वपूर्ण सवाल है टीम का-यहां अन्ना बाबा रामदेव से खासे आगे हैं क्योंकि अन्ना के पास जो तिकड़ी भूषण,बेदी, केजरीवाल की है वो सरकार को बोल्ड करने का हुनर रखती है।

अन्ना के कदम हर राजनीतिक दल के दरवाजे तक जा रहे है-और वे अपना पक्ष समझाकर उनकी मंशा को सीधे जान रहे है- अब अगर भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के लिए सशक्त लोकपाल का विरोध किस अंदाज में कोई करता है-यह राज अन्ना की टीम का जानना आगे की रणनीति में इनके लिए अस्त्र के रूप में काम करेगा।

एक खास बात यह है कि भीड़ में बोलना व अकेले में बोलने में फर्क होता है। राजनैतिक दलों के लिए अकेले में अन्ना की टीम के सामने मजबूत लोकपाल का विरोध करना मुश्किल बात होगी।

लोहा ही लोहे को काटता है-बिल्कुल इसी तर्ज पर चल रहे है ""अन्ना'' और सियासत खुद अपने ही बनाये चक्रव्यूह में फंस जाये तो कोई आश्चर्य नहीं। सियासत गला फाड़ कर कह रही है कि संसद सर्वोच्च है क्योंकि यहां जनता के चुने प्रतिनिधि फैसला लेते है... ये लोग जड़ को भूलकर पत्तों को सर्वोच्च बतला रहे है- जड़ तो जनता है-इस लिहाज से सर्वोच्च जनता है....और जनता का विश्वास सियासत से जब उठ गया है तब वो सशक्त लोकपाल चाहती है। अन्ना और उनकी टीम को इस देश की जनता का समर्थन मिल रहा है तब भी सियासत लोकपाल के मुद्दे पर सकपका रही है।

अंधेरी रात के बाद भोर आती है... प्रकृति के इस नियम को कौन रोक सकता है? भारत की जनता सियासत में उजास चाहती है... सियासत को अपना कर्म, चाल-चलन बदलना होगा- अन्यथा वक्त आने पर जनता बदल देगी।

Saturday, June 25, 2011

लोकपाल की जगह पोलपाल!

लोकपाल बिल का मसौदा तैयार करने में समाज की तरफ से अन्ना हजारें व उनके सहयोगियों को आम जनता के अधिकारों के लिए सरकार से जिस तरह जुझना पड़ रहा है- उससे यह संदेश आ रहा है कि सरकार लोकपाल के नाम पर पोलपाल का कुछ ऐसा विधेयक लाना चाह रहीं है जहां जनता के पास अधिकारों के रुप में खाली पिटारा हो-और सरकार व राजशाही के खिलाफ बुलन्द आवाज करने वालों की इच्छा रखने वालों के खिलाफ कुछ ऐसे कायदे-कानून लाये जाये जिससे कोई आवाज उठाने की हिम्मत ही नहीं करें।

अगर किसी अधिकारी के खिलाफ अगर कोई आम जन आरोप लगाये तो उस अधिकारी को मिलेगा सरकारी वकील... और आरोप लगाने वाला आम जन अपने खर्चे पर लड़ेगा। अगर वो अधिकारी जिस पर आरोप लगा है वो दोषी पाया जाता है तो उसको मिलेगी मामूली सजा-लेकिन अगर वो निर्दोष साबित हो तो आरोप लगाने वाले को कड़ी सजा! सरकार की नजर में लोकपाल का अर्थ अगर यही है तो फिर यह लोकपाल नहीं पोलपाल होगा- जहां खुली पोलों पर कारवाई खत्म नहीं होगी- लेकिन पोल खोलने वाला हमेशा चक्रव्यूह में रहेगा।

सरकार ने जनता के अधिकारों व देश की भ्रष्ट्र-निरंकुश व्यवस्था पर अपनी मनःस्थिती साफ कर दी है- लेकिन राजनीति पुरी संवेदनहीन हो गई है - अभी यह कहना शायद उचित न हो।

संसद में बकोल प्रतिनिधि विभिन्न सिद्धांतो- विचारधाराओं के राजनैतिक दल है- अब देखना यह है कि ये जनता, जनतंत्र के समर्थन में अपना मुंह कितना खोलते है?

आने वाले लोकसभा चुनावों में लोकपाल अहम मुद्दा बनेगा और जनता राजनीति की उस डगर पर मुहर लगायेगी जो जनता के अधिकारों के संरक्षण पर आज मुहर लगायेगा अर्थात जनता के लिये संसद में खुलकर बोलेगा। क्योंकि जनता वास्तविक रुप से लोकपाल ही चाहती है।


Tuesday, June 14, 2011

हम सब दोषी हैं....

गंगा बचाव के आंदोलन में एक संत अपने सत्याग्रह को आखरी सांस तक ले जाकर शहीद हो गया और अब हमारी आंखे खुली है कि हम तब क्यों नहीं जगे? जब वो संकल्पित होकर सत्याग्रह में बैठा था... संवेदनहीन सिर्फ राजनीति ही नहीं है... असंवेदन शील हम सब भी हैं- हम में और राजनीति में बस एक फर्क है कि राजनीति मौत पर भी नहीं पसीजती और लाश को हथियार बना कर वार करने से नहीं चुकती... हम बाद में ही सही पर पछतावा भीतर से महसूस तो करते हैं। हम भीड़ को देखते हैं, चकाचौंध को देखते हैं- और उसका हिस्सा बन जाते हैं... यह हमारा सबसे बड़ा गुनाह है- काश हमने उस संत के संकल्प और उसके सत्याग्रह को भी महत्व देकर उसका समर्थन किया होता तो शायद उसकी आवाज पर राजनीति को करवट बदलनी पड़ती... कोई संवाद होता और संत का जीवन नहीं जाता।
दोषी रामदेव भी हैं... उनके ही क्षेत्र में यह घटनाक्रम चला और उन्होंने एक संत के रुप में संत की ही सुध नहीं ली... अब उनकी श्रद्धांजलि बस औपचारिकता लगती है... यहां संवेदना की अनुभूति नहीं है।
दोषी वो संत समाज है- जो बाबा रामदेव की चमक-दमक के पीछे मंडराता नजर आया पर उस संत के सत्याग्रह पर खामोश ही रहा। मीडिया के क्षेत्र से मैं स्वयं व इस क्षेत्र में काम करने वालों को विशेष दोषी मानता हूं- अगर मीडिया के कैमरे वहां चमके होते तथा संवाददाता इस विषय पर सवालों के साथ गरजे होते तो यह विषय आम जनता के बीच जाता और जनता जब जगती तो राजनीति को भी जगना पड़ता... शायद यह मौत तब नहीं होती।
यह मौत संवेदना की मौत है, कर्तव्य परायणता की मौत है तन्हाई- अकेलेपन की मौत है... इस मौत ने कई चेहरों को बेनकाब किया है... गौर से देखे तो सब तरफ राजनीति ही दिखती है और राजनीति में संवेदन नहीं उत्पीड़न दिखता है- यहां सच्चा सत्याग्रही तब तक नहीं बच सकता जब तक वो नामी-गिरामी न हो जाये इसलिये सत्याग्रह करने वालों से निवेदन है कि पहले नाम कमाइये अन्यथा इस देश में सत्याग्रही का हश्र कुछ ऐसा ही होता है।
मीडिया क्षेत्र को सबक लेते हुए एक सिद्धांत लेना चाहिए कि सत्यसंकल्पी कमजोर पक्ष को ताकतवर बनायेंगे- क्योंकि मीडिया की महत्ता व उसकी भूमिका अहम है... और हमको अपनी अहमियत को समझते हुए उस पक्ष की आवाज बनना होगा- जिसके पास चमक-दमक का बाह्य आवरण नहीं है पर संकल्प श्रेष्ठ है... उसकी सफलता में हमारा सहयोग राष्ट्रधर्म व नैतिक सहयोग होता है। इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने भूल सुधार की है... इस सवाल को अच्छी कवरेज के साथ उठाया है- पर प्रिंट मीडिया ने मुख पृष्ट की यह खबर शायद अब तक नहीं मानी है- यहां अधिक प्रसार वाले समाचार पत्रों की जिम्मेवारी बहुत अधिक हो जाती है। बाबा रामदेव अनशन तोड़कर भी पहली खबर बनते हैं... और वो संत सत्याग्रह पर कुर्बान होकर भी पहले पन्ने पर उनकी मौत की खबर नहीं आती.. क्या कहियेगा ?

Friday, June 10, 2011

सत्याग्रह

भष्टाचार

भष्टाचारियों

की

इस व्यवस्था का

सत्याग्रह से

समाधान...

नहीं हो सकता

असुर शक्ति का

नीति से परिहार

नहीं हो सकता...

और जब तक

हम

उनके सामने

नीति विचार

की घंटी

गांधी की

अहिंसा की लाठी

से

दबायेंगे...

तब तक

वो

देश का

निवाला और

निगल जायेंगे...

इसलिए

अब हमें

गांधी को छोड़कर

भगत,

सुभाष,

तात्या,

लक्ष्मीबाई

की

राहों पर

आना होगा

और

प्रहार दर प्रहार

कर

इनका

संहार करना होगा।

भ्रष्ट व्यवस्था

बनाने

वाले

इन व्यवस्थापकों

को

उनकी

भाषा में

समझाना होगा-

उन्होंने

लाठियां चलाई

तो हमको

लट्ठ

चलाना होगा..

तब इस समस्या का

समाधान होगा...

अन्यथा

अमर बेल

की

तरह

और

प्रसार होगा।


-संजय सनम

Friday, June 3, 2011

प्रियंका की रहस्यमय मौत का मामला

-आरोपों के घेरे में स्थानीय पुलिस प्रशासन
-सास-ससुर, पति, जेठ, जेठानी के खिलाफ एफआईआर
-पुलिस ने कहा आरोपी हैं फरार
फर्स्ट न्यूज कार्यालय डेस्क
हावड़ा। राजस्थान के बीदासर कस्बे के थानमल दूगड़ की सुपुत्री प्रियंका उर्फ बोबी छापर कस्बे के विमल सिंह जैन (छाजेड़) परिवार के पुत्र विकास के साथ करीब ४ वर्ष पूर्व ब्याही गई थी-जिसकी १९ मई को मिदनापुर पूर्व के दुर्गाचक हल्दिया में रहस्यमय परिस्थितियों में हुई मौत का सनसनीखेज मामला सामने आया है।
प्रियंका के बहनोई राकेश तातेड़ व भाई धीरेन्द्र दुगड़ से मिली जानकारी के अनुसार शादी के बाद से ही प्रियंका पर ससुराल पक्ष के द्वारा अत्याचार होता था-ससुराल में प्रियंका की स्थिति नौकरानी से बदत्तर थी। रुपयों की मांग भी होती थी जिसको पीहर पक्ष के द्वारा अपनी हैसियत के आधार पर पूरा भी किया जाता था। लगभग अढ़ाई वर्ष पहले दुर्गाचक हल्दिया में मकान लेते वक्त भी दो लाख रुपए ससुराल पक्ष को और दिये गये। ससुराल पक्ष से प्रताड़ित होने का आभास तो मिला था पर यह सोचकर कि वक्त आने पर सब सामान्य हो जायेगा-कड़ी कार्रवाई का विचार भी नहीं आया था।
धीरेन्द्र दूगड़ के अनुसार उन्होंने यह नहीं सोचा था कि प्रियंका का ससुराल वाले इतने निर्मम हो जायेंगे और सुनियोजित रूप से फिनायल पिला कर प्रियंका को हमेशा के लिए मौत की नींद सुला देंगे।
प्रियंका की मौत पर वहां के स्थानीय लोगों में आक्रोश यह जताता है कि प्रियंका ससुराल में प्रताड़ना को सह रही थी। १७ मई की रात को प्रियंका को घर से बाहर निकालने की भी खबर है। १७ से १९ मई के बीच प्रियंका के फोन पर पीहर पक्ष के द्वारा २० से अधिक फोन किये गये-लेकिन प्रियंका से बात नहीं हो सकी- प्रियंका के मोबाइल से सिम कार्ड निकालने का भी आरोप लगाया जा रहा है।
प्राप्त जानकारी के अनुसार प्रियंका को फिनायल पिलाने के बाद गंभीर अवस्था में श्याम नर्सिंग होम में १९ मई को सुबह ९.३० के आस-पास ले जाया गया फिर वहां से हल्दिया हास्पिटल व बाद में तमलूक ले जाया गया-जहां प्रियंका ने दम तोड़ दिया।
पीहर पक्ष का आरोप यह भी है कि पोस्टमार्टम भी हमलोगों के पहुंचने से पहले ही करवा दिया गया। ससुराल पक्ष के लोग प्रियंका के दाहसंस्कार के लिए बहुत जल्दी में दिखे। स्थानीय लोगों के आक्रोश के कारण पुलिस सुरक्षा में दाह संस्कार किया गया। प्रियंका के पीहर पक्ष को आशंका है कि प्रियंका की मौत पहले ही हो गई थी-कागजी कार्रवाई में १९ तारीख बताई गई है तथा उनको खबर भी देर से दी गई।
स्थानीय पुलिस प्रशासन की नौतिकता पर भी आरोप लगे है। तातेड़ के अनुसार प्रियंका के ससुराल वालों ने इसे आत्महत्या का रूपक बनाकर पुलिस प्रशासन को धन-बल के द्वारा अपने पक्ष में पहले ही कर लिया था। चूंकि उस वक्त पीहर पक्ष के लोग भावनात्मक रुप से इतने आहत हो गये थे कि कोई भी निर्णय करने की स्थिति में नहीं थे पर २२ मई को प्रियंका के भाई धीरेन्द्र कुमार दुगड़ ने अपनी बहन की रहस्यमय मौत पर अपनी शिकायत हल्दिया के दुर्गाचक थाने में दर्ज कराई जिसमें प्रियंका के पति विकास जैन (छाजेड़), ससुर विमल सिंह जैन (छाजेड़), श्रीमती सज्जन देवी (सास), नवीन जैन (छाजेड़) (जेठ) व श्रीमती शीतल जैन (जेठानी) को आरोपी बतलाया गया है।
इस संपूर्ण घटनाक्रम में ससुराल पक्ष के द्वारा प्रताड़ना रुपयों की मांग व अभद्र व्यवहार तथा स्थानीय पुलिस प्रशासन द्वारा आरोपित व्यक्तियों पर कार्रवाई न करना तथा तेरापंथ समाज के द्वारा घटनाक्रम पर प्रियंका के ससुराल पक्ष पर दंडात्मक कार्रवाई न करके समाज के कुछ लोगों के द्वारा पीड़ित पक्ष पर समझौता करने का दबाव बनाना विशेष सोचनीय लगा है। प्रियंका के अढ़ाई वर्ष का एक बच्चा भी है जो ससुराल पक्ष के लोगों के पास है .... और इसकी सुरक्षा की चिन्ता भी दुगड़ परिवार को बनी हुई है।
फर्स्ट न्यूज कार्यालय ने प्रियंका के ससुराल पक्ष में ससुर व पति के मोबाइल नम्बर पर संपर्क साधा, लेकिन स्विच ऑफ होने की वजह से उनसे बात नहीं हो सकी। दुर्गाचक थाने के प्रभारी श्री प्रमाणिक से सम्पर्क करने पर उन्होंने बताया कि जांच चल रही है। आरोपी फरार है अर्थात वो पुलिस की पकड़ से बाहर है।
इधर, प्रियंका के पीहर पक्ष ने महिला आयोग,भवानी भवन तक अपनी शिकायत पहुंचा दी है- और यह शिकायत राज्य की मुख्यमंत्री सुश्री ममता बनर्जी को भी जाने वाली है। प्रियंका के बहनोई राकेश तातेड़ व भाई धीरेन्द्र दुगड़ प्रियंका की मौत के जिम्मेदार लोगों को दण्ड दिलाने के लिए अडिग है। इसके लिए वे हर उस संस्थान का दरवाजा खटखटायेंगे जहां ऐसे मामलों पर संज्ञान लिया जाता हो।
तेरापंथ समाज के कुछ लोगों के द्वारा समझौते के लिहाज से सेटलमेंट की आवाज पर पीड़ा प्रगट करते हुए इन्होंने कहा कि मौत के बदले अपराधियों को दण्ड दिलाने की जगह और कोई समझौता नहीं हो सकता।

वाह रे! तेरापंथ समाज

समाज की एक बेटी की ससुराल में जहर पिलाकर व फिर उसको आत्महत्या का मामला बनाने की कोशिश करने का जघन्य काम किया जाता है तब भी समाज के कुछ सक्रिय और मौजीज लोगों के द्वारा पीड़ित पक्ष (लड़की) के पीहर पक्ष को इस मामले को तूल न देकर आपसी समझौता करने का दबाव बनाते है।

वाह रे समाज! साथ तो पीड़ित पक्ष का देना चाहिए और आरोपी पक्ष के खिलाफ आवाज ऐसी बुलन्द करनी चाहिए कि फिर कोई बहु को मारने की ती दूर बल्कि उसको प्रताड़ित करने की भी कोशिश न करें... पर समाज के कर्णधार जब आरोपियों को संरक्षण देने की कोशिश करते हैं तो इसका अर्थ उनके घरों में भी बहुओं की स्थिति पर सवालिया निशान लग सकता है। जो किसी की बेटी के हत्यारों के लिए पीड़ित पक्ष पर दवाब बना कर समझौता कराने की कोशिश कर सकते हैं इससे साफ है कि उनके मन में संवेदन की अनुभूति नहीं है अर्थात वे आरोपियों का साथ देने वालों की कतार में खड़े है। कोई आश्चर्य नहीं कि कभी उनके घर से भी बहु को मारने व मामले को रफा-दफा करने की घटना घट जायें।

ऐसी बेजा हरकत करने वालों के कुछ नाम मेरे सामने आये है.... मैं उनको अभी प्रकाशित नहीं कर रहा हूं पर उनको आगाह अवश्य कर रहा हूं कि अपनी इन ओछी हरकतों से वे लोग बाज आये अन्यथा समाज के सामने ऐसे काले चेहरों को लाने में मैं संकोच नहीं करुंगा।

मुझे दुःख है कि समाज उन लोगों का वहिष्कार व दबाव नहीं डालता जो बहु पर अत्याचार, प्रताड़ना व दहेज की मांग करके या तो उसे मरने के लिए मजबूर कर देते है या फिर मार कर उसको आत्महत्या का मामला बनाने की कोशिश से भी नहीं चुकते-फिर उसके लिये स्थानीय पुलिस प्रशासन को अपने पक्ष में लेने के लिए दौलत को पानी की तरह क्यूं न बहाना पड़े।

अगर समाज में दम हो तो वो पीड़ित पक्ष के साथ खड़ा होकर अन्यायी को वो सजा दे सकता है-जिससे समाज की गरिमा और उसके होने का अर्थ नजर आये। यह घटना बीदासर की बेटी (प्रियंका) सुपुत्री थानमल दूगड़ व छापर के छाजेड़ परिवार विमल सिंह छाजेड़,(जैन) परिवार में दुर्गाचक हल्दिया मिदनापुर पूर्व में घटी है। घटना को खबर के प्रारुप में प्रकाशित किया गया है-इसकी संपूर्ण जानकारी पाठक खबर को पढ़ कर लेवे।

पाठक वर्ग से अनुरोध है कि ऐसी घटनाओं में अन्याय के पक्ष में खड़े दिखने वाले लोगों की इज्जत उतारने में कोताही न बरते। जो लोग प्रियंका की हत्या के इस मामले को रफा-दफा करने की कोशिश में लगे है वो यह जान ले कि पुलिस प्रशासन को दौलत पर चाहे खरीदा जा सकता हो व आरोपियों के पक्ष में खड़े होकर अपना दोगलापन दिखलाने की कीमत पर उनको भी दौलत का प्रसाद चाहे मिल सकता हो पर वो आत्मा उनको कभी माफ नहीं कर सकती जिसकी जिन्दगी को असमय हत्यारों के द्वारा लील लिया गया हो। हो सकता है कानूनी कार्रवाई को भी अंजाम तक पहुंचाने में समय लगे पर उस आत्मा को अपनी मौत का बदला लेने में समय नहीं लगेगा। ऐसे मामले कई सुने गये है जिनमें मृतात्मा ने अपना प्रतिशोध खुद लिया है। मैं प्रियंका की आत्मा की शांति के लिए भगवान से प्रार्थना करता हूं-पता नहीं क्यों? मुझे लगता है-जो काम वक्त पर प्रशासन व समाज नहीं कर सका वो काम प्रियंका खुद करेगी-इसलिए प्रियंका को मारने व उसके इस मामले को रफा-दफा करने की कुचेष्टा करने वालों के लिए खतरे की घंटी बजती दिख रही है।

जिन लोगों ने अपराध किया है व जो लोग किसी न किसी रूप में अपराधियों के सहयोगी बने है-वक्त की अदालत उनको उनके कर्मों की सजा जरूर देगी पर जिस आंगन की बेटी ससुराल पक्ष के अत्याचारों से पीड़ित होकर मौत के आगोश में समा गई है उस पीड़ित परिवार के लिए समाज की भूमिका क्या रही है? क्या इसे ही समाज कहते है?क्या रिश्ते-नाते और अपने स्वार्थ इतने हावी हो गये है कि पीड़ित पक्ष को न्याय दिलाने की बजाय उसे समझौता करने के लिए दबाव दिया जाये।

समाज के प्रबुद्ध वर्ग से मेरा निवेदन है कि पीड़ित पक्ष से सम्पर्क कर उन लोगों को चिन्हित करे जो समझौते रूपी दलाली की कोशिश कर रहे थे और इन लोगों को समाज के खुले मंच पर खड़ा करके कड़ी फटकार लगाई जाये ताकि ऐसी दुर्घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो सके। मैं अपने इस संपादकीय के माध्यम से अपने कलम धर्म के साथ सामाजिक दायित्व का पालन कर रहा हूं-अगर समाज रूपी संगठन में कहीं दायित्व बोध की भावना बची है तो वो अपनी उपस्थिति दर्शावे अन्यथा समाज रूपी यह संस्था पाकेटी संस्था का ही रुपक लगेगी-जिसको स्वीकार नहीं किया जायेगा।

मैं आरोपी पक्ष के उन रिश्तेदारों को धन्यवाद देना चाहूंगा जिन्होंने पीड़ित पक्ष की बात सुनने के बाद आरोपी पक्ष को अपना समर्थन न देने की बात कही और इस घटना के लिए दुःख प्रगट किया।

मानवीयता, रिश्तों-नातों से कहीं अधिक ऊपर होती है। पर अफसोस आजकल समाज रूपी संगठन अपने निहित स्वार्थ व दौलत के हाथ चलता है-इसलिए किसी का कत्ल हो जाता है और समाज "उफ' तक नहीं करता।

Saturday, May 28, 2011

भड़की जनता-सहमा प्रशासन

-लापता बच्चों की सीबीआई जांच की मांग
-उत्तर हावड़ा भाजपा का धरना आन्दोलन
फर्स्ट न्यूज कार्यालय डेस्क
हावड़ा। उत्तर हावड़ा के गोलाबाड़ी थाना क्षेत्र के पीलखाना व फकीर बगान से पिछले ४ वर्षों में १३ लापता बच्चों की बरामदगी के लिए गोलाबाड़ी पुलिस प्रशासन की नाकामी के लिए पीलखाना क्षेत्र की जनता का गुस्सा परसो गुरुवार को तब भड़क गया जब एक महिला के द्वारा एक बच्ची को फुसलाते हुए चोरी के संदेह में स्थानीय लोगों ने पकड़ा और भीड़ के उग्र रूप को देखते हुए जब पुलिस ने उस महिला को अपनी सुरक्षा में लेकर टेक्सी से रवाना किया तो पीछे भीड़ का सैलाब थाने की और उमड़ पड़ा। लोगों का आरोप था कि पिछले ४ वर्षों में पुलिस ने मिसिंग रिपोर्ट लिखने के बाद लापता बच्चों का सुराग लगाने की कोई कोशिश नहीं की। पीड़ित पक्ष जब भी थाने में जाकर अपने लापता बच्चों का जानकारी चाहते तो तो पुलिस उनको जलील करके थाने से निकाल देती थी। गुरुवार की दोपहर इस भीड़ में पुुरुष-महिलायं और किशोर बच्चे भी शामिल थे। सूत्रों से मिली जानकारी के आधार पर जनता का गुस्सा पुलिस प्रशासन (गोलाबाड़ी थाना) की निष्क्रियता व नाकामी के खिलाफ इतना उग्र देखा गया कि पुलिस को अपनी सुरक्षा के लिए कुछ समय के लिए गोलाबाड़ी थाने के प्रवेश फाटक को जंजीर लगाकर ताले से बंद करना पड़ा। खबर तो यह भी है कि जनता को तितर-बितर करने के लिए पुलिस ने लाठियां भांजी-जिससे कुछ महिलाओं को भी चोट लगी तथा कुछ गंभीर रूप से घायल हुये इनमे से एक का इलाज हावड़ा जनरल अस्पताल में चल रहा है। इस घटना के बाद क्षेत्र के विधायक ने भी दौरा किया। पुलिस के द्वारा लाठी चार्ज व उग्र भीड़ के द्वारा पथराव से माहौल तनाव पूर्ण बन गया। इस घटना के बाद उत्तर हावड़ा भाजपा इकाई ने स्थानीय पुलिस प्रशासन की निष्क्रियता के विरोध में व पीड़ित परिवारों को न्याय दिलाने के लिए गोलाबाड़ी थाने के सामने शुक्रवार से धरना आन्दोलन शुरू कर दिया। इस घटना आन्दोलन में भाजपा हावड़ा जिला अध्यक्ष अम्बुज शर्मा, युवा मोर्चा के जिलाध्यक्ष उमेश राय, महामंत्री विनय अग्रवाल व इन्दूदेव दुबे, विजय तिवाड़ी व वरिष्ठ अशोक सिंह के साथ भाजपा कार्यकर्ता गण व लापता बच्चों का मातायें रुकसाना बेगम, आजीमा बेगम, आशा खातून शमा बेगम, मीनु मुमताज व अन्य पारिवारिक जन भी उपस्थित थे। भारतीय जनता युवा मोर्चा हावड़ा के अध्यक्ष उमेश राय ने फर्स्ट न्यूज को बतलाया कि गोलाबाड़ी पुलिस विभाग की अक्षमता खुद बताती है कि जो अपनी सुरक्षा नहीं कर सकते वो आम जनता की सुरक्षा भला क्या करेंगे। उन्होंने जोर देकर कहा कि जब जनता सड़क पर अपने अधिकार के लिये उतरती है तो प्रशासन भी सहम जाता है और थाने के प्रवेश द्वार को भी बंद करने की नौबत आ जाती है।
श्री राय के अनुसार यह अत्यन्त दुखद है कि एक के बाद एक हुई घटनाओं के बाद भी प्रशासन की नींद नहीं उड़ती और वो मिसिंग रिपोर्ट दर्ज करके अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता है। उन्होंने कहा कि पुलिस विभाग को इसे अपराधिक मामले के रूप में गंभीरता से लेते हुए एफआईआर दर्ज करके इस रैकेट का पर्दाफाश करना चाहिए था पर जिनको ऊपरी आमदनी बटोरने में फुर्सत नहीं भला वो मां की ममता की उस पीड़ा को क्या समझेंगे।
श्री राय ने इस आन्दोलन को तब तक खत्म न करने की बात कही जब तक इस मामले की सीबीआई जांच का सटीक आश्वासन नहीं दिया जाता- उन्होंने आशंका व्यक्त की १३ बच्चों की चोरी का यह मामला निठारी जैसा कांड भी हो सकता है इसलिए इसकी जांच उच्चस्तरीय रूप से होनी चाहिए क्योंकि स्थानीय पुलिस प्रशासन ने पीड़ितों के जख्मों पर मरहम लगाने के स्थान पर उनको जलील करके नमक लगाया है।
हावड़ा जिला अध्यक्ष अम्बुज शर्मा ने अपने वक्तव्य में पीड़ित परिवारो ंको न्याय दिलाने हेतु भाजपा की हावड़ा इकाई के द्वारा इस आन्दोलन को मानवीयता के जज्बे को प्रतीक बताते हुए इसको राजनीतिक रूप से न आंकने की बात कहते हुए आखिरी दम तक संघर्षरत रहने का विश्वास व्यक्त किया। अब देखना ये है कि गोलाबाड़ी पुलिस प्रशासन के खिलाफ यह आन्दोलन किस सीमा तक जा सकता है और जन आन्दोलन का हिस्सा बनकर आम जनता को कितना जोड़ सकता है।

कहीं नायक फिल्म का ट्रेलर तो नहीं!

जब से ममता बनर्जी ने मुख्यमंत्री की कुर्सी सम्हाली है तब से औचक निरीक्षण उनका हिस्सा बन गया है। यह प्रक्रिया अब सरकारी कार्यालयों में कसावट का संकेत बन सकती है-जाने कब मुख्यमंत्री साहिबा का काफीला आ जाये। पर इन औचक निरीक्षणों पर दूसरी प्रतिक्रिया भी आ रही है-उसके आधार पर मुख्यमंत्री को हर दिन की दिनचर्चा के रूप में इसको न लेकर हर विभाग के विशेषज्ञों की ऐसी टीम बनाकर उनको औचक निरीक्षण की जवाबदेही देनी चाहिए और फिर उनसे मिली रिपोर्ट के आधार पर कार्रवाई करनी चाहिए। क्योंकि ममता जी जब स्वयं औचक निरीक्षण पर जाती है तो उनके काफिले के साथ फिर आम लोगों की भीड़ भी जुट जाती है- और यह भीड़ फिर उस संस्थान की गतिविधी में बाधक बन जाती है-जैसे मेडिकल विभाग में यह नजारा मरीजों की उपचार प्रक्रिया में उस वक्त बाधक बन सकता है। इसलिए भविष्य का सुधार तात्कालिक रूप से स्थिति को गंभीर बना देता है।

बेशक ममता जी, बंगाल की स्थिति को सुधारने के लिये फिल्म नायक की तर्ज पर काम कर रही है- पर फिल्म और यथार्थ में बहुत फर्क होता है इसलिए औचक निरीक्षण के लिये सुयोग्य ईमानदार अलग-अलग क्षेत्र के विशेषज्ञों का दस्ता तैयार करवाये और उनसे यह कार्रवाई करवायें।

ममता जी की स्वयं की सुरक्षा के लिये भी यह आवश्यक है कि वो जनता के बीच तो जाये पर भीड़ का हिस्सा न बने। जनता दरबार के माध्यम से वो आम जनता से सम्पर्क में रहने की अपनी इच्छा को पूरा कर सकती है तथा उनकी सुरक्षा का तंत्र भी तनाव रहित रह सकता है।

कुल मिलाकर ममता जी को बहुत तेज चलने की बजाय सधे कदमों से अपने लक्ष्य को योग्य अधिकारियों के हाथों में सौंप कर चलना चाहिए। उनका अधिक थकना व अधिक तनाव में होना प्रदेश के मुखिया के रूप में प्रदेश के लिए अच्छा नहीं हो सकता... इसलिए ममता जी को नायक फिल्म के नायक की तरह जल्दबाजी नहीं करनी है क्योंकि उसके पास तो सिर्फ चौबीस घंटे का समय था, आपके पास तो पांच वर्ष का समय है-इसलिए असली नायक की भूमिका दिखानी है... नायक फिल्म का ट्रेलर नहीं।

Saturday, May 21, 2011

""ममता'' मिसाल बनी है

अगर इरादे नेक हो, हौसले बुलाद हो ... और आँखों में अपनी महत्वाकांक्षा का सपना हो.... तब वो पथिक संघर्ष की तपती राहों में हार कहां मानते है.... झंझावतों से टकराते टकराते वो खुद तूफान हो जाते है और एक दिन अपने ख्बावों की मंजिल पर कामयाबी का हस्ताक्षर करने में कामयाब हो जाते है... ममता की ताजपोशी के पीछे उनका वर्षों का संघर्ष था आत्मसम्मान पर चोट थी.. १८ वर्ष पूर्व इसी राइटर्स की इमारत से उन्हें अपमानित करते हुए निकाला गया था... जिस इमारत ने कल उनके लिए पलक पावड़े बिछा रखे थे।

यह सच है कि वक्त बदलता है तो जमाने की अदायें बदल जाती है पर वक्त का यह अंदाज तो उनके लिये ही बदलता है जो अपनी मंजिल तक पहुंचने के लिए तूफानों के थपेड़ों से अपने इरादें नहीं बदलते.... ममता बनर्जी ऐसी ही मिसालों में बेमिसाल कही जा सकती है। अगर १८ वर्ष पूर्व इसी राइटर्स बिल्डिंग में ममता को धक्के मारकर अपमानित न किया होता और ममता ने रायटर्स में तब तक पैर घरने की कसम न खाई होती जब तक वो जन समर्थन का अधिकार पत्र न ले ले तो शायद कल (२० मई) का दिन इस रूप में आया न होता। १८ वर्ष पूर्व आत्मसम्मान में हुई चोट ने ममता के इरादों को हिमालय कर दिया और उस सौगंध ने २०मई २०११ के इस दिन की नींव का पहला पत्थर लगा दिया- जिसकी इमारत २० मई को अपनी भव्यता के साथ तैयार हो गई।

आत्मसम्मान पर चोट क्रांति का रूपक बना सकती है-और उसका जवाब देने की हसरत में उसके कदमों पर पंख लगा देती है। ममता बनर्जी की जीत के राजनैतिक मायने चाहे कुछ भी हो पर वास्तव में यह बुलन्द इरादों की जीत है।

यह जीत यह बताती है कि महिला अबला नहीं सबला भी होती है और अपने दम पर इतिहास में क्रांति और बदलाव का स्वर्णिम पृष्ठ जोड़ देती है।

ममता जी ने इस देश की महिला शक्ति का गौरव बढ़ाया है और उनके लिए आदर्श बन गई है।

शपथ ग्रहण समारोह के बाद राजभवन से राइटर्स तक जन सैलाब के साथ जिस अंदाज में पहुंचकर उन्होंने अपनी जिम्मेदारी सम्हाली है यह दृश्य आम जनता की आंखों में सपने और बिछा गया है।

ममता ने अपनी मंजिल पर पहुंचकर बंगाल की जनता के सपने जगा दिये है- अब बहुत बड़ी जिम्मेदारी उन पर है... हालातों की विषमताओं से संघर्ष करके विकास के फूल खिलाने का उनका सफर शुरू हो गया है। इस सफर की सफलता के लिए हम अपनी शुभकामनाएं देते हैं- उनका यह सफर सुखद, सफल, मंगलमय हो।

Friday, May 6, 2011

क्या इतने नपुंसक हो गये हैं हम?

अमेरिका ने अपने लक्ष्य को १० वर्षों की कड़ी मशक्कत के बाद हासिल कर लिया और इसके लिए उसने किसी को पूछा तक नहीं.... क्योंकि उसके मन में अपने लक्ष्य को हासिल करने का जज्बा था.. इसलिए वो अफगानिस्तान के रेतीले-पहाड़ी इलाकों में लादेन को खोजने में थका नहीं और जब उसको पक्की खबर लगी तो रात के अंधेरे में पाकिस्तान से बिना पूछे उसकी जमीं में घुसकर लादने को खत्म करके उसके नश्वर शरीर तक को उठा ले गया और अरब सागर में दफना दिया। अगर आतंक के समाधान की बात करे तो यह घटना उसके खात्मे का समाधान नहीं है- पर देश की संप्रभुता और उसकी सुरक्षा पर विचार करे तो अमेरिका ने अपने देश पर हुए हमले का जवाब दिया है। अब हम अपने देश की इससे तुलना करे- तो शायद हम मनोबल , सैन्यबल व आस-पास की परिस्थितयों से कमजोर नजर आते है इसलिए हम ईंट का जवाब पत्थर से तुरंत कभी नहीं दे पाये हैं -और हमारी इस नीतिगत कमजोरी की कीमत हमको चुकानी पड़ रही है।

मुझे लगता है कि सरकार की मनोस्थिति इस मामले पर कभी आक्रामक नहीं रही.... क्योंकि राजनीति व सरकार बचाने की जुगत में ही समय लग जाता है तब देश के स्वाभिमान व उस पर हुये आघात का अमेरिका जैसा जवाब देने का न तो इनके पास वक्त रहता है और न ही इनके मन में जज्बा रहता है।

हमारे आकाओं को गाल पर थप्पड़ खाकर फिर सहलाने की ही आदत पड़ी हुई है ... ये अपनी राजनीति को किसी भी कीमत पर जोखिम में नहीं डाल सकते-इसलिए पड़ोसी देश आतंकियों की शरण स्थली बना हुआ है और जब-तब धमाकों की थप्पड़ वो हमको देता रहता है- अब तो हालात इतने गंभीर है कि किसी के दिलेर कारनामें को देखकर भी हमारे लहू में उबाल नहीं आता । नेस्तनाबुंद करने की उड़ान भरने का हौसला तो दूर- हमारे आकाओं की जुबान से तो धमाकेदार बयान भी नहीं आता...

क्या इतने नपुंसक हो गये हैं हम?

Friday, April 29, 2011

जनता अपना सम्मान चाहती है !

बंगाल विधानसभा चुनावों में प्रकृति की तपती गर्मी से अधिक चुनाव परिणामों पर कयासों की गर्मी है और एक आशंका भी लोगों के मन में है कि परिणामों के चलते खून-खराबा, हिंसा जैसा माहौल देखने को न मिल जाये।

राजनेताओं की उग्र बयानबाजी भी इस संदेह को और अधिक बढ़ा रही है अगर ऐसी विपरित स्थितियां चुनाव परिणाम के बाद नजर आये तो इसका अर्थ इस तरह की गतिविधियों को अंजाम देने वाले राजनैतिक कैडरों ने जनता के निर्णय के साथ मजाक किया है.... अर्थात ""जनतंत्र'' की इस व्यवस्था पर प्रहार किया है। जनता को चाहिए कि चुनाव परिणामों के बाद की गतिविधयों पर नजर रखे तथा सद्भावना का माहौल खराब करने वालों को आने वाले भविष्य के लिए ब्लैक लिस्टेड कर दे। अगर जनता सर्वोच्य है तो फिर जनता के निर्णय के साथ किसी भी प्रकार के उत्पात को क्षमा नहीं किया जाना चाहिए।

ऐसी गतिविधियों में शरीक राजनैतिक दलों को जनता के द्वारा भविष्यतः बायकाट करना ही आवश्यक हो जाता है। सभी राजनैतिक दलों के नेताओं का यह कर्तव्य बनता है कि वो हार-जीत को जनता के निर्णय के रूप में सम्मान के साथ स्वीकारें तथा अपने कार्यकर्ताओं को अनुशासन, संयम की डोर से बांधे रखे।

अगर हार उत्पात का रूप लेती है तो इसका अर्थ जनता के वोट रूपी अधिकार पर आघात होता है- जनतंत्र में जनता के वोट का सम्मान होना चाहिए... न कि प्रहार। जनता अपने अधिकार के प्रयोग पर मजाक पसंद नहीं करेगी। इसलिए राजनीति और राजनेताओं से संयम में रहकर अपने उत्तरदायित्व को निभाने की अपेक्षा की जाती है क्योंकि जनतंत्र अपनी गरिमा का सम्मान चाहता है।

Friday, April 22, 2011

आभार आपका!

फर्स्ट न्यूज साप्ताहिक के पिछले अंक में फिर तीन सवाल के शीर्षक से प्रकाशित संपादकीय पर पाठक वर्ग की जबरदस्त प्रतिक्रिया के रूप में कुछ सुझाव लेकिन पूर्ण समर्थन मिला है। सबसे पहला फोन एक महिला पाठक का त्वरित टिप्पणी के रूप में आया- उन्होंने सच को परिभाषित करने के लिए बधाई देते हुए यह सवाल किया कि आपने अपने निकट जनों को भी नहीं बख्सा... उनके इस सवाल पर मैं एक पाठक की उस जागरूकता पर दंग रह गया जो शब्द संसार के साथ आपसी संबंध संसार से जुड़ी थी-अर्थात पाठक का दृष्टिकोण कितना विस्तृत है.... मैं उन तमाम् पाठकों का हृदय से आभार ज्ञापित करता हूं जो न्याय की तुला से शब्द और संबंधों को तोल कर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। यह सच है कि अपनों पर ही कलम चलाते वक्त मेरे हाथ नहीं कांपे थे... हॉं अपनी डेस्क से उस कागज को आगे बढ़ाते वक्त मन में सिहरन जरूर हुई थी पर मॉं शारदे के आशीर्वाद की वजह से मैं कड़ा निर्णय कर पाने और कलम का धर्म निभाने में सफल रहा था।

एक मुझसे गंभीर चुक हुई जिसको एक पाठक के फोन से मिली प्रतिक्रिया ने मुझे अहसास कराया.... वो भूल यह थी कि १० अप्रैल को ही श्री सच्चियाय माता जी की भक्ति का एक कार्यक्रम पद्दोपुकुर (भवानीपुर) में आयोजित था-जबकि मां सच्चियाय का प्राण प्रतिष्ठित शक्ति पीठ पास में ही है -फिर अलग से किराये के स्थान पर हुए इस आयोजन को मैंने अपने उस सम्पादकीय में नहीं समेटने की चूक कर दी। उन पाठक की बात सही थी- जब मैंने इस विषय को उठाया था तब इस प्रसंग को भी साथ में लेना था- यद्यपि मैंने जानबुझकर यह गलती नहीं की पर अनजाने में ही सही मुझसे भूल तो हो ही गई..... मैं इसके लिए फर्स्ट न्यूज के पाठक जगत से क्षमा चाहता हूं।

जिनके पास दौलत है-वे अपनी दौलत का प्रयोग या उपयोग अपने मन मुताबिक करने के लिए स्वतंत्र है- पर समाज के हित/ अहित का ख्याल रखते हुए कलम धर्म को निभाना हम कलमकारों का कर्तव्य बनता है। मैं जब भी ऐसे ज्वलंत प्रसंग उठाता हूं-तब मेरा मकसद अपने विचारों को थोपना नहीं रहता बल्कि मैं यह चाहता हूं कि हम पूर्वाग्रह से मुक्त होकर उस घटना प्रसंग पर चिन्तन करते हुए आवश्यक सुधार करने की प्रक्रिया का हिस्सा बने।

मेरे पास दो फोन उन आत्मीयजनों के आये जिनकी उस कार्यक्रम में अहम भूमिका थी जिनके लिए मैंने लिखा था- जिस अंदाज में इन दोनों महानुभाव ने मुझसे बात की मैं इसकी सराहना किये बिना नहीं रह सकता- मेरे उठाये प्रसंग पर बड़ी आत्मीयता के साथ बात करते हुए उन्होंने अपने सवालात् रखे। आलोचना से तिलमिलाते लोगों के अनुभव तो मैंने देखे हैं पर सहृदयता और आत्मीयता की मनुहार भरा फोन करके सुधारवादी दृष्टिकोण को सामने रखकर चिंतन पेश करने का नजरिया कम ही दिखता है- मैं अपने इन दोनों आत्मयीजनों की इस आत्मीयता के लिए धन्यवाद देता हूं। मुझे लगता है इस प्रसंग से हमारे आत्मीय रिश्ते और मजबूत हुए हैं और सच भी यह है कि आलोचक ही सबसे अच्छे मित्र होते हैं- इस लिहाज से मैंने भी मित्रता ही निभाई है।

कुछ सवाल जिज्ञासा के रूप में आये हैं-जैंसे (१) राजरहाट स्थित मॉं का प्राण प्रतिष्ठित मंदिर सार्वजनिक सम्पत्ति नहीं है- यद्यपि मंदिर के निर्माणकर्ता की तरफ से पूजा अराधना के लिए सभी के लिए दरवाजे खोल रखे हैं- फिर भी समाज को तो वेधानिक व्यवस्था बनाकर समर्पित नहीं किया है.....

दूसरा सवाल मेरे उस विषय पर आया है जिसमें मैंने किराये के स्थानों पर मूर्ति, फोटो को लाने ले जाने पर लिखा था।

तीसरा सवाल यह आया है कि जब मोरखाना में मॉं की प्राण प्रतिष्ठित मूर्ति है-तो फिर नवरात्रा महोत्सव में उस स्थान से अलग मंच बनाकर वहां पर फोटो रखकर आयोजन में लाखों खर्च करना कितना उचित है? ये रुपये निर्माण कार्य में अगर लगाये जाये तो भक्तों के लिए कितना उपयोगी हो सकता है?

अब आइये इन सवालों पर चिंतन करते है.... पहले मंदिर के सवाल को लेते हैं, यह सच है कि यह मंदिर समाज के एक परिवार के द्वारा बनाया गया है तथा एक अत्यन्त छोटे स्थान में नाम भी चिन्हित किया गया है। मंदिर की व्यवस्था का आधार वो ही है पर उनके अनुसार मां का यह मंदिर मां के सभी भक्तों को समर्पित है यहां सदस्य, अध्यक्ष, मंत्री के पद नहीं है और न ही यहां अपने नाम का प्रदर्शन करने की व्यवस्था है। हम सब इस तथ्य से अगर सहमत है कि नाम और पद की दौड़ ही विसंगतियों का कारक बनती है तब हमको बिना नाम और बिना पद की इस व्यवस्था का स्वागत करना चाहिए।

हां अगर हमको यह लगे कि मां की भक्ति में उनकी (मंदिर निर्माता) की व्यवस्था हमारे लिए बाधक बन रही है तब निजी/ समाज की सम्पत्ति का विषय जेहन में आ सकता है अन्यथा बिना नाम के भक्ति का भाव भरा मजा लेने के लिए स्वयं को समर्पित कर देना चाहिए। अगर हम मां को अपना समझते हैं तो मां का हर वो स्थान जहां मां निवास करती है वो हमारा अपना है- फिर निजी और समाज की सम्पत्ति का विचार आ ही नहीं सकता। मेरा निवेदन है कि हम अपने दृष्टिकोण को विस्तृत करे..... इतना संकल्प तो ले लेवे कि देवी-देवताओं और आध्यात्मिक प्रसंग में पद और नाम की भावना आने ही नहीं देंगें..... और गुप्त दान की परम्परा के पोषक बनेंगे। हमारा यह संकल्प हमारे इस जीवन को तो तृप्त करेगा ही वरन आगे के जन्मों के लिए भी सत्कर्म का रास्ता खोल देगा।

एक सवाल यह भी आया कि हम कहां-कहां रोकेंगे? अखबार खोल कर सिर्फ विज्ञापनों को पढ़ कर अंदाज लगाये कि दर्शन के नाम पर प्रदर्शन का प्रदूषण किस रूप में बढ़ रहा हैै? इस सोच को क्या कहां जाये... क्या हम प्रयास करने से पहले हथियार डाल दे? अगर गंगा मैली है तो क्या शुद्धिकरण का प्रयास नहीं होना चाहिए?

हम औरों को नहीं बदल सकते... पर खुद पर तो हमारा नियंत्रण है, स्वयं को तो विसंगतियों के खिलाफ तैयार कर सकते हैं। अगर हम विसंगतियों में सम्मिलित होना व उसको सर्मथन देना बंद कर दे तो चमत्कार हो सकता है पर पहल तो करनी होगी... चलना शुरू करेंगे तब तो मुकाम पर पहुंचेंगे- बिना प्रयास किये हथियार तो बुजदिल व निकम्में लोग डाला करते हैं... हमको इस पंगत में तो नहीं आना है।

अब दूसरे और तीसरे सवाल पर आते हैं - देवी मूर्ति/ फोटो को किराये के स्थान पर लाने और ले जाने से मेरा आशय मूर्ति/ फोटो की पवित्रता के ख्याल से था- स्थान की पवित्रता भी इसमें खास महत्व रखती है। बार-बार लाने और ले जाने से संशय तो रहता ही है। आप पाठक स्वयं समझदार है विषय की गम्भीरता पर स्वयं विचार कर सकते हैं।

इसी प्रकार प्राण प्रतिष्ठित मूर्ति से अलग मंच बनाकर वहां दुसरी फोटो/ मूर्ति रखकर विशेष आयोजन- लाखों का खर्च भी अगर सवाल बने तो इसे अनुचित नहीं कहा जा सकता- अगर स्थानीय गायक कलाकारों का उपयोग किया जाये तो कम खर्च में ही काम हो सकता है- साथ ही साथ देवी- देवता की ऐतिहासिक गाथा का वाचन करने की परम्परा खास महोत्सव में अगर जोड़ दी जाए तो नई पीढ़ी के हृदय में श्रद्धा व आस्था के फूल खिल जायेंगे। हमने यह बात बचपन से सुनी है कि देवी- देवता तो भाव के भुखे होते हैं और भाव तो मन से आता है- जिसका श़ृंगार आस्था होती है- फिर ऊपरी चमक-दमक का प्रर्दशन कितना उचित है?

हमको निर्माण के काम करने चाहिए- जैसे विशेष आयोजन में भक्तों को ठहरने के लिए अगर कमरों की कमी महसूस होती है तो हमारा धन उस कमी को पूरा करने हेतु अनाम खर्च होना चाहिए।

इसी प्रकार उन रास्तों को अच्छा बनवाया जाना चाहिए- जिन रास्तों पर भक्त अपनी आस्था की ध्वजा लेकर नंगे पांव आते हो... वहां पर भक्तों की सुविधा हेतु उचित व्यवस्था होनी चाहिए...।

पैसा खर्च उस प्रकार होना चाहिए जिसकी आवाज वर्षों तक होती रहे- चार घंटे की चांदनी - फिर अंधेरी रात की तर्ज पर पैसा खर्च नहीं होना चाहिए।

अगर आपको पता चले कि मां का कोई सच्चा भक्त अगर किसी दुविधा में है तो आप उसको पता तक नहीं चलने दीजिए और उसकी दुविधा को कम करने का प्रयास मां की आज्ञा मानकर कर दीजिए... इससे बड़ी मां की आराधना नही हो सकती...

विडम्बना यह है कि हम सब उचित-उनुचित जानते हैं पर नाम और पद की चमक-दमक में जानबुझ कर भूल जाते हैं... आखिर कब तक स्वयं से स्वयं को छलते रहेंगे?

समाज के आम वर्ग की आंखों में चंद घंटों की चांदनी के रुप में दौलत का नाच खटकता है- उन दृश्यों के सामने उसका अपना अभाव उसको चिड़ाता सा प्रतीत होता है- अगर उसने अपना धीरज खो दिया तो उस विद्रोह को क्या दौलत दबा पायेगी?

दौलत को दम्भ के प्रर्दशन के रूप में उछालने से पहले समाज के आम वर्ग के अभाव को महसूस कर लीजिए... शायद आपका मन बदल जाएगा और दौलत को नचाने वाले हाथ रुक जायेंगे..!

कुल मिलाकर खुले दिलों-दिमाग से विचार करते हुए एक आदर्श आचार संहिता बनाने का प्रयास हो... यह मंगल कामना करता हूं ।

नीरज की ये पंक्तियां मुझे याद हो आई है-

मैं अकेला ही चला था मगर

लोग साथ जुड़ते गये....

और कारवां बनता गया ।