Wednesday, December 31, 2008

बहारो को सलाम

सूरज की पहली किरण को सलाम
भोर की नवेली दुल्हन को सलाम
उजालो की हर मूरत को सलाम
घूँघट में छिप्पी उसकी सूरत को सलाम
और
ब्लोगेर्स की सब मस्त बहारो को सलाम
कलम के हर नजराने को सलाम
शरारत के हर तराने को सलाम
मोहब्बत के हर दीवाने को सलाम
"सलाम "
संजय सनम

Tuesday, December 30, 2008

कुछ लिख दे |

वर्ष के आखिरी पन्ने पर कुछ रंगीन अंदाज लिख दे ,मन गर भारी भी हो तो भी खुश मिजाज लिख दे

आने वाले के लिए हम अपने अहसास लिख दे ,सफर के लिए कदमो की मस्त फलांग लिख दे

हमसफ़र वो बन रहा है हम उसे अपना रिवाज लिख दे, अपनेपन का रखना है वो लिहाज लिख दे

इस आखरी पाने पर दुओं की किताब लिख दे ,करना है जो- इन्कलाब लिख दे

और कुछ न लिख सके तो गुजारिश है कि मोहब्बत के अल्फाज लिख दे -फ़िर आप अपना ख्वाब लिख दे

वक्त को कह दे कि अब वो आपका मंजिल- ऐ मुकाम लिख दे

Monday, December 29, 2008

शुभकामना


नव वर्ष
की
आहट
मस्त
गुनगुनाती रहे
मुस्कानों के झरनों
में
मस्ती
नहाती रहे
भूल जाए
सब
दर्द के जलवे
खुशिया
जश्न
मनाती रहे
"शुभकामना "
संजय सनम

Wednesday, December 24, 2008

घडा पाप का भर गया है

पाक
को
भारत मे
आतंक फैलाने का
सबूत चाहिए ,
पर भारत को
पाक मे
बसे
आतंकियों के
ताबूत चाहिए
जब बात
बातो से
बन नही रही है
शायद तब
शरहदों पर
गर्मी बढ़
रही है
मटका पाप का
उसका इतना
भर गया है ,
की हिसाब
चुकाने के
लिए भारत का
मन अब
बन
गया है

संजय सनम

Monday, December 22, 2008

खडग उठाना अब जरुरी है


पाकिस्तान ने अपनी बदनीयती एक वारफ़िर आतंकी मामले में पुख्ता सबूत न मिलनेकी बात कह कर दिखा दी है जरदारी जिस तरह से जुबान पलट रहे है उससे यह साफ लगता है की पाक सरकार के हाथ भी मुंबई के घटना क्रम में बेगुनाहगारो के खून से रंगे हुए है_जरदारी के सफ़ेद झूट का फट्टा कपड़ा जिस तरह नवाजशरीफ ने उठाया है उसने पाक की लिपा-पोती की काली करतूत को नग्न कर दिया है पर जो बेशरम होते है वे भला नग्नता से कब डरते है ?बेशर्म जरदारी अब भी आँख मिचोली कर रहे है इन हालातो में हमारी चुपी हमारे मिजाज पर भी सवाल उठा सकती है क्योकि इतना कुछ भोगने के बाद भी हम प्यार की बात कर रहे है शैतानोके सामने सदभावनाकी बिन बजाना हमारी बुद्धि पर सवाल उठा रहा है_कभी कभी तो एसा भी लगता है की हमरा बहु बल शायद कमजोर इतना पड़ गया है की हम अपनी सुरक्षा के लिए भी खड़े नही हो पा रहे है आख़िर हमारी सहनशीलता की इस हदकी वजह और क्या है?क्यो नही हम खडग अब उठा लेते ?हम उसके अंदाज को क्यो नही समझ पा रहे है?

गिरगिट की तरह वो रंग बदल रहे है

शब्दों के वो अर्थ बदल रहे है

झूटी उसकी हर धड़कन

फ़िर क्यो हम ?

उसकी नब्ज पकड़ रहे है

हमारी यह मानसिकता हमसे ही सवाल ker रही है कीहम क्यो नही उसके नापाक हाथो को अपनी जमीन पर बारूद फैकने के लिए नही रोक पा रहे ,सिर्फ़ विरोध प्रकट करने या विश्वा मंच को बतला ने से अगर समस्या सुलझ जाती तो अब तक हमको अपने जख्मो को दिखाना न पड़ता पर हमारी खामोशी ही हमारा जब गुनाह बन गई हैतभी तो उसकी बदमाशी हम पर कहर मचा रही है आज आवश्यकता तो इस बात की है की हम पाक को यह संदेसा भेज दे की-

तेरी सीमा पर

अब गुब्बार उठने वाला है

ऐ पाक

तेरी मस्तानी को

चूर -चूर करने

अब हिंद

आगे बढ़ने वाला है

विश्वा मंच को भी हम अपना संदेश दे दे -

मत कीजियेगा फ़िर

आप हमसे शिकायत

हमने तो रखी थी

मुद्दतो तक शराफत

अब उसको दिखलाते है

होती कैसी है क़यामत ?

कल में नुक्ता-चीनी के ब्लोगर के उदार भावःआतंकी कसाब के लिए पढ़ कर दंग रह गया,मानवाधिकार की बात हमशा पिडीत के लिए ही उठनी चाहिए -उसके लिए कभी नही जो निर्दोषों के कत्ल का गुनहगार हो जिसके हाथ खून से रंगे हुए है फ़िर भी अगर हम उसके प्रति सहानुभूति की बात केरे तो यह उन लोगो के लिए अन्याय होगा जो इन वहशी तत्वों के शिकार हो चुके है वैसे भी पागल कुत्तो के साथ कोई रियायत नही बरती जाती क्योकि वो रियायत का महत्व नही समझते में मानवीय संवेदना को स्वीकार करता हूँ पर इतनी अधिक भावुकता पर अपना विरोध प्रकट करता हूँ

संजय सनम

Sunday, December 21, 2008

युद्ध कितना जरुरी है

पाकिस्तान की सरजमी भारत में आतंक का खोफ फैलाने के लिए खुलें आम प्रयोग हो रही है यह जानने के बाद भी हम उसे वो जबाब नही दे पा रहे है जो वक्त का तकाजा है यधपि पुरा विश्वा पाक को चतावनी दे रहा है पर बाहरी दिखावे के अलावा वहा कुछ खास कहा हो रहा है? बेशक हम लड़ना नही चाहते पर इस ड्रामे वाजी को और अधिक सहन भी तो नही क़र सकते शायद इसलिये युद्ध होना जरुरी है पर वो पाकिस्तानी अवाम से नही वरन सिर्फ़ आतंक वाद से है -हम चाहते है की पाक अवाम हमारी भावना को समझे व अपने हुक्मरानों को सही निर्णय लेने के लिए मजबूर करे क्योकि जखीरा बारूद का कहर कही भी बरपा सकता है अगर आग बारूद के उन गोदामों में लग गयी तो फ़िर पाक आवाम का क्या होगा ? ?हमारी चिंता सिर्फ़ अपनी नही बल्कि पाक आवाम की भी है और इसलिए निवेदन अब पाक आवाम से है की अपने आशियाने को जरा सम्हाल लीजिये क्योकि बारूद के सोदागर अपना घर बनाने लग गए है जहा अमन की समां जलारखी है आपने - वहा वो मातम के गीत गुनगुनाने लगे गए है जख्म हमारे आपको यह बताने लग गए है की शैतानो को शह आप क्यो दिलाने लग गए है ?
संजय सनम

Monday, December 15, 2008

आभार आपका |

मेरे ब्लॉग पर आपकी भावनाओ की आह्ट ने मुझे रोमांचित किया है पर आपको जबाब पहुचाने का पथ मुझे नही मिला इसलिए सयुक्त रूप से ही जबाब देना पड़ रहा है --हां अपना मोबाइल नम्बर दे रहा हूँ -०९४३४०-२७३८१ पर आप सम्पर्क कर सकते है
शायद हम एक पथ के राही होने की वजह से बहुत दूर तक साथ भी चल सकते है अर्थात हमराही हो सकते है अगर साथ अच्छा हो तो रास्ता आराम से कट जाता है व मंजिल -मुकाम भी जैसे चलते -चलते मिल जाता है
मै आपकी इस आह्ट को तहे दिल से पुन; सलाम करता हुवा अपनी मंगल भावना समर्पित करता हु
आपका -सनम

Sunday, December 14, 2008

धूम धड़ाका कितना जरूरी है?

संजय सनम
आ रहा नववर्ष... पर क्या आगाज धूम धड़ाके के साथ ही होना चाहिए। जब देश में आतंकियों के बारुद ने मौत का तांडव मचा रखा हो क्या इस माहौल में डिस्को की तर्ज पर कान फोड़ू संगीत की धुन पर थिरकते हुए ही नववर्ष का अभिनंदन किया जा सकता है? मानवीयता के नाम पर शोक विहल उन परिवारों के साथ क्या हम इतने भी खड़े नहीं हो सकते कि कम से कम जश्न की आवाज को तो धीमा कर दे। जो उनकेसाथ हुआ क्या उसके दर्द को हम महसूस नहीं कर पा रहे हैं गर ये हालात हमारे आस पास हुए होते तो क्या हम जश्न की धूमधड़ाके की तर्ज को याद रख पाते? बड़ा दुख होता है जब जवाब में यह सुनने को मिलता है कि मुंबई में जो कुछ हुआ उससे हमको क्या लेना देना, क्या वे लोग हमारी खुशी गम में शरीक होते हैं, फिर हम अपने मनोरंजन के लिए क्यों नहीं झुमें-गायें?बेशक आपकी खुशी-गम में मुंबई के वे लोग नहीं आते पर मानवीयता का जज्बा तो हर उस इंसान से आप तक जरूर पहुंचता है जिसके अंदर इंसानियत की आवाज हो। काश मेरे ये दोस्त "दुआ' की ताकत व जख्मों की पीड़ा को समझते तो वे हजारों किलोमीटर दूर रहकर भी उन अनजानों पीड़ितों के जख्मों पर दुआ का मरहम लगाकर मानवीयता का धर्म निभा सकते हैं।पर हमने अपने आपको अपनी खुदगर्जी की चारदीवारी के अंदर ही समेट लिया है। शायद इसलिए हम अपने आपको विस्तृत करके खुद को सबका नहीं कर पाये पर एक बात तो जरूर उन लोगों को सोचनी होगी कि "अगर हम सबके नहीं हो सकते तो फिर हमारा कौन होगा?'मुंबई हमले के बाद हमारे मुस्लिम भाईयों ने अपना पर्व अत्यंत सादगी के साथ मनाते हुए आतंकी चपेट में आये परिवारों के प्रति दुआ अता की, इसे ही इंसानियत का पाठ कहते हैं। जो हमारे मुस्लिम भाइयों ने कर दिखाया है।पर्व पर उत्साह की घेराबंदी रहे पर हम हालातों को देखकर कुछ वैसा ही रंग लगाये तो फिर वो रंग सकून देता है अन्यथा वो आंख में चुभने लगता है।नववर्ष का अभिनंदन गर्म जोशी के साथ हो पर इसके लिए कुल्हे मटका कर सर को फटा सा देने वाले संगीत की तर्ज पर मचलना थिरकना तो आवश्यक नहीं है। जो हालात हम सुन, पढ़ रहे हैंं क्या उन हालातों में प्रार्थना के स्वरों में आने वाले आगत का स्वागत नहीं किया जा सकता?अगर आज हम उन लोगों के दर्द को नहीं समझ पा रहे हैं जिन लोगों ने पिछले दिनों आतंकी हमले में बहुत कुछ खोया है॥ तो हमारा अपना जश्न एक दिन हमसे सवाल पूछ सकता है कि आंसूओं की तासीर कैसी होती है?हम उनके दर्द को बंटा तो नहीं सके पर आंसूओं से भीगी उन आंखों के सामने जश्न का वो नाच तो न दिखाये जो उनको चिढ़ाता सा दिखे।मेरा निवेदन है कृपया हम अपनी खुशी के प्रदर्शन का तरीका हालातों के आधार पर बदले। हमें खुशी मनाने का अधिकार है पर संवेदना को चोटिल करके झुमने-नाचने का कतई नहीं। इन हालातों में भी अगर हम जश्न के अंदाज को सादगी के रंग से रंगीन नहीं कर रहे हैं तो इंसानियत के उसूल का अतिक्रमण ही कर रहे हैं।अगर हम ऐसा करते हैं तो मैं इसे मनोरंजन नहीं बल्कि खुदगर्जी की मानसिकता कहूंगा.... क्योंकि आपसे हजारों किलोमीटर दूर अगर इंसानियत के पखरचे उड़ते हैं और आपको कोई फर्क नहीं पड़ता इसका सीधा सा अर्थ है कि आप सिर्फ उस पीड़ा को ही महसूस करते हैं जो आपको हुई है इसके अलावा बाहरी पीड़ा आपके लिए कोई अर्थ नहीं रखती।लगता है कि संवेदना की तलैया एकदम सुख गयी है अन्यथा एक बगिया के उजड़ने का दर्द दूसरी बगिया का बागवां जरूर समझता।एक आदमी के दर्द को अगर दूसरा आदमी नहीं समझ रहा तो फिर शिकायत किससे की जा सकती है? आतंक से भी अधिक स्थिति खतरनाक हमारी खुदगर्ज सोच है अगर ये हमले लगातार हो रहे हैं तो इसका एक अहम कारण हमारी मानसिकता की यह कमजोरी भी है। कोई मरे तो मरे, रोये तो रोये, पर हम अपने जश्न का कोई अवसर पीड़ित मानवता के लिए छोड़ना नहीं चाहते। हमारी यह सोच हमारे आस पास होने वाले विस्फोट की खाई बना रही है क्योंकि वे लोग हमारी इस कमजोरी का लाभ उठाने को तैयार बैठें हैं पर तब क्या हम ता ता थैया... करते रह पायेंगे?अब भी अगर आपका जमीर जश्न के उस अंदाज की इजाजत देता है तो आप अपनी चाहत को जरूर पूरा कीजिए, पर मुझे इस पर अपना विरोध अंकित करने की इजाजत भी दीजिए। मैं इन हालातों में जश्न के इस धूम-धड़ाके के अंदाज पर अपना विरोध प्रगट करता हूं।

Wednesday, December 10, 2008

प्रणाम जनता

संजय सनम

राज्यों के विधानसभा चुनावों के चुनाव परिणाम ने यह जता दियी है कि मतदाता अब स्टार प्रचारकों व लोकलुभावन नारों व वादों के शिकार नहीं होते बल्कि अब वो सरकार के काम काज की समीक्षा करके मतदान केंद्र पर जाने लगे हैं। वास्तव में देखा जाये तो मतदाता की यह समझ लोकतंत्र के लिए एक नई नींव का रूपक बन रही है और हमारे आकाओं के लिए चेतावनी का काम भी कर रही है कि अगर काम करोंगे तो वोट पाओगे नहीं तो लोट जाओगे।महत्वपूर्ण यह नहीं है कांग्रेस कितनी जगह जीती या भाजपा कितनी जगह पर। हमको इन पार्टियों की विजय-पराजय की गिनती नहीं करनी वरन हमें यह देखना है कि जनता ने क्या जनता के लिए काम करने वालोे के साथ न्याय किया है? विवेचन तो इस बात का महत्वपूर्ण है कि जनता कहीं भावनाओं के प्रवाह या प्रचार के तामझाम में तो नहीं चली गयी। विधानसभा चुनावों के ये आये परिणाम इस बात का सकून देते हैं कि जनता के ऊपर न तो पार्टी का प्रभाव पड़ा है न ही स्टार प्रचारकों के लच्छेदार भाषणों का। जहां सुशासन दिखा वहां जनता ने उसे पुनः स्वीकार किया जहां कुशासन दिखा उसको उसने खारिज किया अर्थात मतदाता ने अब अपने "वोट' की कीमत समझी है और अपने इस अधिकार का सही रूप से उपयोग किया है। उनका यह उपयोग अब राजनीति में नये संयोग दिखलायेगा कि जनता के दरबार की नौकरी अब काम करने वालों को ही मिलेगी, जो काम नहीं करेंगे उनको जनता सस्पेन्ड करती दिख रही है। जनता की इस समझ को दिल से प्रणाम करना चाहिए।

Tuesday, December 2, 2008

"विसर्जन' को मजाक मत बनाइये

संजय सनम

तेरापंथ समाज को समर्पित

जैन संस्कृति में श्रावक समाज के लिए "विसर्जन' शब्द की अपनी महत्ता है तथा इस शब्द की विशिष्टता अर्जन के साथ विसर्जन की उस परम्परा का बोध करवाती है-जो समाज की विभिन्न गतिविधियों के अंतर्गत कमजोर तबके के लोगों को शक्ति प्रदान करने में अहम भूमिका अदा करता है।पर इस "विसर्जन' शब्द की महत्ता, प्रायोगिकता व उपयोगिता का अर्थ अगर कार्यकर्ताओं की जमात ही भूल जाये तब विसर्जन का यह उपयोग मजाकिया हो जाता है। "विसर्जन' के इस कार्य में समाज के जो लोग अपना समय समाज के लिए प्रदान करते हैं उनके इस नियोजन को मैं हृदय से प्रणाम करता हूं, पर जब कोई कार्यकर्ता "विसर्जन' का अटारा लेकर दांव पेंच का इस्तेमाल करने लगता है तब उस कार्यकर्ता केहाथ से "विसर्जन' शब्द आहत् हो जाता है। "विसर्जन' शब्द की महत्ता तो गुपचुप दान (गुप्तदान) के रूप में होनी चाहिए, पर इसका स्टाइल तो अत्याधुनिक हो गया है। अब कार्यकर्ता स्वयं घरों में जाते हैंंं तथा अपनी श्रद्धा के अनुसार १०० रुपये से लेकर ऊपर आपकी इच्छा के मुताबिक विसर्जन की रसीद कटाने का आग्रह करते हैं। जब मैंने उनसे यह पूछा कि यह तो गुप्तदान के रूप में होना चाहिए, इस तरह रसीद काटने का उपक्रम मुझे समझ में नहीं आ रहा था, तब उन्होंने मुझे समझाने के अंदाज में कहा कि घरों में जा कर रसीद कटाने से तात्पर्य इस बात का भी है कि अगर कोई परिवार की आर्थिक स्थिति १०० रुपये देने की भी नहीं हो तो समाज की जानकारी में उस परिवार की स्थिति आ सके तथा समाज उस परिवार के लिए अपना आवश्यक दायित्व वहन कर सके। मुझे उनके इस जवाब में समाज के कमजोर वर्ग के प्रति समाज की प्रतिबद्धता की भावना तो अच्छी लगी, पर विसर्जन की रसीद के माध्यम से ही आप इनका डाटा जुटा पाये यह तर्क युक्ति संगत नहीं लगा। क्या किसी की कमजोर स्थिति सामने लाकर ही आप उसे जान सकते हैं... या उससे समाज के चार कार्यकर्ताओं के सामने यह कहलवाकर कि उसकी आर्थिक स्थिति १०० रुपये के विसर्जन की रसीद कटवाने की नहीं है, क्या तब हमारा समाज उस परिवार को अधिक जान पायेंगा? अगर कमजोर के मन में उसकी कमजोरी की हीन भावना को जमाकर फिर उसकी सहायता के लिए हम खड़े भी हो जायें तब भी क्या उस परिवार के मन की उस व्यथा को मिटाया जा सकता है? जो अपनी प्रक्रिया के अंतर्गत समाज के द्वारा उसको दी गयी है। खैर... यह भी विसर्जन की प्रक्रिया का एक वैचारिक पक्ष है पर अब मैं उस पक्ष पर आना चाहता हूं जिसकी इजाजत तो परम्परा कतई नहीं देती।"विसर्जन' का कोष जुटाने वाले कार्यकर्ता अगर एक व्यक्ति का नाम दूसरे व्यक्ति के सामने लेकर मनोवैज्ञानिक पासा फेंकने का कार्य करने लग जाये तथा यहां भी अगर सफेद झूठ का प्रयोग करने में भी कार्यकर्ता न हिचकिचाये तो सवाल उठता है कि विसर्जन की झूठ से भारी पोटली उठाने के लिए हमने संस्कारों की विरासती पोटली को कहां फेंक दिया? किसी व्यक्ति का नाम लेकर आप दूसरे व्यक्ति को उसकी झूठी रकम बतलाकर व उस व्यक्ति को मनोवैज्ञानिक रूप से मजबूर करके रसीद काटने की अगर कुटिल चाल चलते हैं...तो "विसर्जन' की मयार्दा से पहिले आप इस पोटली को उठाने का अधिकार भी खो देते हैं तथा वो व्यक्ति जो आपकी छद्म चाल से ठगा जाता है... उसके मन में आपकी यह करतूत "विसर्जन' को नासूर बना देती है। जहां संस्कार निर्माण की कार्यशालाओं का आगाज हो... वहां संस्कार निर्माण की धज्जियां अगर समाज के कार्यकर्ता ही उड़ाते दिखे तो फिर बतलाइये क्या गरिमा रहेगी उन कार्यशालाओं की तथा क्या उपयोगिता रहेगी "विसर्जन' के इस उपक्रम की। मेरा यह आलेख विशेषकर जैन समाज के "तेरापंथ' समाज को समर्पित है जहां विसर्जन के प्रक्रम की रफ्तार तो बहुत तेज है पर इस गाड़ी मेंंं पारंपरिक संस्कारों के कल पूर्जे ढ़ीलें हैं जो विसर्जन को "विष-अर्जन' बना रहे हैं। इसलिए आवश्यक है कि विसर्जन की प्रयोगिकता से पहिले उसके व्यवहारिक तौर तरीकों को कुछ इस तरह से बनाया जाये जिससे न सिर्फ जैन बल्कि अन्य समाज के लोग भी इस पुनीत उद्देश्य में उत्साह के साथ सम्मिलित हो सके पर विसर्जन का ढिंढोरा न पिटवाये कम से कम यह क्षेत्र तो बिना नाम के काम का छोड़ दिया जाये जिससे उस कोष में अपनी सामर्थ्य के अनुसार १०० रुपये देने वाला भी बिना किसी हीन भावना के वह गौरव अनुभूत कर सके तथा हजारों देने वाले भी अपने नाम के अहंकार से बच सके। लेखक-पत्रकार होने के नाते मैंने इस सत्यता को आवाज देने का धर्म निभाया है अगर आपको यह सच स्वीकार योग्य लगे व आप इस पर समुचित मंथन करें तो मुझे आत्मसंतोष मिलेगा। अगर आप इस सच को पचा नहीं पाये और मेरे प्रति विद्वेष पनपे... तो ख्याल रखें कि जिस जमीन पर हम खड़े हैं उसके आदर्श हमें क्या कहते हैं? मेरा धर्म सच को बिना लाग लपेट के सरल शब्दों से पाठक वर्ग तक पहुंचाना है, मैं अपना धर्म निभा रहा हूं। क्या आपसे आशा कर सकता हूं कि आप भी अपनी जवाबदेही का धर्म निभायेंगे?