Tuesday, June 14, 2011

हम सब दोषी हैं....

गंगा बचाव के आंदोलन में एक संत अपने सत्याग्रह को आखरी सांस तक ले जाकर शहीद हो गया और अब हमारी आंखे खुली है कि हम तब क्यों नहीं जगे? जब वो संकल्पित होकर सत्याग्रह में बैठा था... संवेदनहीन सिर्फ राजनीति ही नहीं है... असंवेदन शील हम सब भी हैं- हम में और राजनीति में बस एक फर्क है कि राजनीति मौत पर भी नहीं पसीजती और लाश को हथियार बना कर वार करने से नहीं चुकती... हम बाद में ही सही पर पछतावा भीतर से महसूस तो करते हैं। हम भीड़ को देखते हैं, चकाचौंध को देखते हैं- और उसका हिस्सा बन जाते हैं... यह हमारा सबसे बड़ा गुनाह है- काश हमने उस संत के संकल्प और उसके सत्याग्रह को भी महत्व देकर उसका समर्थन किया होता तो शायद उसकी आवाज पर राजनीति को करवट बदलनी पड़ती... कोई संवाद होता और संत का जीवन नहीं जाता।
दोषी रामदेव भी हैं... उनके ही क्षेत्र में यह घटनाक्रम चला और उन्होंने एक संत के रुप में संत की ही सुध नहीं ली... अब उनकी श्रद्धांजलि बस औपचारिकता लगती है... यहां संवेदना की अनुभूति नहीं है।
दोषी वो संत समाज है- जो बाबा रामदेव की चमक-दमक के पीछे मंडराता नजर आया पर उस संत के सत्याग्रह पर खामोश ही रहा। मीडिया के क्षेत्र से मैं स्वयं व इस क्षेत्र में काम करने वालों को विशेष दोषी मानता हूं- अगर मीडिया के कैमरे वहां चमके होते तथा संवाददाता इस विषय पर सवालों के साथ गरजे होते तो यह विषय आम जनता के बीच जाता और जनता जब जगती तो राजनीति को भी जगना पड़ता... शायद यह मौत तब नहीं होती।
यह मौत संवेदना की मौत है, कर्तव्य परायणता की मौत है तन्हाई- अकेलेपन की मौत है... इस मौत ने कई चेहरों को बेनकाब किया है... गौर से देखे तो सब तरफ राजनीति ही दिखती है और राजनीति में संवेदन नहीं उत्पीड़न दिखता है- यहां सच्चा सत्याग्रही तब तक नहीं बच सकता जब तक वो नामी-गिरामी न हो जाये इसलिये सत्याग्रह करने वालों से निवेदन है कि पहले नाम कमाइये अन्यथा इस देश में सत्याग्रही का हश्र कुछ ऐसा ही होता है।
मीडिया क्षेत्र को सबक लेते हुए एक सिद्धांत लेना चाहिए कि सत्यसंकल्पी कमजोर पक्ष को ताकतवर बनायेंगे- क्योंकि मीडिया की महत्ता व उसकी भूमिका अहम है... और हमको अपनी अहमियत को समझते हुए उस पक्ष की आवाज बनना होगा- जिसके पास चमक-दमक का बाह्य आवरण नहीं है पर संकल्प श्रेष्ठ है... उसकी सफलता में हमारा सहयोग राष्ट्रधर्म व नैतिक सहयोग होता है। इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने भूल सुधार की है... इस सवाल को अच्छी कवरेज के साथ उठाया है- पर प्रिंट मीडिया ने मुख पृष्ट की यह खबर शायद अब तक नहीं मानी है- यहां अधिक प्रसार वाले समाचार पत्रों की जिम्मेवारी बहुत अधिक हो जाती है। बाबा रामदेव अनशन तोड़कर भी पहली खबर बनते हैं... और वो संत सत्याग्रह पर कुर्बान होकर भी पहले पन्ने पर उनकी मौत की खबर नहीं आती.. क्या कहियेगा ?

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