Friday, September 16, 2011

लोकपाल


१.
लोकपाल स्टेडिंग कमेटी
में
लालू व अमर का
पुर्नचयन
यह बताता है कि
जन लोकपाल बिल
में
भ्रष्टाचार को रोकने में
रोड़ा अटकाने के लिए
इनको लाया जाता है।
अमर सिंह
बीमार है-
अभियुक्त है
अंतरिम जमानत पर है
पर इस सरकार की
सबसे बड़ी जरुरत है-
क्योंकि नोट काण्ड में
अमर की हिरासत
सरकार की हरारत है
और जनता के जन लोकपाल पर
सरकार की यह
सियासती शरारत है।
सरकार अपनी सीरत में
सुधार नहीं करेगी-
क्या जनता अब भी
इनमें बदलाव
नहीं करेगी?
२.
भ्रष्टाचार को
खत्म करने वाले
जन लोकपाल बिल
पर
स्टेडिंग कमेटी
में
बैठकर
लालू व अमर
निर्णय का
हिस्सा बनेंगे-
अर्थात भ्रष्टाचार
को
मिटाने
की
कवायद
अब
भ्रष्टाचारी
खुद करेंंगे।
३.
यह सरकार
अपने कर्मों
का
आने वाला फल
समझने लगी है
इसलिये जो खा चुकी है
उसको पचाने में लगी है
और जो
बच गया है-
उसको खाने में लगी है-
यहां खाने और पचाने
का
दौर चल रहा है-
और
जनता का जन लोकपाल
चारे की तरह
स्टेंडिंग कमेटी में टंगा है-
ये लोग
आम आदमी की
रोटी
कप़ड़ा
मकान
को खा चुके हैं
अब
चारा खाने वाले
सरकार को बचाने वाले
स्टेंडिंग कमेटी में
फिर आ चुके हैं।

ममता के लिए सबसे बड़ी चुनौती...

एक प्रतिष्ठित बांग्ला दैनिक में बंगाल के एक जूट उद्योगपति के द्वारा तृणमूल विधायक की शिकायत केन्द्रीय गृहमंत्री को भेजने की खबर प्रकाशित होने के बाद यह सवाल विचारणीय बन गया है कि ममता दीदी की क्लीन छवि पर उनके अपने ही लोग अपने निहित स्वार्थों की वजह से कोई दाग तो नहीं लगा रहे? प्रकाशित खबर आधारित रुप से कितनी सच्ची है? यह तो वक्त बतलायेगा-लेकिन ममता दीदी के लिए बंगाल के विकास का प्रयास जितना गम्भीर है उससे अधिक गम्भीर बात अपनी सरकार के लोगों व कर्मियों को पूर्ण नियंत्रण में रखने की है-फिर वो चाहे विधायक, सांसद, पार्षद या फिर अपने क्षेत्र में पार्टी के संपादक क्यों न हो?
अगर आम जनता के बीच इन लोगों की नेतागिरी-गुण्डागर्दी का रुपक बनकर किसी भी रुप में आती है तो इसका सीधा प्रभाव ममता जी की छवी पर पड़ेगा। देखने की बात यह भी है-कितने जनप्रतिनिधि ऐसे हैं जो उद्योगपतियों के उद्योगों में अप्रत्यक्ष रुप से हिस्सेदार बनकर उन उद्योगपतियों के हितार्थ काम कर रहे हैं। बात साफ है कि कोई उद्योगपति अगर नेता को प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष हिस्सा देगा तो वह अपने संरक्षण के साथ कंपनी को आगे बढ़ाने के लिए उस राजनैतिक हस्ती का उपयोग करेगा- यहां पर अपने प्रतिस्पर्धी को पछाड़ने या उसको कसने की स्थिती का प्रयोग भी आश्चर्यप्रद नहीं लगता।
अगर आज भी एक मकान मालिक को अपनी इमारत को ठीक-ठाक व रंग करवाने के लिये क्षेत्रीय नेता की दादागिरी की वजह से गुण्डा टेक्स देना पड़े तो फिर परिवर्तन या बदलाव शब्द सार्थक कैसे लगेगा? यह सवाल वाजिब है कि गणतंत्र में गुण्डई का राजतंत्र जनता को कब तक सहना पड़ेगा? कम से कम बंगाल की जनता के लिए ममता जी को अपनी पार्टी के साथ साझेदार पार्टी के नेताओं व कर्मियों को नैतिक रूप से कसने की कवायद करनी होगी जिससे आम जनता की शिकायत ममता जी तक पहुंच सके- व तुरन्त ठोस कार्रवाई हो जाये कुछ ऐसी व्यवस्था तो बनानी ही होगी तभी आम जनता में अन्याय का विरोध करने की हिम्मत जगेगी और शायद तभी आम जनता के प्रति ममता की ""ममता'' पक्की लगेगी!

Saturday, September 10, 2011

"आप और वे'

वे आतंकवादी है
उनके मन में बारुद है
खून खराबें का जज्बा है
जान हथेली पर रख कर
वो अपना काम कर जाते हैं।
चिदम्बरम जी-आप गृहमंत्री है
आपके पास-
सुरक्षा परियोजनाओं
की फाइलें हैं,
फाइलों में भरे पन्ने हैं।
आप इनको तकिया बनाकर
चैन की नींद सो जाते हैं ।।
आतंकियों के पास जमीर नहीं है
वे निर्दोषों का खून कर जाते हैं.
जमीर आपके पास भी नहीं है-
आप अपनी जवाबदेही से
सीधे मुकर जाते हैं.
पीड़ितों के जख्मों पर
मरहम की जगह-
नमक-मिर्ची लगाते हैं।
जमीर की इस जमीं पर
"आप और वे'
कितने मिलते नजर आते हैं !
जो खून वो करते हैं
वो दिखता है ।
जो खून आप करते हैं,
उससे नैतिकता हर पल मरती है...
वो हम महसूस करते हैं।
वे आतंकी होने का
अपना कर्म निभाते हैं
पर
आप गृहमंत्री होने का
अपना धर्म कहां निभा पाते हैं?

सांसद हो या सामन्त?

जन लोकपाल बिल को संसद के पटल पर रखवाने बाबत गांधीवादी अन्ना हजारे के आन्दोलन के वक्त राजनीति के गलियारों से संसद की महत्ता व उसकी सर्वोच्यता की बयानगी पुरे जोर-शोर से सुनाई दी- पर वे लोग संसद की जड़ को ही भूल गये-क्योंकि संसद में जनता के द्वारा चुने हुये प्रतिनिधि बैठते है-अर्थात आधार जनता ही है- फिर भी जनता के आंन्दोलन को विवादास्पद बनाने की नाकाम कोशिश राजनेताओं ने की-वो यह भूल गये कि सांसद होने का अर्थ क्या है? जनता के प्रतिनिधि होने के नाते सांसद का कर्तव्य जन सेवक के रुप में अपने क्षेत्र की जन समस्या को उठा कर उसको समाधान की प्रक्रिया को बनाना होता है- पर अधिकतर मामलों में सांसद अपने कर्तव्य को छिटका कर सामन्त की भूमिका में नजर आते हैं। खुद को राजा समझने की यह भूल ही जनता को सड़क पर उतरवा देती है- फिर वे लोग (सांसद) संसद की दुहाई देते भागते से दिखते हैं। अन्ना ने जनता को अपनी ताकत का अहसास करवा दिया है अब भी अगर सांसद सामन्ती अंदाज में नजर आते हैं-तो उनकी उल्टी गिनती उनके संसदीय क्षेत्र में जनता के द्वारा तय है- क्योंकि जनता अपने वोट की कीमत ससम्मान लेना चाहती है सांसदों के सामन्ती दरबार में लाईन लगाकर हाथ जोड़कर याचना करना नहीं चाहती!
आने वाले वक्त में सांसदों-विधायकों व पार्षदों को अपने तौर तरीकों में बदलाव करने ही होंगे अन्यथा जनता चेहरों को बदल देगी क्योंकि जनता अब सामन्तवादी अदा देखना नहीं चाहती-उसे अपना प्रतिनिधि चाहिए जो उसकी आह और वाह को समझ सकता हो! आने वाला समय दलवादी राजनीति से ऊपर उठकर व्यक्तिवादी होगा- जनता राजनैतिक दलों को नहीं बल्कि व्यक्तित्व के आंकलन से फैसला लेगी- क्योंकि उम्मीदवार अगर योग्य, नैतिक व जुझारु होगा तो वो जनता के उस वोट की कीमत को तवोज्जों देगा न कि दल के फैसले को- और ऐसे व्यक्ति ही जनता के दिलों-दिमाग पर राज करेंगे!
अन्ना हजारे के आन्दोलन ने जनता को उसके लोकतांत्रिक अधिकारों की शक्ति याद दिला दी है... अब जब जनता जग गई है तो राजनीति को अपनी सूरत व सीरत दोनों बदलनी पड़ेगी
अगर उन्होंने अपना मिजाज नहीं बदला तो जनता अपना रिवाज बदल देगी- और नामी-गिरामी चेहरों की राजनीति से छुट्टी की घोषणा हो जायेगी।
मुझे तो लगता है कि पक्के राजनेता छुट्टी में जाने के बजाय अपने मिजाज को बदलना पसंद करेंगे-क्योंकि आखिरी सांस तक रिटायरमेंट से वो इस क्षेत्र में ही बच सकते है।

Saturday, September 3, 2011

मन क्यों नहीं मिलते?

जैन धर्मावलम्बियों का प्रयूषण पर्व (सम्वत्सरी) भी प्रायः दो दिन चतुर्थी व पंचमी को मनाया जाता है। भगवान महावीर के अनुनायियों का यह मतान्तर अपने अपने पंथ/सम्प्रदायों की वजह से दुःखद लगता है। सद्भावना, मेल-मिलाप, का संदेश देने वाले इस पर्व की महत्ता को कहीं न कहीं हमारे पंथ/ सम्प्रदाय के मत रुपी अहम् से हम खुद आहत कर रहे हैं। जैन धर्म के अनुयायी जब भगवान महावीर की वाणी पर चलते हैं तो फिर मतान्तर का प्रसंग तो आना ही नहीं चाहिए। भगवान महावीर के उपदेश तो सभी के लिए एक है- फिर सम्वतसरी के इस पर्व में श्वेताम्बर में, स्थानकवासी, मूर्तिपूजक, तेरापंथी में विभिन्नता क्यो? कितना सुखद होता जब पंथ सम्प्रदाय की रेखा से बाहर आकर इस पर्व को सब एक साथ महोत्सव के रुप में मनाते, मतान्तर के अहम् को मिटाते।
सम्वत्सरी पर्व पर जैन धर्मावलम्बी अपने प्रतिष्ठानों को बंद रखते हैं-इस दिन की महत्ता तप, जप, साधना के रुप में विशेष मानी जाती है-पर सवाल यह है कि प्रतिष्ठानो को बंद रख कर विशेष जप, तप, स्वाध्याय, मनन के रुप में इस दिन का सार्थक उपयोग कितने लोग करते हैं और कितने लोग सिर्फ दिखावे के लिये प्रतिष्ठान को बंद करके अपनी श्रद्धा को दिखाते है! गौरतलब यह भावना भी है कि एक दिन उपवास, स्वाध्याय करके कहीं हम ३६४ दिनों की मनमौजी स्वतंत्रता का मानस तो नहीं बना लेते?
धर्म न तो प्रतिष्ठान के बंद करने में है न सिर्फ समवसरण जाकर अपनी उपस्थिति दर्ज करने में है- अगर ये सब करने के बाद भी मन में द्वेष, क्रोध बना रहे- तब धर्म का यह रुप सिर्फ छलावा ही प्रतीत होता है।
अगर सजग रहकर कर्मशीलता बनी रहे तो वो कर्म ही धर्म बन जाता है। हमारे धर्म शास्त्रों में अजपा जप की बात आती है-और इस स्थिति में आदमी अपना कर्म भी करता रहता है पर अंदर ही अंदर जप भी चलता रहता है- वो स्थिति जब बन जाती है तो हर दिन संवत्सरी जैसा स्वतः ही बन जाता है। उपवास करके अगर समय काटने के लिये ताश के पत्ते फेंटे जाये या फिर वातानुकूलित सिनेमाघरों में फिल्में देखी जाये- तो उसको फिर धर्म या तप के रुप में हम इसको न समझे... कुछ लोग तो उपवास इस डर से करते हैं कि सम्वत्सरी को उपवास नहीं करने से लोग क्या कहेंगे? कभी-कभी तो उपवास न करके भी लोग यह कह देते हैं कि उपवास किया था।
धर्म मन से होता है- दवाबी धर्म तो दिखावा और खुद के लिए छलावा होता है। कुछ मिनट का विशुद्ध ध्यान अंतरात्मा को र्निमल बना सकता है और एक आसन पर घंटों तक की माला, जप तब बेकार हो जाते हैं जब ध्यान भटका हुआ होता है।
इस पर्व के साथ क्षमा-याचना का बड़ा महत्व होता है- तभी इसे क्षमा पर्व भी कहा जाता है- पर यहां भी अक्सर हाथ दिखावे के लिए जुड़ते हैं- मन में कैची फिर भी चलती है ।
अगर आपका मन क्षमा देना, या लेना किसी से नहीं चाहता तो दिखावे से परहेज करना चाहिए। हम भीड़ में तो गले मिल लेते हैं और थोड़ी दूर जाकर यह भी कह देते हैं कि समाज के सामने उससे मिलना पड़ा- भला ऐसा मिलना भी क्या जरुरी? जब दिलों में रहती है फिर भी दूरी... तो ऐसे मिलने की क्या मजबूरी है?
शायद इसलिये कि-
हमने रस्मों को
निभाते देखा है
आइने से खुद को
छुपाते देखा है
जिनके दिलों में
रंजिशें भभक रही थी
जमाने के सामने
उनको गले लगाते देखा है।