Friday, April 22, 2011

आभार आपका!

फर्स्ट न्यूज साप्ताहिक के पिछले अंक में फिर तीन सवाल के शीर्षक से प्रकाशित संपादकीय पर पाठक वर्ग की जबरदस्त प्रतिक्रिया के रूप में कुछ सुझाव लेकिन पूर्ण समर्थन मिला है। सबसे पहला फोन एक महिला पाठक का त्वरित टिप्पणी के रूप में आया- उन्होंने सच को परिभाषित करने के लिए बधाई देते हुए यह सवाल किया कि आपने अपने निकट जनों को भी नहीं बख्सा... उनके इस सवाल पर मैं एक पाठक की उस जागरूकता पर दंग रह गया जो शब्द संसार के साथ आपसी संबंध संसार से जुड़ी थी-अर्थात पाठक का दृष्टिकोण कितना विस्तृत है.... मैं उन तमाम् पाठकों का हृदय से आभार ज्ञापित करता हूं जो न्याय की तुला से शब्द और संबंधों को तोल कर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। यह सच है कि अपनों पर ही कलम चलाते वक्त मेरे हाथ नहीं कांपे थे... हॉं अपनी डेस्क से उस कागज को आगे बढ़ाते वक्त मन में सिहरन जरूर हुई थी पर मॉं शारदे के आशीर्वाद की वजह से मैं कड़ा निर्णय कर पाने और कलम का धर्म निभाने में सफल रहा था।

एक मुझसे गंभीर चुक हुई जिसको एक पाठक के फोन से मिली प्रतिक्रिया ने मुझे अहसास कराया.... वो भूल यह थी कि १० अप्रैल को ही श्री सच्चियाय माता जी की भक्ति का एक कार्यक्रम पद्दोपुकुर (भवानीपुर) में आयोजित था-जबकि मां सच्चियाय का प्राण प्रतिष्ठित शक्ति पीठ पास में ही है -फिर अलग से किराये के स्थान पर हुए इस आयोजन को मैंने अपने उस सम्पादकीय में नहीं समेटने की चूक कर दी। उन पाठक की बात सही थी- जब मैंने इस विषय को उठाया था तब इस प्रसंग को भी साथ में लेना था- यद्यपि मैंने जानबुझकर यह गलती नहीं की पर अनजाने में ही सही मुझसे भूल तो हो ही गई..... मैं इसके लिए फर्स्ट न्यूज के पाठक जगत से क्षमा चाहता हूं।

जिनके पास दौलत है-वे अपनी दौलत का प्रयोग या उपयोग अपने मन मुताबिक करने के लिए स्वतंत्र है- पर समाज के हित/ अहित का ख्याल रखते हुए कलम धर्म को निभाना हम कलमकारों का कर्तव्य बनता है। मैं जब भी ऐसे ज्वलंत प्रसंग उठाता हूं-तब मेरा मकसद अपने विचारों को थोपना नहीं रहता बल्कि मैं यह चाहता हूं कि हम पूर्वाग्रह से मुक्त होकर उस घटना प्रसंग पर चिन्तन करते हुए आवश्यक सुधार करने की प्रक्रिया का हिस्सा बने।

मेरे पास दो फोन उन आत्मीयजनों के आये जिनकी उस कार्यक्रम में अहम भूमिका थी जिनके लिए मैंने लिखा था- जिस अंदाज में इन दोनों महानुभाव ने मुझसे बात की मैं इसकी सराहना किये बिना नहीं रह सकता- मेरे उठाये प्रसंग पर बड़ी आत्मीयता के साथ बात करते हुए उन्होंने अपने सवालात् रखे। आलोचना से तिलमिलाते लोगों के अनुभव तो मैंने देखे हैं पर सहृदयता और आत्मीयता की मनुहार भरा फोन करके सुधारवादी दृष्टिकोण को सामने रखकर चिंतन पेश करने का नजरिया कम ही दिखता है- मैं अपने इन दोनों आत्मयीजनों की इस आत्मीयता के लिए धन्यवाद देता हूं। मुझे लगता है इस प्रसंग से हमारे आत्मीय रिश्ते और मजबूत हुए हैं और सच भी यह है कि आलोचक ही सबसे अच्छे मित्र होते हैं- इस लिहाज से मैंने भी मित्रता ही निभाई है।

कुछ सवाल जिज्ञासा के रूप में आये हैं-जैंसे (१) राजरहाट स्थित मॉं का प्राण प्रतिष्ठित मंदिर सार्वजनिक सम्पत्ति नहीं है- यद्यपि मंदिर के निर्माणकर्ता की तरफ से पूजा अराधना के लिए सभी के लिए दरवाजे खोल रखे हैं- फिर भी समाज को तो वेधानिक व्यवस्था बनाकर समर्पित नहीं किया है.....

दूसरा सवाल मेरे उस विषय पर आया है जिसमें मैंने किराये के स्थानों पर मूर्ति, फोटो को लाने ले जाने पर लिखा था।

तीसरा सवाल यह आया है कि जब मोरखाना में मॉं की प्राण प्रतिष्ठित मूर्ति है-तो फिर नवरात्रा महोत्सव में उस स्थान से अलग मंच बनाकर वहां पर फोटो रखकर आयोजन में लाखों खर्च करना कितना उचित है? ये रुपये निर्माण कार्य में अगर लगाये जाये तो भक्तों के लिए कितना उपयोगी हो सकता है?

अब आइये इन सवालों पर चिंतन करते है.... पहले मंदिर के सवाल को लेते हैं, यह सच है कि यह मंदिर समाज के एक परिवार के द्वारा बनाया गया है तथा एक अत्यन्त छोटे स्थान में नाम भी चिन्हित किया गया है। मंदिर की व्यवस्था का आधार वो ही है पर उनके अनुसार मां का यह मंदिर मां के सभी भक्तों को समर्पित है यहां सदस्य, अध्यक्ष, मंत्री के पद नहीं है और न ही यहां अपने नाम का प्रदर्शन करने की व्यवस्था है। हम सब इस तथ्य से अगर सहमत है कि नाम और पद की दौड़ ही विसंगतियों का कारक बनती है तब हमको बिना नाम और बिना पद की इस व्यवस्था का स्वागत करना चाहिए।

हां अगर हमको यह लगे कि मां की भक्ति में उनकी (मंदिर निर्माता) की व्यवस्था हमारे लिए बाधक बन रही है तब निजी/ समाज की सम्पत्ति का विषय जेहन में आ सकता है अन्यथा बिना नाम के भक्ति का भाव भरा मजा लेने के लिए स्वयं को समर्पित कर देना चाहिए। अगर हम मां को अपना समझते हैं तो मां का हर वो स्थान जहां मां निवास करती है वो हमारा अपना है- फिर निजी और समाज की सम्पत्ति का विचार आ ही नहीं सकता। मेरा निवेदन है कि हम अपने दृष्टिकोण को विस्तृत करे..... इतना संकल्प तो ले लेवे कि देवी-देवताओं और आध्यात्मिक प्रसंग में पद और नाम की भावना आने ही नहीं देंगें..... और गुप्त दान की परम्परा के पोषक बनेंगे। हमारा यह संकल्प हमारे इस जीवन को तो तृप्त करेगा ही वरन आगे के जन्मों के लिए भी सत्कर्म का रास्ता खोल देगा।

एक सवाल यह भी आया कि हम कहां-कहां रोकेंगे? अखबार खोल कर सिर्फ विज्ञापनों को पढ़ कर अंदाज लगाये कि दर्शन के नाम पर प्रदर्शन का प्रदूषण किस रूप में बढ़ रहा हैै? इस सोच को क्या कहां जाये... क्या हम प्रयास करने से पहले हथियार डाल दे? अगर गंगा मैली है तो क्या शुद्धिकरण का प्रयास नहीं होना चाहिए?

हम औरों को नहीं बदल सकते... पर खुद पर तो हमारा नियंत्रण है, स्वयं को तो विसंगतियों के खिलाफ तैयार कर सकते हैं। अगर हम विसंगतियों में सम्मिलित होना व उसको सर्मथन देना बंद कर दे तो चमत्कार हो सकता है पर पहल तो करनी होगी... चलना शुरू करेंगे तब तो मुकाम पर पहुंचेंगे- बिना प्रयास किये हथियार तो बुजदिल व निकम्में लोग डाला करते हैं... हमको इस पंगत में तो नहीं आना है।

अब दूसरे और तीसरे सवाल पर आते हैं - देवी मूर्ति/ फोटो को किराये के स्थान पर लाने और ले जाने से मेरा आशय मूर्ति/ फोटो की पवित्रता के ख्याल से था- स्थान की पवित्रता भी इसमें खास महत्व रखती है। बार-बार लाने और ले जाने से संशय तो रहता ही है। आप पाठक स्वयं समझदार है विषय की गम्भीरता पर स्वयं विचार कर सकते हैं।

इसी प्रकार प्राण प्रतिष्ठित मूर्ति से अलग मंच बनाकर वहां दुसरी फोटो/ मूर्ति रखकर विशेष आयोजन- लाखों का खर्च भी अगर सवाल बने तो इसे अनुचित नहीं कहा जा सकता- अगर स्थानीय गायक कलाकारों का उपयोग किया जाये तो कम खर्च में ही काम हो सकता है- साथ ही साथ देवी- देवता की ऐतिहासिक गाथा का वाचन करने की परम्परा खास महोत्सव में अगर जोड़ दी जाए तो नई पीढ़ी के हृदय में श्रद्धा व आस्था के फूल खिल जायेंगे। हमने यह बात बचपन से सुनी है कि देवी- देवता तो भाव के भुखे होते हैं और भाव तो मन से आता है- जिसका श़ृंगार आस्था होती है- फिर ऊपरी चमक-दमक का प्रर्दशन कितना उचित है?

हमको निर्माण के काम करने चाहिए- जैसे विशेष आयोजन में भक्तों को ठहरने के लिए अगर कमरों की कमी महसूस होती है तो हमारा धन उस कमी को पूरा करने हेतु अनाम खर्च होना चाहिए।

इसी प्रकार उन रास्तों को अच्छा बनवाया जाना चाहिए- जिन रास्तों पर भक्त अपनी आस्था की ध्वजा लेकर नंगे पांव आते हो... वहां पर भक्तों की सुविधा हेतु उचित व्यवस्था होनी चाहिए...।

पैसा खर्च उस प्रकार होना चाहिए जिसकी आवाज वर्षों तक होती रहे- चार घंटे की चांदनी - फिर अंधेरी रात की तर्ज पर पैसा खर्च नहीं होना चाहिए।

अगर आपको पता चले कि मां का कोई सच्चा भक्त अगर किसी दुविधा में है तो आप उसको पता तक नहीं चलने दीजिए और उसकी दुविधा को कम करने का प्रयास मां की आज्ञा मानकर कर दीजिए... इससे बड़ी मां की आराधना नही हो सकती...

विडम्बना यह है कि हम सब उचित-उनुचित जानते हैं पर नाम और पद की चमक-दमक में जानबुझ कर भूल जाते हैं... आखिर कब तक स्वयं से स्वयं को छलते रहेंगे?

समाज के आम वर्ग की आंखों में चंद घंटों की चांदनी के रुप में दौलत का नाच खटकता है- उन दृश्यों के सामने उसका अपना अभाव उसको चिड़ाता सा प्रतीत होता है- अगर उसने अपना धीरज खो दिया तो उस विद्रोह को क्या दौलत दबा पायेगी?

दौलत को दम्भ के प्रर्दशन के रूप में उछालने से पहले समाज के आम वर्ग के अभाव को महसूस कर लीजिए... शायद आपका मन बदल जाएगा और दौलत को नचाने वाले हाथ रुक जायेंगे..!

कुल मिलाकर खुले दिलों-दिमाग से विचार करते हुए एक आदर्श आचार संहिता बनाने का प्रयास हो... यह मंगल कामना करता हूं ।

नीरज की ये पंक्तियां मुझे याद हो आई है-

मैं अकेला ही चला था मगर

लोग साथ जुड़ते गये....

और कारवां बनता गया ।

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