Saturday, October 1, 2011
नक्षत्रों का चमत्कार है, ममता की कुण्डली
चुटकी
पूछिये सवाल- क्या और क्यों?
Friday, September 16, 2011
लोकपाल
ममता के लिए सबसे बड़ी चुनौती...
Saturday, September 10, 2011
"आप और वे'
सांसद हो या सामन्त?
Saturday, September 3, 2011
मन क्यों नहीं मिलते?
Saturday, August 20, 2011
मशाल भी, मिसाल भी
Saturday, August 13, 2011
फिल्म आरक्षण पर बवाल क्यों?
Saturday, August 6, 2011
सरकार बीमार है-इसका इलाज कीजिये!
Monday, August 1, 2011
जनप्रिय होम्यो विशेषज्ञ डॉ० एस.बी.चौधरी नहीं रहे...
उनकी कृपा याद आती है...
Wednesday, July 27, 2011
बंगाल का सूरज
बंगाल के
आकाश में...
एक नया सूर्य
बंगाल के इतिहास में...
रश्मियां
यह
जता रही है
कि
अंधेरों की धूंध
अब खुद
जाना चाह रही है
अर्थात
रोशनी विकास की
एक नये आयाम की
नजर आ रही है
क्योंकि
उगता सूरज
अपना
रुप दिखा रहा है
और
एक नया
आलोक
अपनी चाल में
बना रहा है
अर्थात
बंगाल
का
स्वर्णिम काल
अब
आ रहा है।
-संजय सनम
बंगाल का सूरज
बंगाल के
आकाश में...
एक नया सूर्य
बंगाल के इतिहास में...
रश्मियां
यह
जता रही है
कि
अंधेरों की धूंध
अब खुद
जाना चाह रही है
अर्थात
रोशनी विकास की
एक नये आयाम की
नजर आ रही है
क्योंकि
उगता सूरज
अपना
रुप दिखा रहा है
और
एक नया
आलोक
अपनी चाल में
बना रहा है
अर्थात
बंगाल
का
स्वर्णिम काल
अब
आ रहा है।
-संजय सनम
""सलाम बांग्ला-सलाम ममता''
पर गुरुवार को बिग्रेड ने न सिर्फ अपने नाम की गरिमा दिखाई वरन् आम जनता के मन की उस पुरानी परिभाषा को भी बदल दिया अगर मुखिया नेक, ईमानदार, शालीन, अनुशासित हो तो फिर उसके कार्यकर्ताओं को भी ऐसा ही बनना होता है- क्योंकि उनकों जो बार-बार बताया जाये फिर आचरण में वो आता ही है। शायद इसलिये गुरुवार को बिग्रेड का नजारा अभूतपूर्व था। वास्तव में यह असली ब्रिगेड थी- क्योंकि यहां किराये की भीड़ नहीं थी- अपने दिल की आवाज पर दीवानगी के अहसास को लेकर लाखों लोग आये थे.... इस भीड़ ने यह बताया था कि अगर कोई जनता के लिए र्ईमानदारी से काम करता है तो जनता उसके लिए सैकड़ों मिलों से सफर करके बारिश में भींगकर उसके बुलावे पर हाजिर हो जाती है।
ब्रिगेड की यह रैली तमाशा नहीं थी बल्कि आंखों को मुग्ध करने वाला नजारा थी। ममता बनर्जी राजनीति और नेताओं के लिए सीखने वाला पाठ बन रही है- कि वास्तव में नेता, सरकार, प्रशासन कैसा होना चाहिए?
महानगर में शायद पहली बार जनसमुद्र का इतना शैलाब देखा गया था और बावजूद इसके सड़के जाम नहीं थी- सड़क परिवहन अन्य दिनों की तुलना में भी बेहतर था- अर्थात आम जनता को कहीं परेशानी का सामना नहीं करना पड़ा।
ममता की दूरदर्शिता की जितनी तारीफ की जाये वो कम लगेगी क्योंकि भीड़ को नियंत्रित करने व शालीनता से गंतव्य तक जाने तथा प्रशासन को चुस्त रखने व कार्यकर्ताओं से सही रूप से काम लेने अर्थात सभी के तरफ से व्यवस्था को जीवंत रूप से बनाये रखने की अद्भुत शैली ममता जी ने दिखलाई है। एक कहावत याद आ रही है... उदय होता सूर्य अपना तेज बता देता है... ममता की कार्यशैली इस कहावत को चरितार्थ कर रही है। बंगाल में ममता के रूप में एक नया सूर्य प्रकाश की यात्रा में निकल चुका है... अर्थात अंधेरों को अब जाना ही होगा- बंगाल के स्वर्णिम युग की शुरुआत हो चुकी है।
""सलाम बांग्ला-सलाम ममता''
सरकार इसे कहते हैं
आदर्श बन रही है ममता
बंगाल के स्वर्णिम काल की शुरूआत
भीड़ तमाशा नहीं -नजारा थी
प्रशासन था जिंदा-सड़के नहीं थी जाम
Saturday, July 16, 2011
चुटकी
राहुल जवाब दे!
Saturday, July 9, 2011
क्या वो बागवां गुनहगार नहीं है?
Saturday, July 2, 2011
""सधे कदमों से चल रहे है अन्ना''
कभी-कभी बहुत तेज चलना और लक्ष्य को सामने खुद आता देखकर अति आत्मविश्वास के साथ छलांग लगाना बहुत खतरनाक होता है। बाबा रामदेव का प्रसंग अन्ना हजारे के लिए सबक बन गया है- और वे इसको बहुत गंभीरता के साथ लेकर उस पर सही अमल करते हुए दिख रहे हैं।
अन्ना और बाबा रामदेव का लक्ष्य एक ही है-पर शैली काफी अलग है, इन दोनों का व्यक्तित्व और जनता तक पहुंचने का तरीका भी अलग है। पर दोनों में एक फर्क है... बाबा को नया-नया प्रसिद्धी का स्वाद मिला है और सियासी गोटियों के चक्रव्यूह में घुसकर निकलने की जानकारी नहीं है। बाबा रामदेव चूंकि योग सिखाते हैं-इसलिए बोलने की आदत अधिक है अधिक बोलना कई बार गले की घंटी बन जाता है- नाप-तौल कर बोलने वाले की बात का वजन होता है क्योंकि लोग उसके व्यक्तव्य को गंभीरता से लेते है-इस प्रकार यहां भी अन्ना, बाबा रामदेव से अलग नजर आते हैं। एक बहुत महत्वपूर्ण सवाल है टीम का-यहां अन्ना बाबा रामदेव से खासे आगे हैं क्योंकि अन्ना के पास जो तिकड़ी भूषण,बेदी, केजरीवाल की है वो सरकार को बोल्ड करने का हुनर रखती है।
अन्ना के कदम हर राजनीतिक दल के दरवाजे तक जा रहे है-और वे अपना पक्ष समझाकर उनकी मंशा को सीधे जान रहे है- अब अगर भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के लिए सशक्त लोकपाल का विरोध किस अंदाज में कोई करता है-यह राज अन्ना की टीम का जानना आगे की रणनीति में इनके लिए अस्त्र के रूप में काम करेगा।
एक खास बात यह है कि भीड़ में बोलना व अकेले में बोलने में फर्क होता है। राजनैतिक दलों के लिए अकेले में अन्ना की टीम के सामने मजबूत लोकपाल का विरोध करना मुश्किल बात होगी।
लोहा ही लोहे को काटता है-बिल्कुल इसी तर्ज पर चल रहे है ""अन्ना'' और सियासत खुद अपने ही बनाये चक्रव्यूह में फंस जाये तो कोई आश्चर्य नहीं। सियासत गला फाड़ कर कह रही है कि संसद सर्वोच्च है क्योंकि यहां जनता के चुने प्रतिनिधि फैसला लेते है... ये लोग जड़ को भूलकर पत्तों को सर्वोच्च बतला रहे है- जड़ तो जनता है-इस लिहाज से सर्वोच्च जनता है....और जनता का विश्वास सियासत से जब उठ गया है तब वो सशक्त लोकपाल चाहती है। अन्ना और उनकी टीम को इस देश की जनता का समर्थन मिल रहा है तब भी सियासत लोकपाल के मुद्दे पर सकपका रही है।
अंधेरी रात के बाद भोर आती है... प्रकृति के इस नियम को कौन रोक सकता है? भारत की जनता सियासत में उजास चाहती है... सियासत को अपना कर्म, चाल-चलन बदलना होगा- अन्यथा वक्त आने पर जनता बदल देगी।
Saturday, June 25, 2011
लोकपाल की जगह पोलपाल!
लोकपाल बिल का मसौदा तैयार करने में समाज की तरफ से अन्ना हजारें व उनके सहयोगियों को आम जनता के अधिकारों के लिए सरकार से जिस तरह जुझना पड़ रहा है- उससे यह संदेश आ रहा है कि सरकार लोकपाल के नाम पर पोलपाल का कुछ ऐसा विधेयक लाना चाह रहीं है जहां जनता के पास अधिकारों के रुप में खाली पिटारा हो-और सरकार व राजशाही के खिलाफ बुलन्द आवाज करने वालों की इच्छा रखने वालों के खिलाफ कुछ ऐसे कायदे-कानून लाये जाये जिससे कोई आवाज उठाने की हिम्मत ही नहीं करें।
अगर किसी अधिकारी के खिलाफ अगर कोई आम जन आरोप लगाये तो उस अधिकारी को मिलेगा सरकारी वकील... और आरोप लगाने वाला आम जन अपने खर्चे पर लड़ेगा। अगर वो अधिकारी जिस पर आरोप लगा है वो दोषी पाया जाता है तो उसको मिलेगी मामूली सजा-लेकिन अगर वो निर्दोष साबित हो तो आरोप लगाने वाले को कड़ी सजा! सरकार की नजर में लोकपाल का अर्थ अगर यही है तो फिर यह लोकपाल नहीं पोलपाल होगा- जहां खुली पोलों पर कारवाई खत्म नहीं होगी- लेकिन पोल खोलने वाला हमेशा चक्रव्यूह में रहेगा।
सरकार ने जनता के अधिकारों व देश की भ्रष्ट्र-निरंकुश व्यवस्था पर अपनी मनःस्थिती साफ कर दी है- लेकिन राजनीति पुरी संवेदनहीन हो गई है - अभी यह कहना शायद उचित न हो।
संसद में बकोल प्रतिनिधि विभिन्न सिद्धांतो- विचारधाराओं के राजनैतिक दल है- अब देखना यह है कि ये जनता, जनतंत्र के समर्थन में अपना मुंह कितना खोलते है?
आने वाले लोकसभा चुनावों में लोकपाल अहम मुद्दा बनेगा और जनता राजनीति की उस डगर पर मुहर लगायेगी जो जनता के अधिकारों के संरक्षण पर आज मुहर लगायेगा अर्थात जनता के लिये संसद में खुलकर बोलेगा। क्योंकि जनता वास्तविक रुप से लोकपाल ही चाहती है।
Tuesday, June 14, 2011
हम सब दोषी हैं....
Friday, June 10, 2011
सत्याग्रह
भष्टाचार
व
भष्टाचारियों
की
इस व्यवस्था का
सत्याग्रह से
समाधान...
नहीं हो सकता
असुर शक्ति का
नीति से परिहार
नहीं हो सकता...
और जब तक
हम
उनके सामने
नीति विचार
की घंटी
गांधी की
अहिंसा की लाठी
से
दबायेंगे...
तब तक
वो
देश का
निवाला और
निगल जायेंगे...
इसलिए
अब हमें
गांधी को छोड़कर
भगत,
सुभाष,
तात्या,
लक्ष्मीबाई
की
राहों पर
आना होगा
और
प्रहार दर प्रहार
कर
इनका
संहार करना होगा।
भ्रष्ट व्यवस्था
बनाने
वाले
इन व्यवस्थापकों
को
उनकी
भाषा में
समझाना होगा-
उन्होंने
लाठियां चलाई
तो हमको
लट्ठ
चलाना होगा..
तब इस समस्या का
समाधान होगा...
अन्यथा
अमर बेल
की
तरह
और
प्रसार होगा।
-संजय सनम
Friday, June 3, 2011
प्रियंका की रहस्यमय मौत का मामला
वाह रे! तेरापंथ समाज
समाज की एक बेटी की ससुराल में जहर पिलाकर व फिर उसको आत्महत्या का मामला बनाने की कोशिश करने का जघन्य काम किया जाता है तब भी समाज के कुछ सक्रिय और मौजीज लोगों के द्वारा पीड़ित पक्ष (लड़की) के पीहर पक्ष को इस मामले को तूल न देकर आपसी समझौता करने का दबाव बनाते है।
वाह रे समाज! साथ तो पीड़ित पक्ष का देना चाहिए और आरोपी पक्ष के खिलाफ आवाज ऐसी बुलन्द करनी चाहिए कि फिर कोई बहु को मारने की ती दूर बल्कि उसको प्रताड़ित करने की भी कोशिश न करें... पर समाज के कर्णधार जब आरोपियों को संरक्षण देने की कोशिश करते हैं तो इसका अर्थ उनके घरों में भी बहुओं की स्थिति पर सवालिया निशान लग सकता है। जो किसी की बेटी के हत्यारों के लिए पीड़ित पक्ष पर दवाब बना कर समझौता कराने की कोशिश कर सकते हैं इससे साफ है कि उनके मन में संवेदन की अनुभूति नहीं है अर्थात वे आरोपियों का साथ देने वालों की कतार में खड़े है। कोई आश्चर्य नहीं कि कभी उनके घर से भी बहु को मारने व मामले को रफा-दफा करने की घटना घट जायें।
ऐसी बेजा हरकत करने वालों के कुछ नाम मेरे सामने आये है.... मैं उनको अभी प्रकाशित नहीं कर रहा हूं पर उनको आगाह अवश्य कर रहा हूं कि अपनी इन ओछी हरकतों से वे लोग बाज आये अन्यथा समाज के सामने ऐसे काले चेहरों को लाने में मैं संकोच नहीं करुंगा।
मुझे दुःख है कि समाज उन लोगों का वहिष्कार व दबाव नहीं डालता जो बहु पर अत्याचार, प्रताड़ना व दहेज की मांग करके या तो उसे मरने के लिए मजबूर कर देते है या फिर मार कर उसको आत्महत्या का मामला बनाने की कोशिश से भी नहीं चुकते-फिर उसके लिये स्थानीय पुलिस प्रशासन को अपने पक्ष में लेने के लिए दौलत को पानी की तरह क्यूं न बहाना पड़े।
अगर समाज में दम हो तो वो पीड़ित पक्ष के साथ खड़ा होकर अन्यायी को वो सजा दे सकता है-जिससे समाज की गरिमा और उसके होने का अर्थ नजर आये। यह घटना बीदासर की बेटी (प्रियंका) सुपुत्री थानमल दूगड़ व छापर के छाजेड़ परिवार विमल सिंह छाजेड़,(जैन) परिवार में दुर्गाचक हल्दिया मिदनापुर पूर्व में घटी है। घटना को खबर के प्रारुप में प्रकाशित किया गया है-इसकी संपूर्ण जानकारी पाठक खबर को पढ़ कर लेवे।
पाठक वर्ग से अनुरोध है कि ऐसी घटनाओं में अन्याय के पक्ष में खड़े दिखने वाले लोगों की इज्जत उतारने में कोताही न बरते। जो लोग प्रियंका की हत्या के इस मामले को रफा-दफा करने की कोशिश में लगे है वो यह जान ले कि पुलिस प्रशासन को दौलत पर चाहे खरीदा जा सकता हो व आरोपियों के पक्ष में खड़े होकर अपना दोगलापन दिखलाने की कीमत पर उनको भी दौलत का प्रसाद चाहे मिल सकता हो पर वो आत्मा उनको कभी माफ नहीं कर सकती जिसकी जिन्दगी को असमय हत्यारों के द्वारा लील लिया गया हो। हो सकता है कानूनी कार्रवाई को भी अंजाम तक पहुंचाने में समय लगे पर उस आत्मा को अपनी मौत का बदला लेने में समय नहीं लगेगा। ऐसे मामले कई सुने गये है जिनमें मृतात्मा ने अपना प्रतिशोध खुद लिया है। मैं प्रियंका की आत्मा की शांति के लिए भगवान से प्रार्थना करता हूं-पता नहीं क्यों? मुझे लगता है-जो काम वक्त पर प्रशासन व समाज नहीं कर सका वो काम प्रियंका खुद करेगी-इसलिए प्रियंका को मारने व उसके इस मामले को रफा-दफा करने की कुचेष्टा करने वालों के लिए खतरे की घंटी बजती दिख रही है।
जिन लोगों ने अपराध किया है व जो लोग किसी न किसी रूप में अपराधियों के सहयोगी बने है-वक्त की अदालत उनको उनके कर्मों की सजा जरूर देगी पर जिस आंगन की बेटी ससुराल पक्ष के अत्याचारों से पीड़ित होकर मौत के आगोश में समा गई है उस पीड़ित परिवार के लिए समाज की भूमिका क्या रही है? क्या इसे ही समाज कहते है?क्या रिश्ते-नाते और अपने स्वार्थ इतने हावी हो गये है कि पीड़ित पक्ष को न्याय दिलाने की बजाय उसे समझौता करने के लिए दबाव दिया जाये।
समाज के प्रबुद्ध वर्ग से मेरा निवेदन है कि पीड़ित पक्ष से सम्पर्क कर उन लोगों को चिन्हित करे जो समझौते रूपी दलाली की कोशिश कर रहे थे और इन लोगों को समाज के खुले मंच पर खड़ा करके कड़ी फटकार लगाई जाये ताकि ऐसी दुर्घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो सके। मैं अपने इस संपादकीय के माध्यम से अपने कलम धर्म के साथ सामाजिक दायित्व का पालन कर रहा हूं-अगर समाज रूपी संगठन में कहीं दायित्व बोध की भावना बची है तो वो अपनी उपस्थिति दर्शावे अन्यथा समाज रूपी यह संस्था पाकेटी संस्था का ही रुपक लगेगी-जिसको स्वीकार नहीं किया जायेगा।
मैं आरोपी पक्ष के उन रिश्तेदारों को धन्यवाद देना चाहूंगा जिन्होंने पीड़ित पक्ष की बात सुनने के बाद आरोपी पक्ष को अपना समर्थन न देने की बात कही और इस घटना के लिए दुःख प्रगट किया।
मानवीयता, रिश्तों-नातों से कहीं अधिक ऊपर होती है। पर अफसोस आजकल समाज रूपी संगठन अपने निहित स्वार्थ व दौलत के हाथ चलता है-इसलिए किसी का कत्ल हो जाता है और समाज "उफ' तक नहीं करता।
Saturday, May 28, 2011
भड़की जनता-सहमा प्रशासन
कहीं नायक फिल्म का ट्रेलर तो नहीं!
जब से ममता बनर्जी ने मुख्यमंत्री की कुर्सी सम्हाली है तब से औचक निरीक्षण उनका हिस्सा बन गया है। यह प्रक्रिया अब सरकारी कार्यालयों में कसावट का संकेत बन सकती है-जाने कब मुख्यमंत्री साहिबा का काफीला आ जाये। पर इन औचक निरीक्षणों पर दूसरी प्रतिक्रिया भी आ रही है-उसके आधार पर मुख्यमंत्री को हर दिन की दिनचर्चा के रूप में इसको न लेकर हर विभाग के विशेषज्ञों की ऐसी टीम बनाकर उनको औचक निरीक्षण की जवाबदेही देनी चाहिए और फिर उनसे मिली रिपोर्ट के आधार पर कार्रवाई करनी चाहिए। क्योंकि ममता जी जब स्वयं औचक निरीक्षण पर जाती है तो उनके काफिले के साथ फिर आम लोगों की भीड़ भी जुट जाती है- और यह भीड़ फिर उस संस्थान की गतिविधी में बाधक बन जाती है-जैसे मेडिकल विभाग में यह नजारा मरीजों की उपचार प्रक्रिया में उस वक्त बाधक बन सकता है। इसलिए भविष्य का सुधार तात्कालिक रूप से स्थिति को गंभीर बना देता है।
बेशक ममता जी, बंगाल की स्थिति को सुधारने के लिये फिल्म नायक की तर्ज पर काम कर रही है- पर फिल्म और यथार्थ में बहुत फर्क होता है इसलिए औचक निरीक्षण के लिये सुयोग्य ईमानदार अलग-अलग क्षेत्र के विशेषज्ञों का दस्ता तैयार करवाये और उनसे यह कार्रवाई करवायें।
ममता जी की स्वयं की सुरक्षा के लिये भी यह आवश्यक है कि वो जनता के बीच तो जाये पर भीड़ का हिस्सा न बने। जनता दरबार के माध्यम से वो आम जनता से सम्पर्क में रहने की अपनी इच्छा को पूरा कर सकती है तथा उनकी सुरक्षा का तंत्र भी तनाव रहित रह सकता है।
कुल मिलाकर ममता जी को बहुत तेज चलने की बजाय सधे कदमों से अपने लक्ष्य को योग्य अधिकारियों के हाथों में सौंप कर चलना चाहिए। उनका अधिक थकना व अधिक तनाव में होना प्रदेश के मुखिया के रूप में प्रदेश के लिए अच्छा नहीं हो सकता... इसलिए ममता जी को नायक फिल्म के नायक की तरह जल्दबाजी नहीं करनी है क्योंकि उसके पास तो सिर्फ चौबीस घंटे का समय था, आपके पास तो पांच वर्ष का समय है-इसलिए असली नायक की भूमिका दिखानी है... नायक फिल्म का ट्रेलर नहीं।
Saturday, May 21, 2011
""ममता'' मिसाल बनी है
अगर इरादे नेक हो, हौसले बुलाद हो ... और आँखों में अपनी महत्वाकांक्षा का सपना हो.... तब वो पथिक संघर्ष की तपती राहों में हार कहां मानते है.... झंझावतों से टकराते टकराते वो खुद तूफान हो जाते है और एक दिन अपने ख्बावों की मंजिल पर कामयाबी का हस्ताक्षर करने में कामयाब हो जाते है... ममता की ताजपोशी के पीछे उनका वर्षों का संघर्ष था आत्मसम्मान पर चोट थी.. १८ वर्ष पूर्व इसी राइटर्स की इमारत से उन्हें अपमानित करते हुए निकाला गया था... जिस इमारत ने कल उनके लिए पलक पावड़े बिछा रखे थे।
यह सच है कि वक्त बदलता है तो जमाने की अदायें बदल जाती है पर वक्त का यह अंदाज तो उनके लिये ही बदलता है जो अपनी मंजिल तक पहुंचने के लिए तूफानों के थपेड़ों से अपने इरादें नहीं बदलते.... ममता बनर्जी ऐसी ही मिसालों में बेमिसाल कही जा सकती है। अगर १८ वर्ष पूर्व इसी राइटर्स बिल्डिंग में ममता को धक्के मारकर अपमानित न किया होता और ममता ने रायटर्स में तब तक पैर घरने की कसम न खाई होती जब तक वो जन समर्थन का अधिकार पत्र न ले ले तो शायद कल (२० मई) का दिन इस रूप में आया न होता। १८ वर्ष पूर्व आत्मसम्मान में हुई चोट ने ममता के इरादों को हिमालय कर दिया और उस सौगंध ने २०मई २०११ के इस दिन की नींव का पहला पत्थर लगा दिया- जिसकी इमारत २० मई को अपनी भव्यता के साथ तैयार हो गई।
आत्मसम्मान पर चोट क्रांति का रूपक बना सकती है-और उसका जवाब देने की हसरत में उसके कदमों पर पंख लगा देती है। ममता बनर्जी की जीत के राजनैतिक मायने चाहे कुछ भी हो पर वास्तव में यह बुलन्द इरादों की जीत है।
यह जीत यह बताती है कि महिला अबला नहीं सबला भी होती है और अपने दम पर इतिहास में क्रांति और बदलाव का स्वर्णिम पृष्ठ जोड़ देती है।
ममता जी ने इस देश की महिला शक्ति का गौरव बढ़ाया है और उनके लिए आदर्श बन गई है।
शपथ ग्रहण समारोह के बाद राजभवन से राइटर्स तक जन सैलाब के साथ जिस अंदाज में पहुंचकर उन्होंने अपनी जिम्मेदारी सम्हाली है यह दृश्य आम जनता की आंखों में सपने और बिछा गया है।
ममता ने अपनी मंजिल पर पहुंचकर बंगाल की जनता के सपने जगा दिये है- अब बहुत बड़ी जिम्मेदारी उन पर है... हालातों की विषमताओं से संघर्ष करके विकास के फूल खिलाने का उनका सफर शुरू हो गया है। इस सफर की सफलता के लिए हम अपनी शुभकामनाएं देते हैं- उनका यह सफर सुखद, सफल, मंगलमय हो।
Friday, May 6, 2011
क्या इतने नपुंसक हो गये हैं हम?
अमेरिका ने अपने लक्ष्य को १० वर्षों की कड़ी मशक्कत के बाद हासिल कर लिया और इसके लिए उसने किसी को पूछा तक नहीं.... क्योंकि उसके मन में अपने लक्ष्य को हासिल करने का जज्बा था.. इसलिए वो अफगानिस्तान के रेतीले-पहाड़ी इलाकों में लादेन को खोजने में थका नहीं और जब उसको पक्की खबर लगी तो रात के अंधेरे में पाकिस्तान से बिना पूछे उसकी जमीं में घुसकर लादने को खत्म करके उसके नश्वर शरीर तक को उठा ले गया और अरब सागर में दफना दिया। अगर आतंक के समाधान की बात करे तो यह घटना उसके खात्मे का समाधान नहीं है- पर देश की संप्रभुता और उसकी सुरक्षा पर विचार करे तो अमेरिका ने अपने देश पर हुए हमले का जवाब दिया है। अब हम अपने देश की इससे तुलना करे- तो शायद हम मनोबल , सैन्यबल व आस-पास की परिस्थितयों से कमजोर नजर आते है इसलिए हम ईंट का जवाब पत्थर से तुरंत कभी नहीं दे पाये हैं -और हमारी इस नीतिगत कमजोरी की कीमत हमको चुकानी पड़ रही है।
मुझे लगता है कि सरकार की मनोस्थिति इस मामले पर कभी आक्रामक नहीं रही.... क्योंकि राजनीति व सरकार बचाने की जुगत में ही समय लग जाता है तब देश के स्वाभिमान व उस पर हुये आघात का अमेरिका जैसा जवाब देने का न तो इनके पास वक्त रहता है और न ही इनके मन में जज्बा रहता है।
हमारे आकाओं को गाल पर थप्पड़ खाकर फिर सहलाने की ही आदत पड़ी हुई है ... ये अपनी राजनीति को किसी भी कीमत पर जोखिम में नहीं डाल सकते-इसलिए पड़ोसी देश आतंकियों की शरण स्थली बना हुआ है और जब-तब धमाकों की थप्पड़ वो हमको देता रहता है- अब तो हालात इतने गंभीर है कि किसी के दिलेर कारनामें को देखकर भी हमारे लहू में उबाल नहीं आता । नेस्तनाबुंद करने की उड़ान भरने का हौसला तो दूर- हमारे आकाओं की जुबान से तो धमाकेदार बयान भी नहीं आता...
क्या इतने नपुंसक हो गये हैं हम?
Friday, April 29, 2011
जनता अपना सम्मान चाहती है !
बंगाल विधानसभा चुनावों में प्रकृति की तपती गर्मी से अधिक चुनाव परिणामों पर कयासों की गर्मी है और एक आशंका भी लोगों के मन में है कि परिणामों के चलते खून-खराबा, हिंसा जैसा माहौल देखने को न मिल जाये।
राजनेताओं की उग्र बयानबाजी भी इस संदेह को और अधिक बढ़ा रही है अगर ऐसी विपरित स्थितियां चुनाव परिणाम के बाद नजर आये तो इसका अर्थ इस तरह की गतिविधियों को अंजाम देने वाले राजनैतिक कैडरों ने जनता के निर्णय के साथ मजाक किया है.... अर्थात ""जनतंत्र'' की इस व्यवस्था पर प्रहार किया है। जनता को चाहिए कि चुनाव परिणामों के बाद की गतिविधयों पर नजर रखे तथा सद्भावना का माहौल खराब करने वालों को आने वाले भविष्य के लिए ब्लैक लिस्टेड कर दे। अगर जनता सर्वोच्य है तो फिर जनता के निर्णय के साथ किसी भी प्रकार के उत्पात को क्षमा नहीं किया जाना चाहिए।
ऐसी गतिविधियों में शरीक राजनैतिक दलों को जनता के द्वारा भविष्यतः बायकाट करना ही आवश्यक हो जाता है। सभी राजनैतिक दलों के नेताओं का यह कर्तव्य बनता है कि वो हार-जीत को जनता के निर्णय के रूप में सम्मान के साथ स्वीकारें तथा अपने कार्यकर्ताओं को अनुशासन, संयम की डोर से बांधे रखे।
अगर हार उत्पात का रूप लेती है तो इसका अर्थ जनता के वोट रूपी अधिकार पर आघात होता है- जनतंत्र में जनता के वोट का सम्मान होना चाहिए... न कि प्रहार। जनता अपने अधिकार के प्रयोग पर मजाक पसंद नहीं करेगी। इसलिए राजनीति और राजनेताओं से संयम में रहकर अपने उत्तरदायित्व को निभाने की अपेक्षा की जाती है क्योंकि जनतंत्र अपनी गरिमा का सम्मान चाहता है।
Friday, April 22, 2011
आभार आपका!
फर्स्ट न्यूज साप्ताहिक के पिछले अंक में फिर तीन सवाल के शीर्षक से प्रकाशित संपादकीय पर पाठक वर्ग की जबरदस्त प्रतिक्रिया के रूप में कुछ सुझाव लेकिन पूर्ण समर्थन मिला है। सबसे पहला फोन एक महिला पाठक का त्वरित टिप्पणी के रूप में आया- उन्होंने सच को परिभाषित करने के लिए बधाई देते हुए यह सवाल किया कि आपने अपने निकट जनों को भी नहीं बख्सा... उनके इस सवाल पर मैं एक पाठक की उस जागरूकता पर दंग रह गया जो शब्द संसार के साथ आपसी संबंध संसार से जुड़ी थी-अर्थात पाठक का दृष्टिकोण कितना विस्तृत है.... मैं उन तमाम् पाठकों का हृदय से आभार ज्ञापित करता हूं जो न्याय की तुला से शब्द और संबंधों को तोल कर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। यह सच है कि अपनों पर ही कलम चलाते वक्त मेरे हाथ नहीं कांपे थे... हॉं अपनी डेस्क से उस कागज को आगे बढ़ाते वक्त मन में सिहरन जरूर हुई थी पर मॉं शारदे के आशीर्वाद की वजह से मैं कड़ा निर्णय कर पाने और कलम का धर्म निभाने में सफल रहा था।
एक मुझसे गंभीर चुक हुई जिसको एक पाठक के फोन से मिली प्रतिक्रिया ने मुझे अहसास कराया.... वो भूल यह थी कि १० अप्रैल को ही श्री सच्चियाय माता जी की भक्ति का एक कार्यक्रम पद्दोपुकुर (भवानीपुर) में आयोजित था-जबकि मां सच्चियाय का प्राण प्रतिष्ठित शक्ति पीठ पास में ही है -फिर अलग से किराये के स्थान पर हुए इस आयोजन को मैंने अपने उस सम्पादकीय में नहीं समेटने की चूक कर दी। उन पाठक की बात सही थी- जब मैंने इस विषय को उठाया था तब इस प्रसंग को भी साथ में लेना था- यद्यपि मैंने जानबुझकर यह गलती नहीं की पर अनजाने में ही सही मुझसे भूल तो हो ही गई..... मैं इसके लिए फर्स्ट न्यूज के पाठक जगत से क्षमा चाहता हूं।
जिनके पास दौलत है-वे अपनी दौलत का प्रयोग या उपयोग अपने मन मुताबिक करने के लिए स्वतंत्र है- पर समाज के हित/ अहित का ख्याल रखते हुए कलम धर्म को निभाना हम कलमकारों का कर्तव्य बनता है। मैं जब भी ऐसे ज्वलंत प्रसंग उठाता हूं-तब मेरा मकसद अपने विचारों को थोपना नहीं रहता बल्कि मैं यह चाहता हूं कि हम पूर्वाग्रह से मुक्त होकर उस घटना प्रसंग पर चिन्तन करते हुए आवश्यक सुधार करने की प्रक्रिया का हिस्सा बने।
मेरे पास दो फोन उन आत्मीयजनों के आये जिनकी उस कार्यक्रम में अहम भूमिका थी जिनके लिए मैंने लिखा था- जिस अंदाज में इन दोनों महानुभाव ने मुझसे बात की मैं इसकी सराहना किये बिना नहीं रह सकता- मेरे उठाये प्रसंग पर बड़ी आत्मीयता के साथ बात करते हुए उन्होंने अपने सवालात् रखे। आलोचना से तिलमिलाते लोगों के अनुभव तो मैंने देखे हैं पर सहृदयता और आत्मीयता की मनुहार भरा फोन करके सुधारवादी दृष्टिकोण को सामने रखकर चिंतन पेश करने का नजरिया कम ही दिखता है- मैं अपने इन दोनों आत्मयीजनों की इस आत्मीयता के लिए धन्यवाद देता हूं। मुझे लगता है इस प्रसंग से हमारे आत्मीय रिश्ते और मजबूत हुए हैं और सच भी यह है कि आलोचक ही सबसे अच्छे मित्र होते हैं- इस लिहाज से मैंने भी मित्रता ही निभाई है।
कुछ सवाल जिज्ञासा के रूप में आये हैं-जैंसे (१) राजरहाट स्थित मॉं का प्राण प्रतिष्ठित मंदिर सार्वजनिक सम्पत्ति नहीं है- यद्यपि मंदिर के निर्माणकर्ता की तरफ से पूजा अराधना के लिए सभी के लिए दरवाजे खोल रखे हैं- फिर भी समाज को तो वेधानिक व्यवस्था बनाकर समर्पित नहीं किया है.....
दूसरा सवाल मेरे उस विषय पर आया है जिसमें मैंने किराये के स्थानों पर मूर्ति, फोटो को लाने ले जाने पर लिखा था।
तीसरा सवाल यह आया है कि जब मोरखाना में मॉं की प्राण प्रतिष्ठित मूर्ति है-तो फिर नवरात्रा महोत्सव में उस स्थान से अलग मंच बनाकर वहां पर फोटो रखकर आयोजन में लाखों खर्च करना कितना उचित है? ये रुपये निर्माण कार्य में अगर लगाये जाये तो भक्तों के लिए कितना उपयोगी हो सकता है?
अब आइये इन सवालों पर चिंतन करते है.... पहले मंदिर के सवाल को लेते हैं, यह सच है कि यह मंदिर समाज के एक परिवार के द्वारा बनाया गया है तथा एक अत्यन्त छोटे स्थान में नाम भी चिन्हित किया गया है। मंदिर की व्यवस्था का आधार वो ही है पर उनके अनुसार मां का यह मंदिर मां के सभी भक्तों को समर्पित है यहां सदस्य, अध्यक्ष, मंत्री के पद नहीं है और न ही यहां अपने नाम का प्रदर्शन करने की व्यवस्था है। हम सब इस तथ्य से अगर सहमत है कि नाम और पद की दौड़ ही विसंगतियों का कारक बनती है तब हमको बिना नाम और बिना पद की इस व्यवस्था का स्वागत करना चाहिए।
हां अगर हमको यह लगे कि मां की भक्ति में उनकी (मंदिर निर्माता) की व्यवस्था हमारे लिए बाधक बन रही है तब निजी/ समाज की सम्पत्ति का विषय जेहन में आ सकता है अन्यथा बिना नाम के भक्ति का भाव भरा मजा लेने के लिए स्वयं को समर्पित कर देना चाहिए। अगर हम मां को अपना समझते हैं तो मां का हर वो स्थान जहां मां निवास करती है वो हमारा अपना है- फिर निजी और समाज की सम्पत्ति का विचार आ ही नहीं सकता। मेरा निवेदन है कि हम अपने दृष्टिकोण को विस्तृत करे..... इतना संकल्प तो ले लेवे कि देवी-देवताओं और आध्यात्मिक प्रसंग में पद और नाम की भावना आने ही नहीं देंगें..... और गुप्त दान की परम्परा के पोषक बनेंगे। हमारा यह संकल्प हमारे इस जीवन को तो तृप्त करेगा ही वरन आगे के जन्मों के लिए भी सत्कर्म का रास्ता खोल देगा।
एक सवाल यह भी आया कि हम कहां-कहां रोकेंगे? अखबार खोल कर सिर्फ विज्ञापनों को पढ़ कर अंदाज लगाये कि दर्शन के नाम पर प्रदर्शन का प्रदूषण किस रूप में बढ़ रहा हैै? इस सोच को क्या कहां जाये... क्या हम प्रयास करने से पहले हथियार डाल दे? अगर गंगा मैली है तो क्या शुद्धिकरण का प्रयास नहीं होना चाहिए?
हम औरों को नहीं बदल सकते... पर खुद पर तो हमारा नियंत्रण है, स्वयं को तो विसंगतियों के खिलाफ तैयार कर सकते हैं। अगर हम विसंगतियों में सम्मिलित होना व उसको सर्मथन देना बंद कर दे तो चमत्कार हो सकता है पर पहल तो करनी होगी... चलना शुरू करेंगे तब तो मुकाम पर पहुंचेंगे- बिना प्रयास किये हथियार तो बुजदिल व निकम्में लोग डाला करते हैं... हमको इस पंगत में तो नहीं आना है।
अब दूसरे और तीसरे सवाल पर आते हैं - देवी मूर्ति/ फोटो को किराये के स्थान पर लाने और ले जाने से मेरा आशय मूर्ति/ फोटो की पवित्रता के ख्याल से था- स्थान की पवित्रता भी इसमें खास महत्व रखती है। बार-बार लाने और ले जाने से संशय तो रहता ही है। आप पाठक स्वयं समझदार है विषय की गम्भीरता पर स्वयं विचार कर सकते हैं।
इसी प्रकार प्राण प्रतिष्ठित मूर्ति से अलग मंच बनाकर वहां दुसरी फोटो/ मूर्ति रखकर विशेष आयोजन- लाखों का खर्च भी अगर सवाल बने तो इसे अनुचित नहीं कहा जा सकता- अगर स्थानीय गायक कलाकारों का उपयोग किया जाये तो कम खर्च में ही काम हो सकता है- साथ ही साथ देवी- देवता की ऐतिहासिक गाथा का वाचन करने की परम्परा खास महोत्सव में अगर जोड़ दी जाए तो नई पीढ़ी के हृदय में श्रद्धा व आस्था के फूल खिल जायेंगे। हमने यह बात बचपन से सुनी है कि देवी- देवता तो भाव के भुखे होते हैं और भाव तो मन से आता है- जिसका श़ृंगार आस्था होती है- फिर ऊपरी चमक-दमक का प्रर्दशन कितना उचित है?
हमको निर्माण के काम करने चाहिए- जैसे विशेष आयोजन में भक्तों को ठहरने के लिए अगर कमरों की कमी महसूस होती है तो हमारा धन उस कमी को पूरा करने हेतु अनाम खर्च होना चाहिए।
इसी प्रकार उन रास्तों को अच्छा बनवाया जाना चाहिए- जिन रास्तों पर भक्त अपनी आस्था की ध्वजा लेकर नंगे पांव आते हो... वहां पर भक्तों की सुविधा हेतु उचित व्यवस्था होनी चाहिए...।
पैसा खर्च उस प्रकार होना चाहिए जिसकी आवाज वर्षों तक होती रहे- चार घंटे की चांदनी - फिर अंधेरी रात की तर्ज पर पैसा खर्च नहीं होना चाहिए।
अगर आपको पता चले कि मां का कोई सच्चा भक्त अगर किसी दुविधा में है तो आप उसको पता तक नहीं चलने दीजिए और उसकी दुविधा को कम करने का प्रयास मां की आज्ञा मानकर कर दीजिए... इससे बड़ी मां की आराधना नही हो सकती...
विडम्बना यह है कि हम सब उचित-उनुचित जानते हैं पर नाम और पद की चमक-दमक में जानबुझ कर भूल जाते हैं... आखिर कब तक स्वयं से स्वयं को छलते रहेंगे?
समाज के आम वर्ग की आंखों में चंद घंटों की चांदनी के रुप में दौलत का नाच खटकता है- उन दृश्यों के सामने उसका अपना अभाव उसको चिड़ाता सा प्रतीत होता है- अगर उसने अपना धीरज खो दिया तो उस विद्रोह को क्या दौलत दबा पायेगी?
दौलत को दम्भ के प्रर्दशन के रूप में उछालने से पहले समाज के आम वर्ग के अभाव को महसूस कर लीजिए... शायद आपका मन बदल जाएगा और दौलत को नचाने वाले हाथ रुक जायेंगे..!
कुल मिलाकर खुले दिलों-दिमाग से विचार करते हुए एक आदर्श आचार संहिता बनाने का प्रयास हो... यह मंगल कामना करता हूं ।
नीरज की ये पंक्तियां मुझे याद हो आई है-
मैं अकेला ही चला था मगर
लोग साथ जुड़ते गये....
और कारवां बनता गया ।