Saturday, September 3, 2011

मन क्यों नहीं मिलते?

जैन धर्मावलम्बियों का प्रयूषण पर्व (सम्वत्सरी) भी प्रायः दो दिन चतुर्थी व पंचमी को मनाया जाता है। भगवान महावीर के अनुनायियों का यह मतान्तर अपने अपने पंथ/सम्प्रदायों की वजह से दुःखद लगता है। सद्भावना, मेल-मिलाप, का संदेश देने वाले इस पर्व की महत्ता को कहीं न कहीं हमारे पंथ/ सम्प्रदाय के मत रुपी अहम् से हम खुद आहत कर रहे हैं। जैन धर्म के अनुयायी जब भगवान महावीर की वाणी पर चलते हैं तो फिर मतान्तर का प्रसंग तो आना ही नहीं चाहिए। भगवान महावीर के उपदेश तो सभी के लिए एक है- फिर सम्वतसरी के इस पर्व में श्वेताम्बर में, स्थानकवासी, मूर्तिपूजक, तेरापंथी में विभिन्नता क्यो? कितना सुखद होता जब पंथ सम्प्रदाय की रेखा से बाहर आकर इस पर्व को सब एक साथ महोत्सव के रुप में मनाते, मतान्तर के अहम् को मिटाते।
सम्वत्सरी पर्व पर जैन धर्मावलम्बी अपने प्रतिष्ठानों को बंद रखते हैं-इस दिन की महत्ता तप, जप, साधना के रुप में विशेष मानी जाती है-पर सवाल यह है कि प्रतिष्ठानो को बंद रख कर विशेष जप, तप, स्वाध्याय, मनन के रुप में इस दिन का सार्थक उपयोग कितने लोग करते हैं और कितने लोग सिर्फ दिखावे के लिये प्रतिष्ठान को बंद करके अपनी श्रद्धा को दिखाते है! गौरतलब यह भावना भी है कि एक दिन उपवास, स्वाध्याय करके कहीं हम ३६४ दिनों की मनमौजी स्वतंत्रता का मानस तो नहीं बना लेते?
धर्म न तो प्रतिष्ठान के बंद करने में है न सिर्फ समवसरण जाकर अपनी उपस्थिति दर्ज करने में है- अगर ये सब करने के बाद भी मन में द्वेष, क्रोध बना रहे- तब धर्म का यह रुप सिर्फ छलावा ही प्रतीत होता है।
अगर सजग रहकर कर्मशीलता बनी रहे तो वो कर्म ही धर्म बन जाता है। हमारे धर्म शास्त्रों में अजपा जप की बात आती है-और इस स्थिति में आदमी अपना कर्म भी करता रहता है पर अंदर ही अंदर जप भी चलता रहता है- वो स्थिति जब बन जाती है तो हर दिन संवत्सरी जैसा स्वतः ही बन जाता है। उपवास करके अगर समय काटने के लिये ताश के पत्ते फेंटे जाये या फिर वातानुकूलित सिनेमाघरों में फिल्में देखी जाये- तो उसको फिर धर्म या तप के रुप में हम इसको न समझे... कुछ लोग तो उपवास इस डर से करते हैं कि सम्वत्सरी को उपवास नहीं करने से लोग क्या कहेंगे? कभी-कभी तो उपवास न करके भी लोग यह कह देते हैं कि उपवास किया था।
धर्म मन से होता है- दवाबी धर्म तो दिखावा और खुद के लिए छलावा होता है। कुछ मिनट का विशुद्ध ध्यान अंतरात्मा को र्निमल बना सकता है और एक आसन पर घंटों तक की माला, जप तब बेकार हो जाते हैं जब ध्यान भटका हुआ होता है।
इस पर्व के साथ क्षमा-याचना का बड़ा महत्व होता है- तभी इसे क्षमा पर्व भी कहा जाता है- पर यहां भी अक्सर हाथ दिखावे के लिए जुड़ते हैं- मन में कैची फिर भी चलती है ।
अगर आपका मन क्षमा देना, या लेना किसी से नहीं चाहता तो दिखावे से परहेज करना चाहिए। हम भीड़ में तो गले मिल लेते हैं और थोड़ी दूर जाकर यह भी कह देते हैं कि समाज के सामने उससे मिलना पड़ा- भला ऐसा मिलना भी क्या जरुरी? जब दिलों में रहती है फिर भी दूरी... तो ऐसे मिलने की क्या मजबूरी है?
शायद इसलिये कि-
हमने रस्मों को
निभाते देखा है
आइने से खुद को
छुपाते देखा है
जिनके दिलों में
रंजिशें भभक रही थी
जमाने के सामने
उनको गले लगाते देखा है।

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