Wednesday, December 31, 2008

बहारो को सलाम

सूरज की पहली किरण को सलाम
भोर की नवेली दुल्हन को सलाम
उजालो की हर मूरत को सलाम
घूँघट में छिप्पी उसकी सूरत को सलाम
और
ब्लोगेर्स की सब मस्त बहारो को सलाम
कलम के हर नजराने को सलाम
शरारत के हर तराने को सलाम
मोहब्बत के हर दीवाने को सलाम
"सलाम "
संजय सनम

Tuesday, December 30, 2008

कुछ लिख दे |

वर्ष के आखिरी पन्ने पर कुछ रंगीन अंदाज लिख दे ,मन गर भारी भी हो तो भी खुश मिजाज लिख दे

आने वाले के लिए हम अपने अहसास लिख दे ,सफर के लिए कदमो की मस्त फलांग लिख दे

हमसफ़र वो बन रहा है हम उसे अपना रिवाज लिख दे, अपनेपन का रखना है वो लिहाज लिख दे

इस आखरी पाने पर दुओं की किताब लिख दे ,करना है जो- इन्कलाब लिख दे

और कुछ न लिख सके तो गुजारिश है कि मोहब्बत के अल्फाज लिख दे -फ़िर आप अपना ख्वाब लिख दे

वक्त को कह दे कि अब वो आपका मंजिल- ऐ मुकाम लिख दे

Monday, December 29, 2008

शुभकामना


नव वर्ष
की
आहट
मस्त
गुनगुनाती रहे
मुस्कानों के झरनों
में
मस्ती
नहाती रहे
भूल जाए
सब
दर्द के जलवे
खुशिया
जश्न
मनाती रहे
"शुभकामना "
संजय सनम

Wednesday, December 24, 2008

घडा पाप का भर गया है

पाक
को
भारत मे
आतंक फैलाने का
सबूत चाहिए ,
पर भारत को
पाक मे
बसे
आतंकियों के
ताबूत चाहिए
जब बात
बातो से
बन नही रही है
शायद तब
शरहदों पर
गर्मी बढ़
रही है
मटका पाप का
उसका इतना
भर गया है ,
की हिसाब
चुकाने के
लिए भारत का
मन अब
बन
गया है

संजय सनम

Monday, December 22, 2008

खडग उठाना अब जरुरी है


पाकिस्तान ने अपनी बदनीयती एक वारफ़िर आतंकी मामले में पुख्ता सबूत न मिलनेकी बात कह कर दिखा दी है जरदारी जिस तरह से जुबान पलट रहे है उससे यह साफ लगता है की पाक सरकार के हाथ भी मुंबई के घटना क्रम में बेगुनाहगारो के खून से रंगे हुए है_जरदारी के सफ़ेद झूट का फट्टा कपड़ा जिस तरह नवाजशरीफ ने उठाया है उसने पाक की लिपा-पोती की काली करतूत को नग्न कर दिया है पर जो बेशरम होते है वे भला नग्नता से कब डरते है ?बेशर्म जरदारी अब भी आँख मिचोली कर रहे है इन हालातो में हमारी चुपी हमारे मिजाज पर भी सवाल उठा सकती है क्योकि इतना कुछ भोगने के बाद भी हम प्यार की बात कर रहे है शैतानोके सामने सदभावनाकी बिन बजाना हमारी बुद्धि पर सवाल उठा रहा है_कभी कभी तो एसा भी लगता है की हमरा बहु बल शायद कमजोर इतना पड़ गया है की हम अपनी सुरक्षा के लिए भी खड़े नही हो पा रहे है आख़िर हमारी सहनशीलता की इस हदकी वजह और क्या है?क्यो नही हम खडग अब उठा लेते ?हम उसके अंदाज को क्यो नही समझ पा रहे है?

गिरगिट की तरह वो रंग बदल रहे है

शब्दों के वो अर्थ बदल रहे है

झूटी उसकी हर धड़कन

फ़िर क्यो हम ?

उसकी नब्ज पकड़ रहे है

हमारी यह मानसिकता हमसे ही सवाल ker रही है कीहम क्यो नही उसके नापाक हाथो को अपनी जमीन पर बारूद फैकने के लिए नही रोक पा रहे ,सिर्फ़ विरोध प्रकट करने या विश्वा मंच को बतला ने से अगर समस्या सुलझ जाती तो अब तक हमको अपने जख्मो को दिखाना न पड़ता पर हमारी खामोशी ही हमारा जब गुनाह बन गई हैतभी तो उसकी बदमाशी हम पर कहर मचा रही है आज आवश्यकता तो इस बात की है की हम पाक को यह संदेसा भेज दे की-

तेरी सीमा पर

अब गुब्बार उठने वाला है

ऐ पाक

तेरी मस्तानी को

चूर -चूर करने

अब हिंद

आगे बढ़ने वाला है

विश्वा मंच को भी हम अपना संदेश दे दे -

मत कीजियेगा फ़िर

आप हमसे शिकायत

हमने तो रखी थी

मुद्दतो तक शराफत

अब उसको दिखलाते है

होती कैसी है क़यामत ?

कल में नुक्ता-चीनी के ब्लोगर के उदार भावःआतंकी कसाब के लिए पढ़ कर दंग रह गया,मानवाधिकार की बात हमशा पिडीत के लिए ही उठनी चाहिए -उसके लिए कभी नही जो निर्दोषों के कत्ल का गुनहगार हो जिसके हाथ खून से रंगे हुए है फ़िर भी अगर हम उसके प्रति सहानुभूति की बात केरे तो यह उन लोगो के लिए अन्याय होगा जो इन वहशी तत्वों के शिकार हो चुके है वैसे भी पागल कुत्तो के साथ कोई रियायत नही बरती जाती क्योकि वो रियायत का महत्व नही समझते में मानवीय संवेदना को स्वीकार करता हूँ पर इतनी अधिक भावुकता पर अपना विरोध प्रकट करता हूँ

संजय सनम

Sunday, December 21, 2008

युद्ध कितना जरुरी है

पाकिस्तान की सरजमी भारत में आतंक का खोफ फैलाने के लिए खुलें आम प्रयोग हो रही है यह जानने के बाद भी हम उसे वो जबाब नही दे पा रहे है जो वक्त का तकाजा है यधपि पुरा विश्वा पाक को चतावनी दे रहा है पर बाहरी दिखावे के अलावा वहा कुछ खास कहा हो रहा है? बेशक हम लड़ना नही चाहते पर इस ड्रामे वाजी को और अधिक सहन भी तो नही क़र सकते शायद इसलिये युद्ध होना जरुरी है पर वो पाकिस्तानी अवाम से नही वरन सिर्फ़ आतंक वाद से है -हम चाहते है की पाक अवाम हमारी भावना को समझे व अपने हुक्मरानों को सही निर्णय लेने के लिए मजबूर करे क्योकि जखीरा बारूद का कहर कही भी बरपा सकता है अगर आग बारूद के उन गोदामों में लग गयी तो फ़िर पाक आवाम का क्या होगा ? ?हमारी चिंता सिर्फ़ अपनी नही बल्कि पाक आवाम की भी है और इसलिए निवेदन अब पाक आवाम से है की अपने आशियाने को जरा सम्हाल लीजिये क्योकि बारूद के सोदागर अपना घर बनाने लग गए है जहा अमन की समां जलारखी है आपने - वहा वो मातम के गीत गुनगुनाने लगे गए है जख्म हमारे आपको यह बताने लग गए है की शैतानो को शह आप क्यो दिलाने लग गए है ?
संजय सनम

Monday, December 15, 2008

आभार आपका |

मेरे ब्लॉग पर आपकी भावनाओ की आह्ट ने मुझे रोमांचित किया है पर आपको जबाब पहुचाने का पथ मुझे नही मिला इसलिए सयुक्त रूप से ही जबाब देना पड़ रहा है --हां अपना मोबाइल नम्बर दे रहा हूँ -०९४३४०-२७३८१ पर आप सम्पर्क कर सकते है
शायद हम एक पथ के राही होने की वजह से बहुत दूर तक साथ भी चल सकते है अर्थात हमराही हो सकते है अगर साथ अच्छा हो तो रास्ता आराम से कट जाता है व मंजिल -मुकाम भी जैसे चलते -चलते मिल जाता है
मै आपकी इस आह्ट को तहे दिल से पुन; सलाम करता हुवा अपनी मंगल भावना समर्पित करता हु
आपका -सनम

Sunday, December 14, 2008

धूम धड़ाका कितना जरूरी है?

संजय सनम
आ रहा नववर्ष... पर क्या आगाज धूम धड़ाके के साथ ही होना चाहिए। जब देश में आतंकियों के बारुद ने मौत का तांडव मचा रखा हो क्या इस माहौल में डिस्को की तर्ज पर कान फोड़ू संगीत की धुन पर थिरकते हुए ही नववर्ष का अभिनंदन किया जा सकता है? मानवीयता के नाम पर शोक विहल उन परिवारों के साथ क्या हम इतने भी खड़े नहीं हो सकते कि कम से कम जश्न की आवाज को तो धीमा कर दे। जो उनकेसाथ हुआ क्या उसके दर्द को हम महसूस नहीं कर पा रहे हैं गर ये हालात हमारे आस पास हुए होते तो क्या हम जश्न की धूमधड़ाके की तर्ज को याद रख पाते? बड़ा दुख होता है जब जवाब में यह सुनने को मिलता है कि मुंबई में जो कुछ हुआ उससे हमको क्या लेना देना, क्या वे लोग हमारी खुशी गम में शरीक होते हैं, फिर हम अपने मनोरंजन के लिए क्यों नहीं झुमें-गायें?बेशक आपकी खुशी-गम में मुंबई के वे लोग नहीं आते पर मानवीयता का जज्बा तो हर उस इंसान से आप तक जरूर पहुंचता है जिसके अंदर इंसानियत की आवाज हो। काश मेरे ये दोस्त "दुआ' की ताकत व जख्मों की पीड़ा को समझते तो वे हजारों किलोमीटर दूर रहकर भी उन अनजानों पीड़ितों के जख्मों पर दुआ का मरहम लगाकर मानवीयता का धर्म निभा सकते हैं।पर हमने अपने आपको अपनी खुदगर्जी की चारदीवारी के अंदर ही समेट लिया है। शायद इसलिए हम अपने आपको विस्तृत करके खुद को सबका नहीं कर पाये पर एक बात तो जरूर उन लोगों को सोचनी होगी कि "अगर हम सबके नहीं हो सकते तो फिर हमारा कौन होगा?'मुंबई हमले के बाद हमारे मुस्लिम भाईयों ने अपना पर्व अत्यंत सादगी के साथ मनाते हुए आतंकी चपेट में आये परिवारों के प्रति दुआ अता की, इसे ही इंसानियत का पाठ कहते हैं। जो हमारे मुस्लिम भाइयों ने कर दिखाया है।पर्व पर उत्साह की घेराबंदी रहे पर हम हालातों को देखकर कुछ वैसा ही रंग लगाये तो फिर वो रंग सकून देता है अन्यथा वो आंख में चुभने लगता है।नववर्ष का अभिनंदन गर्म जोशी के साथ हो पर इसके लिए कुल्हे मटका कर सर को फटा सा देने वाले संगीत की तर्ज पर मचलना थिरकना तो आवश्यक नहीं है। जो हालात हम सुन, पढ़ रहे हैंं क्या उन हालातों में प्रार्थना के स्वरों में आने वाले आगत का स्वागत नहीं किया जा सकता?अगर आज हम उन लोगों के दर्द को नहीं समझ पा रहे हैं जिन लोगों ने पिछले दिनों आतंकी हमले में बहुत कुछ खोया है॥ तो हमारा अपना जश्न एक दिन हमसे सवाल पूछ सकता है कि आंसूओं की तासीर कैसी होती है?हम उनके दर्द को बंटा तो नहीं सके पर आंसूओं से भीगी उन आंखों के सामने जश्न का वो नाच तो न दिखाये जो उनको चिढ़ाता सा दिखे।मेरा निवेदन है कृपया हम अपनी खुशी के प्रदर्शन का तरीका हालातों के आधार पर बदले। हमें खुशी मनाने का अधिकार है पर संवेदना को चोटिल करके झुमने-नाचने का कतई नहीं। इन हालातों में भी अगर हम जश्न के अंदाज को सादगी के रंग से रंगीन नहीं कर रहे हैं तो इंसानियत के उसूल का अतिक्रमण ही कर रहे हैं।अगर हम ऐसा करते हैं तो मैं इसे मनोरंजन नहीं बल्कि खुदगर्जी की मानसिकता कहूंगा.... क्योंकि आपसे हजारों किलोमीटर दूर अगर इंसानियत के पखरचे उड़ते हैं और आपको कोई फर्क नहीं पड़ता इसका सीधा सा अर्थ है कि आप सिर्फ उस पीड़ा को ही महसूस करते हैं जो आपको हुई है इसके अलावा बाहरी पीड़ा आपके लिए कोई अर्थ नहीं रखती।लगता है कि संवेदना की तलैया एकदम सुख गयी है अन्यथा एक बगिया के उजड़ने का दर्द दूसरी बगिया का बागवां जरूर समझता।एक आदमी के दर्द को अगर दूसरा आदमी नहीं समझ रहा तो फिर शिकायत किससे की जा सकती है? आतंक से भी अधिक स्थिति खतरनाक हमारी खुदगर्ज सोच है अगर ये हमले लगातार हो रहे हैं तो इसका एक अहम कारण हमारी मानसिकता की यह कमजोरी भी है। कोई मरे तो मरे, रोये तो रोये, पर हम अपने जश्न का कोई अवसर पीड़ित मानवता के लिए छोड़ना नहीं चाहते। हमारी यह सोच हमारे आस पास होने वाले विस्फोट की खाई बना रही है क्योंकि वे लोग हमारी इस कमजोरी का लाभ उठाने को तैयार बैठें हैं पर तब क्या हम ता ता थैया... करते रह पायेंगे?अब भी अगर आपका जमीर जश्न के उस अंदाज की इजाजत देता है तो आप अपनी चाहत को जरूर पूरा कीजिए, पर मुझे इस पर अपना विरोध अंकित करने की इजाजत भी दीजिए। मैं इन हालातों में जश्न के इस धूम-धड़ाके के अंदाज पर अपना विरोध प्रगट करता हूं।

Wednesday, December 10, 2008

प्रणाम जनता

संजय सनम

राज्यों के विधानसभा चुनावों के चुनाव परिणाम ने यह जता दियी है कि मतदाता अब स्टार प्रचारकों व लोकलुभावन नारों व वादों के शिकार नहीं होते बल्कि अब वो सरकार के काम काज की समीक्षा करके मतदान केंद्र पर जाने लगे हैं। वास्तव में देखा जाये तो मतदाता की यह समझ लोकतंत्र के लिए एक नई नींव का रूपक बन रही है और हमारे आकाओं के लिए चेतावनी का काम भी कर रही है कि अगर काम करोंगे तो वोट पाओगे नहीं तो लोट जाओगे।महत्वपूर्ण यह नहीं है कांग्रेस कितनी जगह जीती या भाजपा कितनी जगह पर। हमको इन पार्टियों की विजय-पराजय की गिनती नहीं करनी वरन हमें यह देखना है कि जनता ने क्या जनता के लिए काम करने वालोे के साथ न्याय किया है? विवेचन तो इस बात का महत्वपूर्ण है कि जनता कहीं भावनाओं के प्रवाह या प्रचार के तामझाम में तो नहीं चली गयी। विधानसभा चुनावों के ये आये परिणाम इस बात का सकून देते हैं कि जनता के ऊपर न तो पार्टी का प्रभाव पड़ा है न ही स्टार प्रचारकों के लच्छेदार भाषणों का। जहां सुशासन दिखा वहां जनता ने उसे पुनः स्वीकार किया जहां कुशासन दिखा उसको उसने खारिज किया अर्थात मतदाता ने अब अपने "वोट' की कीमत समझी है और अपने इस अधिकार का सही रूप से उपयोग किया है। उनका यह उपयोग अब राजनीति में नये संयोग दिखलायेगा कि जनता के दरबार की नौकरी अब काम करने वालों को ही मिलेगी, जो काम नहीं करेंगे उनको जनता सस्पेन्ड करती दिख रही है। जनता की इस समझ को दिल से प्रणाम करना चाहिए।

Tuesday, December 2, 2008

"विसर्जन' को मजाक मत बनाइये

संजय सनम

तेरापंथ समाज को समर्पित

जैन संस्कृति में श्रावक समाज के लिए "विसर्जन' शब्द की अपनी महत्ता है तथा इस शब्द की विशिष्टता अर्जन के साथ विसर्जन की उस परम्परा का बोध करवाती है-जो समाज की विभिन्न गतिविधियों के अंतर्गत कमजोर तबके के लोगों को शक्ति प्रदान करने में अहम भूमिका अदा करता है।पर इस "विसर्जन' शब्द की महत्ता, प्रायोगिकता व उपयोगिता का अर्थ अगर कार्यकर्ताओं की जमात ही भूल जाये तब विसर्जन का यह उपयोग मजाकिया हो जाता है। "विसर्जन' के इस कार्य में समाज के जो लोग अपना समय समाज के लिए प्रदान करते हैं उनके इस नियोजन को मैं हृदय से प्रणाम करता हूं, पर जब कोई कार्यकर्ता "विसर्जन' का अटारा लेकर दांव पेंच का इस्तेमाल करने लगता है तब उस कार्यकर्ता केहाथ से "विसर्जन' शब्द आहत् हो जाता है। "विसर्जन' शब्द की महत्ता तो गुपचुप दान (गुप्तदान) के रूप में होनी चाहिए, पर इसका स्टाइल तो अत्याधुनिक हो गया है। अब कार्यकर्ता स्वयं घरों में जाते हैंंं तथा अपनी श्रद्धा के अनुसार १०० रुपये से लेकर ऊपर आपकी इच्छा के मुताबिक विसर्जन की रसीद कटाने का आग्रह करते हैं। जब मैंने उनसे यह पूछा कि यह तो गुप्तदान के रूप में होना चाहिए, इस तरह रसीद काटने का उपक्रम मुझे समझ में नहीं आ रहा था, तब उन्होंने मुझे समझाने के अंदाज में कहा कि घरों में जा कर रसीद कटाने से तात्पर्य इस बात का भी है कि अगर कोई परिवार की आर्थिक स्थिति १०० रुपये देने की भी नहीं हो तो समाज की जानकारी में उस परिवार की स्थिति आ सके तथा समाज उस परिवार के लिए अपना आवश्यक दायित्व वहन कर सके। मुझे उनके इस जवाब में समाज के कमजोर वर्ग के प्रति समाज की प्रतिबद्धता की भावना तो अच्छी लगी, पर विसर्जन की रसीद के माध्यम से ही आप इनका डाटा जुटा पाये यह तर्क युक्ति संगत नहीं लगा। क्या किसी की कमजोर स्थिति सामने लाकर ही आप उसे जान सकते हैं... या उससे समाज के चार कार्यकर्ताओं के सामने यह कहलवाकर कि उसकी आर्थिक स्थिति १०० रुपये के विसर्जन की रसीद कटवाने की नहीं है, क्या तब हमारा समाज उस परिवार को अधिक जान पायेंगा? अगर कमजोर के मन में उसकी कमजोरी की हीन भावना को जमाकर फिर उसकी सहायता के लिए हम खड़े भी हो जायें तब भी क्या उस परिवार के मन की उस व्यथा को मिटाया जा सकता है? जो अपनी प्रक्रिया के अंतर्गत समाज के द्वारा उसको दी गयी है। खैर... यह भी विसर्जन की प्रक्रिया का एक वैचारिक पक्ष है पर अब मैं उस पक्ष पर आना चाहता हूं जिसकी इजाजत तो परम्परा कतई नहीं देती।"विसर्जन' का कोष जुटाने वाले कार्यकर्ता अगर एक व्यक्ति का नाम दूसरे व्यक्ति के सामने लेकर मनोवैज्ञानिक पासा फेंकने का कार्य करने लग जाये तथा यहां भी अगर सफेद झूठ का प्रयोग करने में भी कार्यकर्ता न हिचकिचाये तो सवाल उठता है कि विसर्जन की झूठ से भारी पोटली उठाने के लिए हमने संस्कारों की विरासती पोटली को कहां फेंक दिया? किसी व्यक्ति का नाम लेकर आप दूसरे व्यक्ति को उसकी झूठी रकम बतलाकर व उस व्यक्ति को मनोवैज्ञानिक रूप से मजबूर करके रसीद काटने की अगर कुटिल चाल चलते हैं...तो "विसर्जन' की मयार्दा से पहिले आप इस पोटली को उठाने का अधिकार भी खो देते हैं तथा वो व्यक्ति जो आपकी छद्म चाल से ठगा जाता है... उसके मन में आपकी यह करतूत "विसर्जन' को नासूर बना देती है। जहां संस्कार निर्माण की कार्यशालाओं का आगाज हो... वहां संस्कार निर्माण की धज्जियां अगर समाज के कार्यकर्ता ही उड़ाते दिखे तो फिर बतलाइये क्या गरिमा रहेगी उन कार्यशालाओं की तथा क्या उपयोगिता रहेगी "विसर्जन' के इस उपक्रम की। मेरा यह आलेख विशेषकर जैन समाज के "तेरापंथ' समाज को समर्पित है जहां विसर्जन के प्रक्रम की रफ्तार तो बहुत तेज है पर इस गाड़ी मेंंं पारंपरिक संस्कारों के कल पूर्जे ढ़ीलें हैं जो विसर्जन को "विष-अर्जन' बना रहे हैं। इसलिए आवश्यक है कि विसर्जन की प्रयोगिकता से पहिले उसके व्यवहारिक तौर तरीकों को कुछ इस तरह से बनाया जाये जिससे न सिर्फ जैन बल्कि अन्य समाज के लोग भी इस पुनीत उद्देश्य में उत्साह के साथ सम्मिलित हो सके पर विसर्जन का ढिंढोरा न पिटवाये कम से कम यह क्षेत्र तो बिना नाम के काम का छोड़ दिया जाये जिससे उस कोष में अपनी सामर्थ्य के अनुसार १०० रुपये देने वाला भी बिना किसी हीन भावना के वह गौरव अनुभूत कर सके तथा हजारों देने वाले भी अपने नाम के अहंकार से बच सके। लेखक-पत्रकार होने के नाते मैंने इस सत्यता को आवाज देने का धर्म निभाया है अगर आपको यह सच स्वीकार योग्य लगे व आप इस पर समुचित मंथन करें तो मुझे आत्मसंतोष मिलेगा। अगर आप इस सच को पचा नहीं पाये और मेरे प्रति विद्वेष पनपे... तो ख्याल रखें कि जिस जमीन पर हम खड़े हैं उसके आदर्श हमें क्या कहते हैं? मेरा धर्म सच को बिना लाग लपेट के सरल शब्दों से पाठक वर्ग तक पहुंचाना है, मैं अपना धर्म निभा रहा हूं। क्या आपसे आशा कर सकता हूं कि आप भी अपनी जवाबदेही का धर्म निभायेंगे?

Sunday, November 30, 2008

उनकी भावना को सलाम!

आतंकियों के सामने लोहा लेने के लिए जाबाजों की आवश्यकता होती है और उनकी शहादत का शौक व्यक्त करने के लिये आकाओं से पहले उनके कुत्ते सुंध कर जाते हैं अर्थात शहीद जाबांज के घर परभी हमारे राजनेता अपने कुत्तों को भेजकर जब तक आश्वसत नहीं हो जाते तब तक नहीं आते। उनकी जान की कीमत हमें तब समझ में आती है और उन जाबांजों की शहादत का मोल भी हमें तब पता चलता है कि सियासत की इस बिसात में हमारे ये शेर सिर्फ मोहरे ही होते हैं जिनको राजनीति स्वयं अपने आतंक के प्यादों से मरवाती है तथा फिर शौक व्यक्त करने के लिए पहले अपने कुत्तों को भिजवाती है। बहादुर बेटे का बाप तो बहादुर ही होगा और उसने अपने बेटे की वीरता का सम्मान अपने घर के दरवाजे को राज्य के मुख्यमंत्री के लिए बंद करके रख लिया। उसकी यह बहादुरी न सिर्फ वर्तमान राजनीति व उनके आकाओं के मुंह पर तमाचा है वरन यह संदेश भी है कि उनके कलेजे के टुकड़े अपनी जान इस देश की माटी के लिये ही दे सकते हैं न कि राजनीति की शतरंज में मोहरा बनाने के लिए। उधर शहीद हेमंत करकरे की पत्नी ने मोदी सरकार द्वारा दिये गये एक करोड़ का चैक अस्वीकार करके यह दिखा दिया है कि शहादत की कीमत न तो रुपयों की गठरी से तोली जा सकती है न ही उसका बखान शहीद के परिवार के जख्मों को भर सकता है। जब तक राजनीति अपने स्वार्थ के लिए देशहित को अनदेखा करना बंद नहीं करेगी तब तक जाबाजों की बलि यूं ही लगती रहेगी। शहीद परिवारों का यह विरोध अगर जन चेतना का रुपक बनकर राजनेताओं को उनकी कुर्सियों से उठाने लग जायेगा तब ये जमात यह सोचेगी कि जनता की ताकत का जायका कैसा है?अगर हमारे दिल में हमारे उन जाबांजों के प्रति सम्मान है तो हम अपने मोहल्ले में राजनेताओं के खिलाफ हल्ला बोले और उन्हें समझा दे कि आगे क्या हो सकता है। जनता क्या कर सकती है। जब हर गली-मौहल्ले में राजनेताओं को घेरा जाने लगेगा तब राजनीति का समूचा तंत्र चाहे सरकार हो या विपक्ष हो वो एक दिन जनता के जाल में होंगे और फिर वो ही होगा जो जनता चाहेगी। अर्थात अब प्यादे हमारे नेता होंगे और चाल चलने वाली जनता होगी। अब तक की बेशर्म राजनीति को शायद यह कड़ी सजा होगी। शहीद परिवारों की भावना के साथ इस देश के ११२ करोड़ के लोगों की भावना को जोड़ते हुए राजनीति के प्रति उनके इस विरोध को सलाम करता हूं। संजय सनम

Thursday, November 27, 2008

क्या उसे""बूम'' कहते है?

जब विश्व के शेयर बाजार एक के बाद एक पायदान चढ़ते नजर आ रहे थे तथा भारतीय शेयर बाजार का सूचकांक इक्कीस हजार के स्वप्निल आकड़े को पार कर गया था ...तब हर कोई भारतीय अर्थव्यवस्था की मजबूती के गीत को गाते हुये इसे ""बूम'' बतला रहा था । पर एक वर्ष की इस अवधि में वो बूम की धुम जाने कहॉ गुम हो गई ? अर्श से फर्श पर अर्थव्यवस्था का प्रतीक शेयर बाजार क्यों आ गया और बूम की उस बयार के बीच मंंदी का तूफान कैसे छा गया -आज यह सवाल आम नागरिक को कचोट रहा है ... आखिर उस सड़क पर हमारी फिसलन की वजह क्या थी ? मै किसी अर्थशास्त्री के वक्तव्य को अपने इस आलेख का हिस्सा नहीं बनाऊंंगा ...क्योंकि अगर उनकी गणित व आकलन में दम होता तो खतरे की इस घंटी का संकेत वो पहले ही दे देते । आसमान में बादल उमड़ने के बाद तो बारिश का आकलन हर कोई कर सकता है -पर तेज धूप में बारिश की अगर कोई भविष्यवाणी करे और फिर पानी बरस जाये तो वास्तविक आकलन कर्ता तो वो ही होता है ।मेरी नजर में अर्थशास्त्रियों की जमात न तो कल यह बता पाई थी कि भविष्य में यह तूफान आने वाला है ।-और न ही इनके पास आज की उलझन का सटीक जवाब है और आने वाला कल केैसे होगा न वो यह बता सकते है -इस लिये मै उनकी और आपका ध्यान ले जाना उचित नही समझता ! कभी-कभी बातचीत में कोई विचार आपकी सोच पर जमी परतों को हटाया हुआ आपको यह समजा देता है कि आप जिस सोच की स्वप्निल दुनिया को अतीत का सच मानकर अब तक उसका बोझ ढो रहे है -दरअसल वो सच तो कभी था ही नही ! कुछ दिन पूर्व महानगर के प्रतिष्ठित ज्वेलरी प्रतिष्ठान नेमीचंद बामलवा एण्ड सन्स में प्रतिष्ठान के निर्देशक बच्छराज बामवाला के साथ एक मुलाकात के दौरान अर्थजगत की इस मंदी के बारे में चर्चा चली तो बातचीत के इस क्रम में श्री बामलवा ने जिस सरल शब्दावली में अर्थव्यवस्था की रूपरेखा को व्याख्ति किया.. उस परिभाषा से कोई असहमत हो ही नही सकता! वर्ष२००७ में जब शेयर बाजार शिखर पर था -क्या तब अर्थव्यवस्था में बूम थी ? श्री बामलवा का जवाब था जब उस वक्त बूम का यह शब्द सुनने को मिलता ... तब मै यह सोचता कि क्या मुकेश अंबानी अगर अपनी पत्नी को हवाई जहाज उपहार में दे या कुछ ओद्यािेगक घराने विदेशी कंपनियों के अधिग्रहण का इतिहास लिख डाले - उससे क्या भारतीय अर्थव्यवस्था का चेहरा इतना चमक जाता है ..कि हम बूम का ही गीत गाने लग जायें । बूम तो तब कहा जा सकता है जब आपके कयालय के चपरासी की आर्थिक स्थिति में सुधार अगर आप आया हुआ देखें -अर्थात सुधार तो जड़ से होना चाहिये ---और वो सबसे पहिले करोड़ोंें की तादात में उस गरीब तबके में दिखना चाहिये । अगर वहॉ की लाइफ स्टाइल में आपको चमक दिख जाये तब समझिये की आपकी अर्थव्यवस्था अब सोना उगलने लगी है । अगर ११५ करोड़ की इस आबादी में चमकने वाले अंगुलियों के पैरों पर गिने जा सके -तो आप इसको अर्थव्यवस्था की मजबूती का गा्रफ नही मान सकते .....पर हमने उस स्वप्न को भी सच माना ....जो सच था ही नही शायद तभी आज उसकी हकीकत का कड़वा स्वाद हमे कुछ अधिक तकलीफ दे रहा है । दरअसल भारत की अर्थव्यवस्था में तब भी वास्तविक बूम नही था जब शेयर बाजार इक्कीस हजार के शिख़र पर था... पर हमने सिर्फ पर्दे के सामने दिखाई जा रही चमक को देखा ...पर्दे के पीछे की वास्तविक हकीकत पर नजर डालना ही भूल गये -और वो भूल ही आज के दर्द की टीस बन कर ""बूम'' का अर्थ पूछती है ।श्री बामलवा अर्थशास्त्री नहीं है इसलिये उनका जवाब आर्थिक परिदृश्य में मानवीय लगता है। और उनके इस विचार को मान्य स्वीकृति मिलती है।े

ब्लेकमेल किसे कहते है?

किसी बेबस की आवाज उठाने उसके अधिकार की रक्षा के लिये उसके साथ खड़ा होने पर तथा उठाये आपके सवालो को ब्लेक मेल की संज्ञा अगर दे दी जाय तो जरूरी हो जाता है ""ब्लेकमेल'' की वास्तविक परिभाषा बतलाना। मैंने एक बेबस महिला की करूण कहानी सुनकर संबाधित पक्ष से मिलकर यह कोशिश की थी कि बातचीत से यह मसला सुलझ जाये तथा पीड़ित पक्ष को स्वाभिमान के साथ जीवन जीने का पथ मिल जाये। मैंने उस संबाधित पक्ष से सवालो की कड़ियों के बीच बार बार यह निवेदन भी किया था कि दायित्व बोध की कड़ियों से बंधे इन रिस्तों की कड़वाहट को मै प्रकाशित करना नही चाहता- लेकिन अगर आपने अपनी हठधर्मिता नही छोड़ी तो फिर मजबूर होकर रिश्तों के अमानवीय सच को मुझे लिखना पड़ेगा। उन्होंने भावनाओ को जब तब्बजों नहीं दी तो उस कड़वे सच को मजबूर होकर मुझे लिखना पड़ा। मैने उस संदर्भ को फर्स्ट न्यूज पत्रिका में घटनाक्रमों के आधार पर तीन बार उठाया और उन्होंने इसे ब्लेकमेल की संज्ञा दे दी। आजाद देश में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अधिकार सबको है।पर उन शब्दों का प्रयोग फिर भी तब तक नहीं करना चाहिये जिनका अर्थ ही हमको मालुम नही हो। हर प्रोफेशन में नैतिक व अनैतिक कमाई होती है। पत्रकारिता में छापने से अधिक न छापने की शर्त की कमाई का जरिया शार्ट कार्ट सा होता है। जहॅंा किसी के कमजोरी को प्रकाश में न लाने की कीमत ली जाती है उस ब्लेकमेलिग कहते है।अवसर तो ऐसे सबको मिलते है ... पर कुछ लोग फिर भी ऐसे होते है जो पाप की इस कमाई से दूरी रखकर संंघर्ष के पथ पर सफलता की फसल उगाने क े लिये हल जोतते जाते है। इस संघर्ष में भी मजा आता है... और आपको यह अहसास ऊर्जा देता रहता है कि आपने अपने स्त्रोत- शक्ति का सदुपयोग करके उस पक्ष को सहारा देने की कोशिश की है- जो अपने संघर्ष में खुद को नितान्त अकेला महसूस कर रहा था। जब वो पक्ष अपने अधिकार की इस जंग में मजबूत होकर जीत के करीब पहुँच जाता है तब आपको यह लगता है कि शब्द वास्तव में ही ब्रह्म होते है श्रीमान एक मजबूर को मजबूत बनाना, उसके पक्ष को आम जनमानस के बीच में लाना अगर ब्लेकमेलिंग तो यह गुनाह जब तक इस शरीर में सांस है... कलम में प्रवाह है ..मैं करता रहुँगा।यह मेरा जमीर जानता है कि संघर्ष की इस पगडण्डी पर समझौते की पोटली को थामकर मैने कभी कलम नही चलाई। हॉं जिन्होंने मेरे अधिकार व आत्मसम्मान पर ठेस पहुँचाने की कोशिश की वत्त पड़ने पर उनको कलम से ही जबाब दिया ... पर फिर भी किसी को टारगेट नहीं किया।जब किसी ने बेवजह धमकी के लहजे का प्रयोग किया तब उसके बाद की हकीकत इशारों में ही बतला दी और अगर उसने अपने शब्द वापिस लेकर खेद प्रगट कर दिया तो उसे माफ भी कर दिया। बेवजह टकराना मेरा स्वभाव नही है..एक हद तक धैर्य भी रखता हूँ लेकिन जब पानी सर से उपर चला जाये तब लिखना या कहना भी पड़ता है। मैं यह मानता हूँ कि पारिवारिक जीवन में भी कुछ ऐसे प्रसंंग हो जाते है जो सहज या सहनीय नहीं होते। ऐसा भी होता है कि एक छत के नीचे रहकर निभाना मुश्किल हो और जब बात और अधिक बढ़ जाती है.. तो वो रिश्ता ही कचोटने लगता है... और आप मजबूर होकर बोझ बने उन रिश्तों की मोली ही खोल देते है। पर इसका अर्थ यह नही कि आप उन लोगो को प्रताड़ित करने लग जाये या जान बुझकर उनके सामने ऐसी परिस्थितियां ईजाद करें जिससे वो पक्ष दुविधा में पड़ जाये। मानवीयता किसी के आत्मसम्मान व अधिकार के हनन की इजाजत तो नहीं देती। अगर किसी वजह से कोई रिश्ता न रहे .. तो वो गुनाह नही है पर अगर आप उसके बाद की शालीनता व मर्यादा को भंग करते है तो वो बड़ा गुनाह है।जिन्होने मुझ पर ब्लेकमेल का आरोप लगाया उन्होने मेरे निजी जीवन में पारिवारिक पक्ष पर भी सवाल उठाया। मुझे उनके सवाल पर कोई आपत्ति नही है.. क्योकि सवाल उठाने का अधिकार सिर्फ पत्रकार को ही नहीं बल्कि भावना प्रधान हर व्यक्ति को है...पर थोड़ा सा भी सच जाने बिना किसी पर उंगली उठाना उचित नहीं कहा जा सकता। अगर हम अपनों को जी जान से चाहते है.. उनके सुख दुख को अपना मानकर चलते है ..फिर भी कोई अगर आपके उस अहसास को चकनाचुर कर दें तब आप पर क्या बीतती है? यह कैसी विडम्बना है कि बहुत कुछ सहने के बाद भी अगर आप अपना दर्द जब ईश्वर की अदालत में छोड़ देते है... तब भी लोग आपकी इस चुप्पी पर आपका गुनाह देेखने लग जाते है। उन अपनों के खिलाफ हथियार उठाना अर्थात उनकी करनी का जबाब देना उस व्यक्ति के लिये असम्भव सा होता है जो भावना की राह का पथिक हो मैने इस कठिनाई को सहा है ..पर मुझे इस बात का सकून हैकि रिश्ता निभाने में जितनी ईमानदारी मैने रखी ... वो रिश्ता अब न होने के बाद भी उसकी शालीनता को मैने बनाये रखा है। मेरे धैर्य पर फिर भी अगर आघात होता है तो मैं वो हर पत्थर भगवान को नजर कर देता हूँ मैं यह मानता हूँ कि जब भगवान का धीरज खत्म हो जायेगा तब रिश्तों रूपी दूध में पानी मिलाने वालों को उनकी करनी की सजा मिल जायेगी..और सजा वे लोग भी पायेगे जिन्होंने चटखारे लेकर जुगाली ली है तथा बेगुनाह को गुनहगार बतलाने की कोशिश की है। रिश्तों के इस कड़वे सच का कड़वा घूंट जिस व्यक्ति ने स्वयं पिया है...वो इसको मजाक बनाने या कागजी मोल अदा करने की नहीं सोच सकता इसलिये मैंने उस मजबूर महिला के जीवन की कहानी को सुनकर सामने वाले पक्ष से बार बार यह निवेदन किया था कि इसकी ऐसी पुख्ता व्यवस्था कर दे जिससे यह आत्म सम्मान के साथ अपना जीवन जी सके। उस व्यथा को कथा बनाना मेरा इरादा नही था मैं तो सिर्फ समाधान चाहता था। पर जब सारे रास्ते बंद देखे तो फिर शब्द का ब्रह्मास्त्र चलाना पड़ा ..और उसने अपना असर भी दिखाया क्योंकि बाद का बहुत कुछ काम सहृदयी पाठक वर्ग ने कर दिया । उस शब्द (कड़वे सच) से जिसको सहारा मिला उसने दुआये दी और जिनका सच खुल गया उन्होंने इसको ब्लैकमेल कहा। जिसके पास जो था उसने वो दिया मेरे बारे में सवाल उठाये गये थे ं मैने उन सवालो को उनका जवाब दिया है।

जहाँ नीति की सेल लगी है

किसी भी क्षेत्र में अगर कोई प्रतिष्ठित बड़ा नाम संकीर्ण सोच को प्रस्तुत करता है... तब फिर उसे महसूस करके शर्म भी आती है तथा उसे नजरअंदाज करना भी मुश्किल हो जाता है। लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ है ""पत्रकारिता''और इस महत्वपूर्ण स्तम्भ में भी जब कभी प्रतिष्ठित नाम छोटी नियत की खरोचे लगाता रहता है तब सवाल उठता है कि खाते -पीते लोग बेवजह कटोरा सा लेकर क्यों खड़े हो जाते है? यह सही है कि खबर को उठाने से लेकर छपाने तक की विभिन्न प्रक्रियाओं के बड़े खर्च किसी भी प्रकाशन विभाग के लिए सर दर्द के रूप ही होते है पर जिस प्रतिष्ठान का ब्राण्ड पोस्टकार्ड की तरह दौड़ रहा है ...विज्ञापनों की ढ़ेरिया ही लगी है... उस प्रतिष्ठान के अगर कोई जिम्मेवार लोग छोटे पत्र-पत्रिकाओं के विज्ञापन पृष्टों को टटोलते हुए अगर यह कहने लग जाये कि"" ये विज्ञापन कैसे ले आते है'' तब इस जलन पर यब सवाल उठता है कि जैसे दुनिया का माल इन लोंगो ने अपना ही सामान समझ रखा है। खुद के सामने विज्ञापनों रूपी माल पुये की थाली भरी पड़ी है.. पर दुसरे की थाली पर ही इनकी नजर रहती है उसके खाध पदार्थ इनकी नजरों में आखिर क्यों खटकते है? हर कोई अपने उत्पाद को श्रेष्ठ कहता है पर श्रेष्ठता खुद के कहने से नही बल्कि जमाने के बोलने से अंकन में आती है।किसी जब बड़े पत्र का जिम्मेवार व्यति फोन पर यह कहे कि आपने अमुख... हमारे पत्र में क्यों नही भेजा? आप भेजते तो हम प्रकाशित कर देते क्योकि हमारे पत्र में नाम छापना विशेष अर्थ रखता हैआखिर किस नाते ये अपनी इस तरह की श्रेष्ठता साबित करना चाहते है? प्रसार व विज्ञापनों की भरमार के बल पर इतना इतराने की जरूरत क्या है। खबरों का दम तो उनके प्रतिस्पधिर्यों में उनसे कही अधिक है तथा नीति की अगर बात करे तो इनसे तो वह लोग श्रेष्ठ है। जिनकी प्रसार संख्या चाहे इनकी तुलना में े ेनग्ण्य हो पर जो पैसे के लिए अपने जमीर तो नही बेचते।किस तरह फोटुओं ेका प्रकाशन व समाचार के रूप में रूपये देने वालों की वरदावली इन सम्मानित पत्र में छपती है। क्या पाठक वर्ग ये भीतरी सत्य नही समझते? वो सब जानते है कि यहॉं बिन रूपेयों के कोई अच्छी बात भी न छपे तथा पैसा देकर बेतुकी बात भी छप जाये यहॉं वो शिकायत रूपी खबर नहीं छप सकती जो किसी बड़े विज्ञापन दाता के खिलाफ हो चाहे शिकायतकर्ता की शिकायत कितनी ही उचित क्यों ना हो? फर्स्ट न्यूज ने एक प्रतिष्ठान की ग्राहक वर्ग से मिली शिकायत क ो आधार बनाकर खबर प्रकाशित की थी। उस खबर का प्रभाव इतना हुआ कि उस प्रतिष्ठान के प्रबंधक को फर्स्ट न्यूज की खबर का जबाब एक प्रतिष्ठित पत्र में वरदावली के रूप में छपवाना पड़ा , बाद में उन्होंने मुझे फोन पर इसकी जानकारी जब दी तो मुझे हॅंसी आ गई। तब मुझे ऐसा लगा कि मॉं शारदे की कृपा से हम उस जगह पर तो जरूर है जहॉं पर हमारी कलम का जबाब देने के लिए सामने वाले को अपने तरकश व तुणिर के नामी ब्राण्ड ही खोजने पड़ते है।पर असली सवाल तो यह है कि इतने प्रतिष्ठित समाचार पत्रों में अगर बड़े विज्ञापन दाता क ो खुश करने के लिए अपनी नीति की खुली सेल लगा ली जाती है तो फिर वो सर्वश्रेष्ठ होने का दम्भकैसे भरते है। उनसे अगर पूछा जाये की नीतिगत निर्णयों में आपका व्यव्सायिक पक्ष निर्णय करता है या जमीर... अगर ईमानदारी से वह जबाब देते तो उनको यह ही कहना पड़ेगा कि हमने अपना जमीर तो कब का ही बेच दिया है? शायद इसलिए यह रूपयों के चस्कों के पीछे शब्दों का मस्खा लगाने से नही चूकते।एक निवेदन और आज अगर वे शिखर पर है तो इसका अर्थ यह नहीं कि इस मुकाम पर बनें रहने का उन्होंने पट्टा लिखवा लिया है। श्रीमान, समय का चक्र अपना मिजाज कब बदल देगा और उनके आज के इस मुकाम पर कल किसका नाम लिखा होगा यह कौन जानता है? इसलिये टटोलिये अपनी नीति को व औरों की थाली में झांकना बंद कीजिये... कही ऐसा न हो कि व्यर्थ की ताका झांकी में कोई आपकी भरी पुरी थाली को चटकर जाये?हमने तो सुना है कि जिसकी सोच बड़ी होती है बड़ा तो वो होता है। जिसकी सोच छोटी उसे क्या कहेंगे? उनकी सोच का नजरिया व नीतियां तो उनको बड़ा नही कहती। फैसला तो समय ही करेगा कि ऐसी संकीर्ण नीति रखने वाले ""पत्रों'' का कद आगे कैसा होगा?इनकी सोच तो इतनी छोटी कि पुस्तक । सीडी की समीक्षा प्रकाशित करने के लिये भी वे उस उत्पाद के विज्ञापन के लिए देखते रहते है।विज्ञापन छापने में कोई बुराई नही है पर विज्ञापन के लिए व ईर्ष्यावश उसे न प्रकाशित करने अर्थात अटकानें की प्रवृति उनके व्यक्तित्व का स्तर खुद बता देती है। जिनकी सोच का नजरिया अगर धरातल कों देख रहा है तब फिर उनकी आकाशी उड़ान आखिर कब तक संभव है?पत्रकारिता में नीति का एक घिनौना सच तो यहॉं तक सुनने को मिलता है।खबर बनने के बाद भी लेन देन का हिसाब हो जाने पर छपती नही। सीडी बन जाने के बाद भी टीवी चैनल में चलती नहीं। इस वजह से मीडिया के मार्फत सहारा उस कमजोर,असहाय पक्ष को नहीं मिल पाता व अन्याय करने वाला पक्ष रूपया उछालकर अपनी जीत के नगाड़े बजा लेता है।मीडिया में ऐसे लोगों की काली करतूते उन लोगों को महंगी पड़ती है जो दौलत की तुला में अपने जमीर को नहीं तौलते। सामर्थ्यवान पत्रों की यह कमजोरी पत्रकारिता को आहत करती है। भूखा पेट अगर ऐसा करें तो फिर भी उसकी मजबुरी समझ में आती है लेकिन जिनके पेट की भूख मिटी हुई हो फिर भी रोटी रोटी करें ... तो उन्हें क्या कहा जाये।

हमारा तंत्र कमजोर था |

चंद आतंकियो ने मुंबई ताज ,ओबरॉय को मौत का मैदान बनाकर जिस रूप का इजहार किया है उसने यह जता दिया की उनकी पक्की प्लानिंग के समाने हमारी घेराबंदी कमजोर थी अगर समुद्र तट के मछुहारो की रिपोर्ट पर तुरत -फुरत कारवाई कि गई होती तो शायद इन आतंकियों के मनसूबे प्लॉप हो गए होते तथा देश जन हानि का शोक न मना रहा होता हमारी खुफिया प्रणाली की असफलता आतंकियों की सफलता का कारक बनी है -तथा इस देश की स्वार्थी राजनीति भी इस घटना की जिम्मेदार है जिसने साध्वी प्रज्ञा को आतंकी साबित करने के लिए जांच एजेंसियों को इस कदर लगवा दिया कि वास्तविक आतंकवाद की जड़ो को काटना ही भूल गए इसलिए इस दुर्घटना के लिए असली जनक राजनीति को मानकर इस देश की जनता को सही फ़ैसला लेना चाहिएआतंकियों की प्लानिंग की ऐसी सफलता एक तरफ़ उनके होसलो को बुलंद करती है तो वही उनसे लोहा लेने वाले तंत्र को निराश भी करती है वोटो के लिए राजनीति देश को जब तक दाव पर लगाती रहेगी तब तक खूनी पटाखों का खेल चलता रहेगा क्योंकि जनता का ही तंत्र जब कमजोर है तो जाँच एजेंसियों को कटघरे में खड़ा करना उचित नही होगा

Sunday, November 23, 2008

अध्यात्म का अर्थ क्या है ?

जब जब राजनीती के शुद्धिकरण का प्रसंग उठता है तब तब अध्यात्म की दुनिया से राजनेताओ को जोड़ने का समाधान दिया जाता है अर्थात राजनेताओ को अध्यात्मिक होना चाहिए प़र यहाँ दो गंभीर सवालो को समाधान देने वाले नजरंदाज कर जाते है पहला सवाल अध्यात्मिक की परिभाषा से ही है ...क्या वर्तमान में चल रहे धार्मिक मुखोटो के इस विशाल तंत्र को ही हम इसका जबाब मान ले -जोधर्म के नाम पर अर्थ बटोरने का फलता फुलता उधम बना हुआ है और जंहा की हकीकत इतनी कड़वी है जिसका विवेचन अगर सरल शबदो में किया जाए तों ये राजनीति के निम्नतम स्तर के अखाडे ही होते है जहा धर्म की जुबान जरुर बोली जाती है परकर्म के नाम पर अर्थ .शक्ति ,विलास के भोग का किया जाता है तथा इस के जो विरोध में आता है उसे पटकनी देने के लिए राजनीति के ओछे हथकंडे भी इस्तेमाल करने में लेट लतीफी नही होती कुछ अपवादों को छोड़कर अगर इस अध्यात्मिक जगत का ईमानदारी से विवेचन करे तो श्रद्धा की जमीं पर भावना को दोहने का सबसे सफलतम उद्योग ही हमको यह नजर आयगा मेरा किसी संत या धर्म समुदाय पर इशारा नही है .मेरे ये सवाल उन लोगो के लिए नही है जो धर्म व मानवीय मूल्यों को प्रोडक्ट बना कर बेचने में लिप्त नही है ये लोग इस झंडे को उठाने के असली हक़दार है पर बाकि बड़ी जमात तो अध्यातिमकता को फंडे के रूप में ही इस्तमाल कर रही है क्या इनसे किसी सुधिकरण की उम्मीद की जा सकती है ?दूसरा सवाल यहे है की अगर राजनेता अध्यात्मिक नही हो सकते तो क्या दुसरे विकल्प के रूप में इन अध्यात्मिक नेताओ को राजनीति में आने के लिए निवेदन नही किया जा सकता ?राजनेता अगर धार्मिक नही हो सकते तब संतो को राजनीती में शुद्धिकरण के लिए मेली गंगा को साफ करने का जिम्मा लेने में संकोच नही करना चाहिए पर यह काम उन लोगो के लिए भी टेढा है क्योंकि उपदेश देना आसान है पर उस पर ख़ुद को चलाना टेढी खीर होती है

Friday, November 21, 2008

प्रज्ञा को कब तक बंद रखोगे ?

अगर वो गुनहगार नही है ..और आपकी खोजबीन के बाद भी अगर आपको उसके खिलाफ ठोस सबूत नही मिल रहे तब भी हिरासत में रखना यह जताता है की आप पूर्वाग्रह से ग्रसित है और आपकी यह जांच फ़िर ख़ुद मानवीय गुनाह लगने लगती है i मै यह नही कहता कि कोई संत ,साध्वी मौलवी ,पादरी ,गुनहगार नहीं हो सकते है ---वो भी भावनाओं में बहकर गुनाह कर सकते है ...पर इसका अर्थ यह नहीं कि साध्वी ,मौलवी को लेकर आप उनको इस लिए गुनहगार साबित करे ताकि उस समुदाय को इस बहानेआप कटघरे में खड़ा कर सके ।
यहाँ पर हिंदू संगठनो को घेरने की व उन पर आतंकवादी का लेबल लगाने की राजनीती हो रही है ...अन्यथा साध्वी प्रज्ञां को जाँच एजेंसी के द्वारा पूछ- ताछ ,नार्को टेस्ट हो जाने के बावजुद अब तक मुक्त न करने की वजह और
क्या हो सकती है ?दोषी को दंड मिले ..यह न्याय कहता है ....पर दोषी को कैसे बचाया जाए व निर्दोष को कैसे फंसाया जाए यह सवाल भारतीय राजनीती से किया जा सकता है ।

उनका अंदाज बदला है ...

चुनाव के समय वो पहले भी बिल्डिंगो मे जाते थे , वो आज भी जाते है
उस समय वोटरों को घरो से नही आने के लिए धमकाते थे
आज वोटरों को मत दान करने के लिए बुलाते है
पहले आँख दिखाते आते थे
अब हाथ जोड़ते जाते है
पहले वो ख़ुद ठप्पा लगातेथे
अब सर झुकाकरनिशान बताते है
जब से चुनाव आयोग ने
अपना मिजाज बदला है
केडेरो ने अपना अंदाज बदला है

Thursday, November 20, 2008

मंदी की वजह क्या है ?

अगर एक शब्द में जवाब देना हो तो कहा जाएगा ''तरलता '' में कमी और हम मनीमार्केट में दिख रही तंगी को इस मंदी की वजह मान लेते है । दरअसल अर्थ जगत में आई इस मंदी की उपरी वजह तो मनी मार्केट की तंगी ही है पर असली वजह जिस तरलता की कमी का होना है वो है भीतरी तरलता की कमी । अर्थात इसके लिए हमको तरलता के व्यापक अर्थ को समझना होगा और वो अर्थ है हमारी मानसिकता का तंग होना । तरलता यहाँ पर उस विश्वास को इंगित करती है, जो आपसी व्यवहार के धरातल की वो जमीन होती है जिस पर हम खड़े होते है पर अगर हम उस विश्वास को दाव पर लगाने की बाजी चल देते है तो वहाँ पर उस जमीन पर ही प्रहार होता है जहाँ पर हमारे ख़ुद के पांव खड़े होते है और उस कुल्हाडी से अपने पांव काटने की उस साजिश में हम ख़ुद हिस्सेदार हो जाते है। अगर आप मनीमार्केट में आई तरलता की कमी पर गौर करे तो इस कमी का मूलभूत कारण विस्वास का ही न होना है हमने अब अपने आप पर भी विश्वास करना छोड दिया है अतः हम दुसरो पर विश्वास भला कैसे करसकते है ? शायद तभी एक बैंक दुसरे बैंक पर विश्वास करने से मना कर देती है और अविश्वास की वो आंधी तरलता की कमी का रूपक बनकर समूचे अर्थ तंत्र की जड़ो को हिला देती है, इसलिए विश्वास शब्द की विशालता को हम जब तक नजरंदाज करते रहंगे तब तक मंदी के बादल हमारे अर्थ तंत्र को ऐसे ही घेरे रहेंगे इस मंदी की सबसे बड़ी वजह आपसी विश्वास की कमी व चादर से बाहेर पैर पसारने की लाचारी होना है ,यह मंदी हमारे अंत लोकन की मांग करती है जिसके लिए शायद हम तैयार जल्दी नही हो सकते फ़िर मंदी जल्दी कैसे जा सकती है ?

Wednesday, November 19, 2008

सलाम मंदी

समूचा विश्व अर्थ जगत में आए मंदी के भूचाल से बेहेल है ओउर इस समस्या के समाधान के लिए एक जूट होकर मुकाबले के लिए तैयार है यहाँ एक बात इस दुर्घटना में भी अच्छी कही जा सकती है ..और वो है ''एकता ''। जी हाँ यहाँ पुरे विश्व समुदाय को एकता या एक जुटता के इस मर्म का एहसास हुआ है ... और ''मंदी '' के संक्रमण को रोकने के लिए सब एक जुबान बोलने के लिये तैयार हो गए है ... अर्थात इस ग्लोबल मंदी ने समूचे विश्व को एक मंच पर खड़ा कर दिया है । जिससे यह आशा जगी है कि हम वक्त पड़ने पर एक साथ खडे भी हो सकते है । अर्थात अब हम यह कह सकते है कि एक दिन समूची दुनिया सहायक शास्त्रों के खिलाफ भी एक होकर शांती का अस्त्र उठा सकती है तथा अरबों की झूठी बर्बादी का वो ढेर मानवीय सेवा के तहत ला सकती है । मै जनता हूँ कि सलाम मंदी का मेरा यह शीर्षक शेयर बाजार से जुड़े लाखों लोगो के दिलों को कचोटेगा क्योंकि इस मंदी ने उनकी तलपट की जमा पूंजी को साफ कर दिया है मै भी उन में से एक हूँ ... पर चूंकि लेखक हूँ इसलिए एक सकारात्मक पक्ष इस नकारात्मक विस्फोट में अगर नजर आ गया तो उसको आपको ''नजर '' न करने का गुनाह कैसे कर सकता हूँ ? बस इस एक पक्ष पर मंदी के तूफ़ान को भी सलाम कर सकते है ... जिसने यह जता दिया है कि सभ्यता -संस्कृति - सीमाए -सामर्थ्य अलग -अलग होने के बावजूद भी हम एक साथ खड़े हो सकते है
संजय सनम
अगला ब्लाग -मंदी की वजह क्या है ?

Monday, November 17, 2008

आपको सलाम

ब्लोगर के इस कालम में संजय सनम का अभिवादन स्वीकार करे -अपने भावों को खुले दिल से आप तक पहुचने कि मेरी इस कोशिश में आपकी प्रतिक्रिया प्रदर्शक की भूमिका का निर्वाह करेगी और मै अपने पढ़ने वालो के एहसासों का सम्मानों करते हुए व उनकी जिज्ञासा को संतोष जनक समाधान देते हुए अपनी कलम को चलाना पसंद करुगा । यह सच है कि हम अजनवी है ... पर यह भी सच है कि कुछ दिन बाद भावनाओ के बाँध से फ़िर अजनवी एक दूसरे को नहीं करेंगे । मै प्रायः कड़वा लिखता हूँ ..इस लिए कई बार सीधा लग जाता है - पर जो लिखता हूँ वो महज काल्पनिक नहीं बल्कि वो उस व्यवस्था या विसंगति के खिलाफ अनुभूति होती है । -जिसकी वजह अक्सर हमारी खामोश प्रवृति या मौन स्वीकृति होती है मेरा निवेदन है कि कलम के उस कड़वे स्वाद को एक लेखक का धर्म समझते हुए और इस यात्रा के सहयात्री बने रहें । -आपका संजय सनम