Friday, April 29, 2011

जनता अपना सम्मान चाहती है !

बंगाल विधानसभा चुनावों में प्रकृति की तपती गर्मी से अधिक चुनाव परिणामों पर कयासों की गर्मी है और एक आशंका भी लोगों के मन में है कि परिणामों के चलते खून-खराबा, हिंसा जैसा माहौल देखने को न मिल जाये।

राजनेताओं की उग्र बयानबाजी भी इस संदेह को और अधिक बढ़ा रही है अगर ऐसी विपरित स्थितियां चुनाव परिणाम के बाद नजर आये तो इसका अर्थ इस तरह की गतिविधियों को अंजाम देने वाले राजनैतिक कैडरों ने जनता के निर्णय के साथ मजाक किया है.... अर्थात ""जनतंत्र'' की इस व्यवस्था पर प्रहार किया है। जनता को चाहिए कि चुनाव परिणामों के बाद की गतिविधयों पर नजर रखे तथा सद्भावना का माहौल खराब करने वालों को आने वाले भविष्य के लिए ब्लैक लिस्टेड कर दे। अगर जनता सर्वोच्य है तो फिर जनता के निर्णय के साथ किसी भी प्रकार के उत्पात को क्षमा नहीं किया जाना चाहिए।

ऐसी गतिविधियों में शरीक राजनैतिक दलों को जनता के द्वारा भविष्यतः बायकाट करना ही आवश्यक हो जाता है। सभी राजनैतिक दलों के नेताओं का यह कर्तव्य बनता है कि वो हार-जीत को जनता के निर्णय के रूप में सम्मान के साथ स्वीकारें तथा अपने कार्यकर्ताओं को अनुशासन, संयम की डोर से बांधे रखे।

अगर हार उत्पात का रूप लेती है तो इसका अर्थ जनता के वोट रूपी अधिकार पर आघात होता है- जनतंत्र में जनता के वोट का सम्मान होना चाहिए... न कि प्रहार। जनता अपने अधिकार के प्रयोग पर मजाक पसंद नहीं करेगी। इसलिए राजनीति और राजनेताओं से संयम में रहकर अपने उत्तरदायित्व को निभाने की अपेक्षा की जाती है क्योंकि जनतंत्र अपनी गरिमा का सम्मान चाहता है।

Friday, April 22, 2011

आभार आपका!

फर्स्ट न्यूज साप्ताहिक के पिछले अंक में फिर तीन सवाल के शीर्षक से प्रकाशित संपादकीय पर पाठक वर्ग की जबरदस्त प्रतिक्रिया के रूप में कुछ सुझाव लेकिन पूर्ण समर्थन मिला है। सबसे पहला फोन एक महिला पाठक का त्वरित टिप्पणी के रूप में आया- उन्होंने सच को परिभाषित करने के लिए बधाई देते हुए यह सवाल किया कि आपने अपने निकट जनों को भी नहीं बख्सा... उनके इस सवाल पर मैं एक पाठक की उस जागरूकता पर दंग रह गया जो शब्द संसार के साथ आपसी संबंध संसार से जुड़ी थी-अर्थात पाठक का दृष्टिकोण कितना विस्तृत है.... मैं उन तमाम् पाठकों का हृदय से आभार ज्ञापित करता हूं जो न्याय की तुला से शब्द और संबंधों को तोल कर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। यह सच है कि अपनों पर ही कलम चलाते वक्त मेरे हाथ नहीं कांपे थे... हॉं अपनी डेस्क से उस कागज को आगे बढ़ाते वक्त मन में सिहरन जरूर हुई थी पर मॉं शारदे के आशीर्वाद की वजह से मैं कड़ा निर्णय कर पाने और कलम का धर्म निभाने में सफल रहा था।

एक मुझसे गंभीर चुक हुई जिसको एक पाठक के फोन से मिली प्रतिक्रिया ने मुझे अहसास कराया.... वो भूल यह थी कि १० अप्रैल को ही श्री सच्चियाय माता जी की भक्ति का एक कार्यक्रम पद्दोपुकुर (भवानीपुर) में आयोजित था-जबकि मां सच्चियाय का प्राण प्रतिष्ठित शक्ति पीठ पास में ही है -फिर अलग से किराये के स्थान पर हुए इस आयोजन को मैंने अपने उस सम्पादकीय में नहीं समेटने की चूक कर दी। उन पाठक की बात सही थी- जब मैंने इस विषय को उठाया था तब इस प्रसंग को भी साथ में लेना था- यद्यपि मैंने जानबुझकर यह गलती नहीं की पर अनजाने में ही सही मुझसे भूल तो हो ही गई..... मैं इसके लिए फर्स्ट न्यूज के पाठक जगत से क्षमा चाहता हूं।

जिनके पास दौलत है-वे अपनी दौलत का प्रयोग या उपयोग अपने मन मुताबिक करने के लिए स्वतंत्र है- पर समाज के हित/ अहित का ख्याल रखते हुए कलम धर्म को निभाना हम कलमकारों का कर्तव्य बनता है। मैं जब भी ऐसे ज्वलंत प्रसंग उठाता हूं-तब मेरा मकसद अपने विचारों को थोपना नहीं रहता बल्कि मैं यह चाहता हूं कि हम पूर्वाग्रह से मुक्त होकर उस घटना प्रसंग पर चिन्तन करते हुए आवश्यक सुधार करने की प्रक्रिया का हिस्सा बने।

मेरे पास दो फोन उन आत्मीयजनों के आये जिनकी उस कार्यक्रम में अहम भूमिका थी जिनके लिए मैंने लिखा था- जिस अंदाज में इन दोनों महानुभाव ने मुझसे बात की मैं इसकी सराहना किये बिना नहीं रह सकता- मेरे उठाये प्रसंग पर बड़ी आत्मीयता के साथ बात करते हुए उन्होंने अपने सवालात् रखे। आलोचना से तिलमिलाते लोगों के अनुभव तो मैंने देखे हैं पर सहृदयता और आत्मीयता की मनुहार भरा फोन करके सुधारवादी दृष्टिकोण को सामने रखकर चिंतन पेश करने का नजरिया कम ही दिखता है- मैं अपने इन दोनों आत्मयीजनों की इस आत्मीयता के लिए धन्यवाद देता हूं। मुझे लगता है इस प्रसंग से हमारे आत्मीय रिश्ते और मजबूत हुए हैं और सच भी यह है कि आलोचक ही सबसे अच्छे मित्र होते हैं- इस लिहाज से मैंने भी मित्रता ही निभाई है।

कुछ सवाल जिज्ञासा के रूप में आये हैं-जैंसे (१) राजरहाट स्थित मॉं का प्राण प्रतिष्ठित मंदिर सार्वजनिक सम्पत्ति नहीं है- यद्यपि मंदिर के निर्माणकर्ता की तरफ से पूजा अराधना के लिए सभी के लिए दरवाजे खोल रखे हैं- फिर भी समाज को तो वेधानिक व्यवस्था बनाकर समर्पित नहीं किया है.....

दूसरा सवाल मेरे उस विषय पर आया है जिसमें मैंने किराये के स्थानों पर मूर्ति, फोटो को लाने ले जाने पर लिखा था।

तीसरा सवाल यह आया है कि जब मोरखाना में मॉं की प्राण प्रतिष्ठित मूर्ति है-तो फिर नवरात्रा महोत्सव में उस स्थान से अलग मंच बनाकर वहां पर फोटो रखकर आयोजन में लाखों खर्च करना कितना उचित है? ये रुपये निर्माण कार्य में अगर लगाये जाये तो भक्तों के लिए कितना उपयोगी हो सकता है?

अब आइये इन सवालों पर चिंतन करते है.... पहले मंदिर के सवाल को लेते हैं, यह सच है कि यह मंदिर समाज के एक परिवार के द्वारा बनाया गया है तथा एक अत्यन्त छोटे स्थान में नाम भी चिन्हित किया गया है। मंदिर की व्यवस्था का आधार वो ही है पर उनके अनुसार मां का यह मंदिर मां के सभी भक्तों को समर्पित है यहां सदस्य, अध्यक्ष, मंत्री के पद नहीं है और न ही यहां अपने नाम का प्रदर्शन करने की व्यवस्था है। हम सब इस तथ्य से अगर सहमत है कि नाम और पद की दौड़ ही विसंगतियों का कारक बनती है तब हमको बिना नाम और बिना पद की इस व्यवस्था का स्वागत करना चाहिए।

हां अगर हमको यह लगे कि मां की भक्ति में उनकी (मंदिर निर्माता) की व्यवस्था हमारे लिए बाधक बन रही है तब निजी/ समाज की सम्पत्ति का विषय जेहन में आ सकता है अन्यथा बिना नाम के भक्ति का भाव भरा मजा लेने के लिए स्वयं को समर्पित कर देना चाहिए। अगर हम मां को अपना समझते हैं तो मां का हर वो स्थान जहां मां निवास करती है वो हमारा अपना है- फिर निजी और समाज की सम्पत्ति का विचार आ ही नहीं सकता। मेरा निवेदन है कि हम अपने दृष्टिकोण को विस्तृत करे..... इतना संकल्प तो ले लेवे कि देवी-देवताओं और आध्यात्मिक प्रसंग में पद और नाम की भावना आने ही नहीं देंगें..... और गुप्त दान की परम्परा के पोषक बनेंगे। हमारा यह संकल्प हमारे इस जीवन को तो तृप्त करेगा ही वरन आगे के जन्मों के लिए भी सत्कर्म का रास्ता खोल देगा।

एक सवाल यह भी आया कि हम कहां-कहां रोकेंगे? अखबार खोल कर सिर्फ विज्ञापनों को पढ़ कर अंदाज लगाये कि दर्शन के नाम पर प्रदर्शन का प्रदूषण किस रूप में बढ़ रहा हैै? इस सोच को क्या कहां जाये... क्या हम प्रयास करने से पहले हथियार डाल दे? अगर गंगा मैली है तो क्या शुद्धिकरण का प्रयास नहीं होना चाहिए?

हम औरों को नहीं बदल सकते... पर खुद पर तो हमारा नियंत्रण है, स्वयं को तो विसंगतियों के खिलाफ तैयार कर सकते हैं। अगर हम विसंगतियों में सम्मिलित होना व उसको सर्मथन देना बंद कर दे तो चमत्कार हो सकता है पर पहल तो करनी होगी... चलना शुरू करेंगे तब तो मुकाम पर पहुंचेंगे- बिना प्रयास किये हथियार तो बुजदिल व निकम्में लोग डाला करते हैं... हमको इस पंगत में तो नहीं आना है।

अब दूसरे और तीसरे सवाल पर आते हैं - देवी मूर्ति/ फोटो को किराये के स्थान पर लाने और ले जाने से मेरा आशय मूर्ति/ फोटो की पवित्रता के ख्याल से था- स्थान की पवित्रता भी इसमें खास महत्व रखती है। बार-बार लाने और ले जाने से संशय तो रहता ही है। आप पाठक स्वयं समझदार है विषय की गम्भीरता पर स्वयं विचार कर सकते हैं।

इसी प्रकार प्राण प्रतिष्ठित मूर्ति से अलग मंच बनाकर वहां दुसरी फोटो/ मूर्ति रखकर विशेष आयोजन- लाखों का खर्च भी अगर सवाल बने तो इसे अनुचित नहीं कहा जा सकता- अगर स्थानीय गायक कलाकारों का उपयोग किया जाये तो कम खर्च में ही काम हो सकता है- साथ ही साथ देवी- देवता की ऐतिहासिक गाथा का वाचन करने की परम्परा खास महोत्सव में अगर जोड़ दी जाए तो नई पीढ़ी के हृदय में श्रद्धा व आस्था के फूल खिल जायेंगे। हमने यह बात बचपन से सुनी है कि देवी- देवता तो भाव के भुखे होते हैं और भाव तो मन से आता है- जिसका श़ृंगार आस्था होती है- फिर ऊपरी चमक-दमक का प्रर्दशन कितना उचित है?

हमको निर्माण के काम करने चाहिए- जैसे विशेष आयोजन में भक्तों को ठहरने के लिए अगर कमरों की कमी महसूस होती है तो हमारा धन उस कमी को पूरा करने हेतु अनाम खर्च होना चाहिए।

इसी प्रकार उन रास्तों को अच्छा बनवाया जाना चाहिए- जिन रास्तों पर भक्त अपनी आस्था की ध्वजा लेकर नंगे पांव आते हो... वहां पर भक्तों की सुविधा हेतु उचित व्यवस्था होनी चाहिए...।

पैसा खर्च उस प्रकार होना चाहिए जिसकी आवाज वर्षों तक होती रहे- चार घंटे की चांदनी - फिर अंधेरी रात की तर्ज पर पैसा खर्च नहीं होना चाहिए।

अगर आपको पता चले कि मां का कोई सच्चा भक्त अगर किसी दुविधा में है तो आप उसको पता तक नहीं चलने दीजिए और उसकी दुविधा को कम करने का प्रयास मां की आज्ञा मानकर कर दीजिए... इससे बड़ी मां की आराधना नही हो सकती...

विडम्बना यह है कि हम सब उचित-उनुचित जानते हैं पर नाम और पद की चमक-दमक में जानबुझ कर भूल जाते हैं... आखिर कब तक स्वयं से स्वयं को छलते रहेंगे?

समाज के आम वर्ग की आंखों में चंद घंटों की चांदनी के रुप में दौलत का नाच खटकता है- उन दृश्यों के सामने उसका अपना अभाव उसको चिड़ाता सा प्रतीत होता है- अगर उसने अपना धीरज खो दिया तो उस विद्रोह को क्या दौलत दबा पायेगी?

दौलत को दम्भ के प्रर्दशन के रूप में उछालने से पहले समाज के आम वर्ग के अभाव को महसूस कर लीजिए... शायद आपका मन बदल जाएगा और दौलत को नचाने वाले हाथ रुक जायेंगे..!

कुल मिलाकर खुले दिलों-दिमाग से विचार करते हुए एक आदर्श आचार संहिता बनाने का प्रयास हो... यह मंगल कामना करता हूं ।

नीरज की ये पंक्तियां मुझे याद हो आई है-

मैं अकेला ही चला था मगर

लोग साथ जुड़ते गये....

और कारवां बनता गया ।

Saturday, April 16, 2011

फिर तीन सवाल?

(१) फर्स्ट न्यूज साप्ताहिक के पिछले अंक संपादकीय में कुल देवी की पूजा अर्चना के लिए किराये के स्थानों पर भक्ति के नाम पर दौलत और दम्भ का प्रदर्शन करने की बात पर पाठक वर्ग का समर्थन मिला है- पर जो लोग इस प्रदर्शन में मुखिया की पंगत में खड़े थे- उनके दम्भ को चोट भी पहुंची है। यद्धपि मैंने तीन सवाल शीर्षक से दिये उस सम्पादकीय में किसी के नाम का उल्लेख नहीं किया था पर समझदार पाठक तो इशारे को भी पकड़ लेते हैं। मेरा मकसद व्यक्तिगत रूप से किसी की आलोचना करना नहीं था पर समाज के हित में जो उचित हो उसे पाठक वर्ग को समर्पित तो करना था। मुझे दुख इस बात का हुआ कि प्रतिक्रिया में फर्स्ट न्यूज को भविष्य में विज्ञापन न देने के साथ कुछ हल्की बात और सुनने को मिली। मैं तीन सवाल इस बाबत फिर निवेदन करना चाहता हूं। पहला सवाल उन लोगों से है जिन्होंने श्री सुष्वाणी माता जागरण मंडल के नाम से गत १० अप्रैल को पार्क स्ट्रीट में भव्य कार्यक्रम आयोजित किया था। जब राजरहाट में मॉं का प्राण प्रतिष्ठित मंदिर है- तब किराये के स्थानों पर बेवजह का खर्च क्या आपकी भक्ति का भाव है ? या अध्यक्ष, मंत्री, संयोजक के रूप में अपने आपको समाज के सामने अग्रण्य के रूप में प्रस्तुत करने के लिए मंच बनाने का भाव है। अगर आपके मन में भक्ति का ही भाव होता है तो मॉं के भक्तों के बीच में आप भक्त बनकर समाये हुए रहते अर्थात फिर यहां न तो पद होते, न ही अपने नाम का बखान होता। यहां भक्ति के दर्शन की आड़ में आपने अपना प्रदर्शन किया है समाज का आम वर्ग आपकी इस कुटनीति को अंदर से सब समझता है। अपने नाम के प्रदर्शन के लिए मंच बहुत है- कम से कम मॉं के इस गरिमामय मंच पर अपने आपको बड़ा दिखाने की जुगत तो मत भिड़ाइये।
भक्ति के इस प्रदर्शन में समाज के लाखों रुपए खर्च हुए होंगे समाज का आम आदमी यह जानना चाहता है कि आप लोगों ने कितने रुपए उगाहे, कितने लगाये और कितने बचाये? यह जिज्ञासा सवाल बनकर सुनने को मिल रही है। अपने दिखावे के लिए आप लाखों रुपए होम करवा सकते हैं - पर अगर कोई जरूरतमंद आपके पास आ जाये... तब आपका मन कितने तक की उसकी सहायता करने की गवाही देता है?
रुपयों की बर्बादी किस तरह हुई है.... सूत्रों से मिली जानकारी यह कहती है कि शिवपुर से जो बस भक्तों को लेकर आने के लिए की गई थी उसमें सिर्फ तीन महिलाएं थी अर्थात तीन महिलाओं पर करीब चार हजार का खर्च ..... क्या यह उन दान दाताओं के धन के साथ मजाक नहीं है? जो आपने उनसे भक्ति भाव के नाम पर उगाहे थे।
पाठक इस बात को भी जानते हैं इस प्रकार की योजना बनाने वाले मुखियाओं की कतार धन उगाहने में कुशल है - व अपना कुछ अंश देकर लोगों की दौलत पर अपना नाम फटाने की कला जानते है- कुछ अन्य लोगों के नाम देकर कार्यकर्ता की सेवा लेना भी जानती है-कुल मिलाकर इसे कुटिल राजनीति ही कहा जा सकता है जो माता की महिमा के नाम पर अपने आपको महिमा मंडित करने का प्रयास करती है।
अब एक बात उन लोगों को समर्पित करना चाहता हूं जिनके मन में अपनी दौलत के प्रति इतना अंहकार है कि उनकी हां में अगर कोई हां न मिलाये तो वे धन से अपना समर्थन अमेरिका की तर्ज पर बंद करने की धमकी देते हैं। उन श्रीमन जनों से मेरा निवेदन है कि फर्स्ट न्यूज मेरे दम पर नहीं चलता और न ही आपका दम व दम्भ उसे रोक सकता है। जब तक देवी मां चाहेगी तब तक मेरी कलम अविराम ही चलेगी। आपके विज्ञापन बंद करने की धमकी न तो मेरी कलम को, न ही इसके स्त्रोत को रोक सकते है।
फर्स्ट न्यूज का यह पेपर आपके लिए कागज का टुकड़ा हो सकता है पर मेरे लिए तो यह पूजा है - और इस पूजा के लिए साधन-देवी मां खुद जुटा देती है। नये-नये भक्त सच का साथ देने के लिए खुद आ जाते है- इसलिए अपने मन से यह भ्रम निकाल दीजिए कि आप के अधिकार में कुछ है। हम सब को चलाने वाली वो अदृश्य शक्ति ही है- पर हमारा मति भ्रम है कि हम स्वयं को ही सृष्टा मान लेते है।
ईश्वर आपको सद्बुद्धि दे, मैं यह मंगल कामना करता हूं। फर्स्ट न्यूज को विज्ञापन देने की आपको आवश्यकता नहीं है- मैं आत्मीय भाव से जो आपको फोन इस हेतु करता था- मेरा वो फोन आपके पास अब नहीं आयेगा.... और देवी मां के आशीर्वाद से फर्स्ट न्यूज के प्रकाशन में अर्थाभाव भी नहीं आयेगा। जब तक वो (इष्ट देवी) चाहेगी ये कलम अपना धर्म निभाती रहेगी।
(२) दूसरा सवाल उन दानदाताओं से है कि ईश्वर ने आपको दौलत दी है तो कृपया उसको उन हाथों में मत सौपिये जो भक्ति का मुखौटा पहनकर आते है और स्टेज शो जैसे अपना प्रदर्शन आपकी दौलत के बल पर कर जाते हैं।
समाज में अपनी पहचान सार्वजनिक रूप से करने की इच्छा हो सकती है-पर मुख्य अतिथि, विशिष्ट अतिथि या उद्घाटनकर्ता बन कर ही यह इच्छा पूर्ण हो यह जरूरी नहीं और फिर यह भी समझे कि आयोजन करने वालों की असली मनः स्थिति क्या है?
असहाय, दुर्बल, जरुरतमंद लोगों तक अपनी दौलत की शक्ति पहुंचाकर उनके दिलों में अपना नाम लिखवाइये अर्थात मसीहा बनिये...। तब लक्ष्मी खुद धन्य हो जायेगी-और आपके मन को असीम शांति मिलेगी।
(३) तीसरा सवाल समाज के आम वर्ग से.... जिसका मुझे सबसे अधिक समर्थन मिलता है और मेरे मन में समाज के आमवर्ग का ही हित सर्वोपरी रहता है।
मैं समाज के आम वर्ग से यह जानना चाहता हूं कि भक्ति के नाम पर फिजुल के प्रर्दशन को क्या आप समर्थन देते हैं? क्या यह जारी रखेंगे? देवी मां का प्राण प्रतिष्ठित मंदिर जब राजारहाट में है तो फिर पूजा अर्चना के लिए किराये के स्थानों पर मां की फोटो को लाना फिर ले जाना क्या आपको नहीं अखरता? अगर हां तो फिर वहां जाना क्या आपको उचित लगता है? ....उचित/अनुचित का ख्याल न करके भंडारे के नाम पर भीड़ जमा हो जाना क्या आपके मन को नहीं कचोटता? मां के लिए मन में भक्ति-आस्था की जगह आप सुविधा क्यों चाहते हैं? क्या आपको यह नहीं लगता कि मॉं के प्राण प्रतिष्ठित स्थान की हम जाने-अनजाने अवहेलना कर जाते है और भक्ति भाव का दिखाऊ व बिकाऊ प्रदर्शन करने वालों को हम समर्थन दे जाते है... जो कि उचित नहीं है...।
भविष्य आपका उचित फैसला चाहता है।
अंत में मैं यह निवेदन करना चाहता हूं कि मेरे मन में किसी के प्रति व्यक्तिशः मनोमालिन्य नहीं है.. समाज के हित को देखते हुए मुझे तो उचित जान पड़ा उसको निवेदित किया है-अगर किसी दिल को चोट पहुंची है तो मुझे क्षमा करे- क्योंकि मेरा मकसद किसी व्यक्ति विशेष पर प्रहार करना नहीं- मैं विसंगतियों पर चोट करना चाहता हूं।
दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियां मुझे बरबस याद हो आई है....
मेरा मकसद सिर्फ हंगामा खड़ा करना नहीं,
मैं तो चाहता हूं कि सूरत बदलनी चाहिए।