Saturday, June 6, 2009

चुटकी

राष्ट्रपति पद पर

महिला।

लोकसभा अध्यक्षा भी

महिला।

रिमोट से सरकारचलाने वाली भी

महिला।

फिर भीमहिलाओं की स्थिति

दयनीयअगर है...तो

यह सवाल विचारणीय है।

संजय सनम

किधर जायेगा शेयर बाजार?

शेयर बाजार कुलाचे मारकर अब कुछ थका हुआ लग रहा है। पर निवेशक और विश्लेषक दोनों ही असमंजस में है कि तकनीकी सुधार कब और किस हद तक आयेगा? जहां तक निवेशकों का सवाल है-दूध का जला छाछ भी फूंक फूंककर पीता है.... वाली बात है उनकी तलपट कुछ सुधरी है पर भावों की दिल्ली अभी भी दूर है। अब निवेशक भी दो राहे पर खड़ें हैं उनका एक मन तो कहताहै कि धैर्य रखा जाये और इंतजार किया जाये ताकि बाजार की सरपट चाल अगर कुछ दिन और ऐसी चले तो तलपट का लाल निशान खत्म हो जाये पर दूसरा मन यह भी कहता है कि ८००० के सूंचकांक से १५००० तक पहुंचा यह सफर कहीं झटका देकर १२००० के मुकाम तक तकनीकी सुधार के नाम पर आ जाये तो अब तक मिली राहत फिर सरक सकती है। विश्लेषक कहते हैं कि अगर निफ्टी ४६४० की मंजिल को पार कर जाये तो बाजार में तेजी का यह सफर जारी रह सकता है। अन्यथा मंदी के मजबूत संकेत है और २००० से ३००० प्वाइंट तक का झटका सेन्सेंक्स में आ सकता है। ज्योतिष दृष्टि से अगर देखें तो १५ जून को गुरु महाराज कुंभ राशि में वक्रिय हो रहे हैं पर फिर भी इनका संचरण कुंभ राशि में ही है इस लिहाज से यहां विशेष उथल-पुथल तो संभावित नहीं लगती पर जुलाई के अंतिम सप्ताह में गुरु महाराज वक्र गति से चलते हुए कुंभ राशि से मकर राशि में प्रवेश कर जायेंगे और यहां पर शेयर बाजार के लिए विशेष विपरित स्थिति का निर्माण होगा। मेरा ख्याल है बैंकिंग सेक्टर विशेष रूप से फिर प्रभावित होंगे। इसलिए निवेशक निवेश को आउट और इन करने से पहिले अपने पोर्टफोलियों का निर्माण कंपनियों के सही चुनाव के साथ करें। प्रोफिट बुंकिंग अच्छी कंपनियों में त्वरित नहीं कीजानी चाहिए क्योंकि इससे अच्छी कंपनियां फिर हाथ से छूट जाती है तथा कचरा शेयरों में लंबे मुनाफे की इच्छा भी नहीं रखनी चाहिए इससे ये शेयर अन्ततः बड़ा धोखा दे जाते हैं। इसलिए निवेश करने से पहिले तथा माल बेचने से पहिले दोनों तरफ सावधानी जरूरी है। इस सप्ताह से हम अपने स्त्रोतों से प्राप्त जानकारी के आधार पर शेयर टिप्स दे रहे हैं निवेश करने से पहले आप अपने स्त्रोतों से पूरी जानकारी प्राप्त करके फिर निवेश करेंःफर्स्ट न्यूज शेयर टिप्स-इलेक्ट्रो स्टील कास्टिंग-यद्यपि नीचे के भावों से उछाल काफी आ गया है पर कंपनी के परिणाम जून के आखरी सप्ताह में अत्यंत उत्सावर्द्धक आने की संभावना है। ३७-३८ के बीच चल रहे इस शेयर के ७० से ८० रुपये तक आने की संभावना है।-के.एस. आयल - निवेशकों की पसंद की स्क्रिप्ट यह बनी हुई है। तेजी से भाव इसके भी बढ़े है पर कंपनी की परफारमेन्स इसमें तेज रफ्तार बनाती दिख रही है इस बात की संभावना है कि १०० रुपये के आसपास तक इसके भाव बन सकते हैं।-विनसम यार्न- जो निवेशक जोखिम उठाने में विश्वास रखते हो उनके लिए विनसम यार्न उठा पटक का मजा दे सकता है। वैसे भी आने वाला समय टेक्सटाइल सेक्टर के लिए अनुकूल लग रहा है। इस शेयर में गतिविधि आने वाले दिनों में विशेष दिख सकती है। -संजय सनम

Friday, May 8, 2009

"सुहाग सेज सजाने की तैयारी'

जी हां.... सत्ता सुंदरी को पाने के लिए स्वयंवर का चौथा चरण पूरा हो गया है बस अब सिर्फ एक और चरण ही बाकी रह गया है। स्वयंवर की यह परीक्षा की घड़ी खत्म होने से पहले राजनीति के नौजवान बुढों में सत्ता सुंदरी के साथ सुहाग सेज पर जाने की तमन्ना इतनी जोर पकड़ती दिख रही है कि हर कोई अपने-अपने रूप से सुहाग सेज सजाने लग गया है। राजनीति की इस सत्ता सुंदरी का यह दुर्भाग्य है कि उसको वरण करने के लिए कतार में सिर्फ बुढे ही बुढ़े खड़े हैं... वो भी अपने आपको कोस रही है कि ११० करोड़ के इस देश में चिकना-चुपड़ा कोई जवान उसको बांहों में भरने के लिए नहीं मिल रहा। इस बार इन बुढों के हाथ से ही घूंघट उठवाना पड़ता है और फिर बात घूंघट उठाने से आगे ही कहां बढ़ती है? ये तो फिर गोद में सो जाते हैं.... इतना ही नहीं... इनमें तो अपनी चीज को जतन से रखने का सलीका भी नहीं है अपना भाग बचाने के लिए अपने ही जैसे कुछ और बुढों को भी मुंह मारने के लिए ले आते हैं.. दरअसल सत्ता को इन लोगों ने वेश्या से भी बदतर बना रखा है जहां आकर मुंह मारकर निढाल हो जाते हैं। सत्ता की ये सुंदरी भी अब इन आउठ डेटेड चेहरों से ऊब गयी है... पर ये लोग फिर भी नहीं समझते अगर सवाल किया जाये तो इनका जवाब यह भी हो सकता है कि बंदर अगर बुढा हो जाये तो गुलाटी मारना कब भूलता है?सच कहा जाये तो राजनीति के इस दंगल में कुर्सी के लिए सब लोग गुलाटी ही मारते दिख रहे हैं सत्ता सुंदरी का यह मलाल कि आखिर कब तक बुढ़ों के द्वारा ही उसका घूंघट उठाया जायेगा? इसे एक सजी धजी दुल्हन की व्यथा चाहे न समझे पर कोठेे में बैठी तवायफ भी अपने ग्राहक को बांका जवान ही तो चाहती है। क्या राजनीति में सन्यास देने का कानून नहीं बनना चाहिए। मैंने यहां लेने शब्द का प्रयोग इसलिए नहीं किया है क्योंकि यहां सन्यास स्वतः लेना मुश्किल होता है। सोमनाथ दा जैसे अपवाद कहां मिलते हैं? यहां तो जबरन विदाई देनी पड़ती है। हमारी भारतीय संस्कृति में बुजुर्गों का अनुभव सीखा जाता है सम्मान के साथ उनको विश्राम दिया जाता है उनकी सेवा की जाती है। पर राजनीति के ये लोग बुजुर्ग की इस गरिमा को खो चुके हैं और ऐसे बुढ़े बन गये हैं जिनकी अतृप्त आकांक्षा इस कदर मचल रही है कि इन्हें सत्ता सुंदरी के अलावा और कुछ दिखाई नहीं देता। अब बतलाइये की राजनीति के कमरे में सत्ता सुंदरी की सुहाग सेज चाहे किसी युवा की ही चाहत क्यों न करें... पर जब तक कोई कानून एक निश्चित उम्र के बाद चुनाव न लड़ सकने या महत्वपूर्ण संवैधानिक पदों पर आसीन होने से रोकने का नहीं बन जाता तब तक इन बुढ़ों के हाथ में ही सरकार रहेगी और देश भी तब तक बुढ़ा ही रहेगा। संजय सनम

Monday, May 4, 2009

ऐसा क्यो होता है ?

कितने बेशरम है ये

जो जनता के सामने

जुबान से नंगे होकर लड़ते है

पर दिल्ली की कुर्सी पर

काबिज होने के लिए

फ़िर गले मिल लेते है

तब ऐसा लगता है कि

वो जनता के वोट को

मजाक बनाकर

जबरन कुर्सी का

अधिग्रहण

कर लेते है

कुर्सी के इस तंत्र को

फ़िर जनतंत्र क्यो कहा जाता है ?

जमीर के कपड़े

उतारने वालो के लिए

जनता के वोट को

तब क्यो ?

नंगा किया जाता है

संजय सनम

Friday, May 1, 2009

यह कैसी मज़बूरी ?

चुनाव के बाद
जहा नेता रखते है
अपनी जनता से दुरी
उस जनता के
हाथ में नही
लाकतंत्र की घुरी
खोट्टे सिक्के
चलाने की
उसकी है मजबूरी
फ़िर भी है उसको
वोट देना जरुरी
हाय -हाय
यह कैसी .....
संजय सनम

Saturday, April 18, 2009

तीसरे मोर्चे
के शीशे पर
फेका गयापत्थर
मनमोहन के
अपने घर में
लग सकता है
बंगाल के
चुनावी दंगल में
अमंगल
हो सकता है
संजय सनम

Friday, April 17, 2009

कहां गये वे समाजसेवी?

फर्स्ट न्यूज साप्ताहिक के पिछले अंक में सेवाधर्म करने वालों से एक विनम्र अपील एक गरीब महिला की जीवन रक्षा के लिए प्रकाशित की गयी थी तथा स्वयं सेवी संस्थाओं व समाज सेवियों से सहायता का हाथ बढ़ाने का अनुरोध किया गया था अत्यंत गंभीर अवस्था में इस महिला को रिकवरी नर्सिंग होम के संचालक डा. एस. के. अग्रवाल ने मानवीयता का जज्बा दिखाते हुए अपने नर्सिंग होम में भर्ती करके ८ तारीख की आधी रात से ही उसके इलाज में जूट गये और उनके अथक प्रयास की वजह से आज वो महिला खतरे से बाहर आ गयी है।फर्स्ट न्यूज के एक फोन पर डा. एस. के. अग्रवाल ने यह कहते हुए कि मैं अपनी तरफ से पूरी कोशिश करूंगा व इलाज में खर्च को जहां-जहां कम किया जा सकता है मैं अपनी तरफ से वो सब कुछ भी करूंगा। डाक्टर एस. के. अग्रवाल की इस भावना का ही कमाल था कि मैं उस महिला को जो कल्याणी के जवाहरलाल नेहरू सरकारी अस्पताल में बिना सटीक इलाज की वजह से छटपटा रही थी को रिकवरी नर्सिंग होम में लाने की हिम्मत कर सका। लेकिन मुझे दुख इस बात का है कि उस विनम्र अपील पर समाजसेवी का तमगा लगाकर सेवा का प्रचार करने वालों पर खास असर नहीं हुआ। मैंने फर्स्ट न्यूज के उस पत्र को अनेक स्वयंसेवी संस्थाओं, उद्योगपति व स्वनामधन्य समाज सेवियों तक इस आशा के साथ पहुंचाया कि वे लोग रिकवरी नर्सिग होम के डा. एस. के. अग्रवाल की इस पहल रूपी सेवा धर्म यज्ञ में अपनी आहूति अर्पित करेंगे। पर ऐसा लगा जैसे अखबारों में सेवा धर्म करते दिखने वाले तथा मंचों पर नजर आने वाले वो बड़े-बड़े नाम अखबार में अपनी फोटु व खबर छपाने के लिए तो हजार रुपये का नोट दे सकते हैं पर बिना प्रचार की सेवा में एक रुपया भी खर्च नहीं कर सकते। मैं हृदय से आभारी हूं हावड़ा ब्लेक रोज क्लब के श्री जयप्रकाश गुप्ता का जिन्होंने आपात स्थिति में ४ बोतल खून का प्रबंध करवाया तथा उन सभी सेवाधर्मी बंधुओं का जिन्होंने बिना किसी प्रचार की अपेक्षा के अपने सामर्थ्य के अनुसार अपना अंश दान करके यह बताया कि कलयुग के इस काल में सतयुग का सत्व छिपे हुए रुस्तम के रुप में जिन्दा है- जिससे इंसानियत का यह शब्द गौरवान्वित होता है। अब पाठकगण इनमें और उनमें फर्क देखें... एक तो ये है जो बिना नाम की आशा के अपने सामर्थ्य के अनुसार जरूरतमंदो की जरूरत को पूरा करने में सहयोग बनते हैं, एक वो है जिनको प्रायः आप अखबारों में समाज सेवी के अलंकरण से सेवा कार्य का नगाड़ा बजाता सा देखते हैं और उनमें से अधिकांश की फोटु व खबर लिफाफे के वजन के आधार या सालाना कांट्रेक्ट के आधार पर छपती है...। सेवा धर्म की नींव की ईंट और कंगुरे की पहिचान हमको करनी है तथा नींव की हर ईंट का हमको सम्मान भी करना होगा। चिकित्सा के इस पेशे में मानवीयता की मिसाल रिकवरी नर्सिंग होम के संचालक डा. एस. के. अग्रवाल ने जो दिखाई है वो संपूर्ण चिकित्साजगत में प्रेरणादायी है। मानवीयता का सच्चा सम्मान डा. एस. के. अग्रवाल जैसे व्यक्तित्व को मिलना चाहिए ऐसे व्यक्ति का अभिनन्दन सेवा धर्म की असली परिभाषा को रेखांकित करता है। देखना यह है कि क्या सेवा संस्थाएं प्रेरणा की इस अलख को जगाने की कवायद करती है?यह घटना मेरे लिये चमत्कार से कम नहीं है क्योंकि शांति देवी को जब ८ अप्रैल की मध्य रात्रि में मरणासन्न स्थिति में रिकवरी नर्सिंग होम में भर्ती किया गया था उस वक्त न तो यह पता था कि ये बच भी पायेगी या नहीं और न ही यह समझ पाये थे कि इलाज में कितना खर्च होगा?पहली हिम्मत डा. एस. के.अग्रवाल ने दी थी कि मरीज की जान बचाने व खर्च में कटौती की भी हर संभव कोशिश की जायेगी। शेष कार्य फर्स्ट न्यूज में की गयी अपील ने किया.. नर सेवा को नारायण सेवा मानने वाले अपना फर्ज अदा कर गये... इस गरीब महिला के इलाज का खर्च अभी तक डा. अग्रवाल ने जोड़ा नहीं है पर सेवाधर्मी महानुभावों की तरफ से आई राशि का योग पच्चीस हजार की जोड़ पार कर चुका है. यह चमत्कार से कम नहीं है.. जहां ऐसे सहृदयी लोग छुपे रुस्तम की तरह रहते हो वहां सेवा की पहल करने की हिम्मत अब और भी की जा सकती है क्योंकि बाद में सम्हालने वाले दयावान लक्ष्मीपुत्रों का साथ मिल जाता है। ईश्वर से कामना है कि ऐसे महानुभावों को सुखी-शांति व समृद्धि की त्रिवेणी संगम प्रदान करे जो असहाय के सहाय बनकर वक्त पर काम आते हैं।मुझे आत्म संतुष्टि है कि फर्स्ट न्यूज में कार्यरत कृष्ण कुमार दास के सर पर मां रूपी छत गंभीर तूफान से डा. एस. के. अग्रवाल की मानवीय पहल व सहृदयी महानुभावों के सामूहिक प्रयास से बच गयी। मैं इन सभी महान आत्माओं को आभार सहित वंदन करता हूं। संजय सनम

Sunday, April 12, 2009

दिन-दहाड़े लूट रही पुलिस

फर्स्ट न्यूज कार्यालय डेस्ककोलकाता। ट्रैफिक नियमों के उल्लंघन का कारण बताकर, गाड़ी को अटकाकर रिश्वत रूपी ५०० रुपये मांगने व नहीं देने पर टैक्सी को श्यामपुकुर थाने में ले जाने व टैक्सी में पत्रिकाओं को लाने वाले व्यक्ति को थाने में बंद करने की धमकी देकर उस व्यक्ति से ३०० रुपये ऐठने की घटना शोभाबाजार मेट्रो के पास दिनांक ७ अप्रैल २००९ को मध्यान्ह २.३० बजे के करीब हुई। इस घटना में अपनेे आपको स्टार आनन्द का पत्रकार बतलाने वाला एस. भट्टाचार्य ट्रैफिक पुलिस कांस्टेबल द्वारा रुपये उगाहने की प्रक्रिया में दलाल सी भूमिका का निर्वाह कर रहा था। लोकनाथ बुक बाइडिंग से ७ अप्रैल मध्यान्ह २.३० बजे करीब १८०० फर्स्ट न्यूज पत्रिकाओं की एक खेप एक टैक्सी नंबर डब्ल्यूबीओयू-६०५१ के द्वारा फर्स्ट न्यूज हावड़ा मैदान के लिए लाई जा रही थी कि शोभा बाजार मेट्रो के पास ट्रैफिक कांस्टेबल दुर्गापदो राजक ने टैक्सी को अटका कर उसमें सवार बुक बाइन्डर "बापी' से जवाब तलब करने लगा। जब फर्स्ट न्यूज कार्यालय को इसकी सूचना मिली तो कार्यालय के द्वारा बापी से संपर्क करते हुए उपस्थित अधिकारी से बात की गयी तब अधिकारी कांस्टेबल दुर्गाप्रसाद ने फर्स्ट न्यूज संपादक को बताया कि टैक्सी मेंपत्रिकाओं को लाना नियमों का उल्लंघन है तब संपादक के द्वारा खेद प्रगट करते हुए पुनःऐसी भूल न होने का आश्वासन देते हुए एक निवेदन किया गया कि आप जुर्माना काटकर रसीद देकर गाड़ी को कृपया छोड़ दें इतने में ही उस अधिकारी महोदय ने अपना फोन उस व्यक्ति को पकड़ा दिया जो अपने आपको स्टार आनन्द का पत्रकार बताते हुए यह कहने लगा कि हमारे इलाके से हमको बिना पूछे पत्रिकाएं टैक्सी में लायी जा रही है। जब उससे उसका नाम पूछा गया तब उसने एस. भट्टाचार्य बतलाया फिर जब उसको जुर्माना कटाने व रसीद दिलवाने की बात कही गयी तब उस तथाकथित पत्रकार ने यह कहते हुए कि रसीद नहीं मिलेगी फोन काट दिया। इसके पश्चात वे लोग मिलकर बुक बाइन्डर को धमकाने लगे तथा ५०० रुपये की मांग की गयी। जब बापी से कार्यालय को यह जानकारी मिली तो उस तथाकथित पत्रकार व कांस्टेबल से बात करवाने को कहा गया लेकिन वे लोग फिर बात करने के लिए नहीं आये।तब कार्यालय से बुक बाइंडर बापी को निर्देश दिया गया कि अगर पुलिस व तथाकथित दलाल श्यामपुकुर पुलिस स्टेशन टैक्सी को ले जाना चाहते हैं तो आप चले जाइये। पर बिना रसीद के रुपये नहीं देने है।जब बापी ने अपना यह निर्णय उन लोगों को सुनाया तो वे लोग उसे थाने में ंबद करने की धमकी देकर बापी से ३०० रुपये झाड़ने में कामयाब हो गये। जब रुपये देकर छुड़ाने की जानकारी फर्स्ट न्यूज कार्यालय को मिली तो कार्यालय ने पहले श्यामपुकुर थाने में फोन करके पुलिस द्वारा दिन दहाड़े रिश्वत रूपी लूट की यह घटना बताते हुए शोभाबाजार मेट्रो के उस चौराहे पर ड्यूटी पर तैनात अधिकारी का नाम जानना चाहा तब फर्स्ट न्यूज कार्यालय को यह बतलाया गया कि हो सकता है वहां पर ड्यूटी में तैनात अधिकारी ट्रैफिक पुलिस का हो यह कहते हुए उन्होंंने जोड़ा बागान ट्रैफिक कंट्रोल का फोन नंबर दिया। इसके पश्चात ट्रैफिक (जोड़ा बगान) बात की गयी तथा फर्स्ट न्यूज प्रतिनिधि श्रीमती सरवानी दास को दोनों विभागों में इस रिश्वत कांड की शिकायत करने व रिश्वत लेने वाले पात्रों का बायोडाटा लेने के लिए भेजा गया। जब फर्स्ट न्यूज प्रतिनिधि श्रीमती सरबनी दास ने जोड़ा बागान ट्रैफिक गार्ड कार्यालय में इस घटना को बताकर उस वक्त ड्यूटी आफिसर का नाम जानना चाहा तो ड्यूटी आफिसर सार्जेन्ट दिप्तियान कोर बताया गया तथा यह आश्वासन भी दिया गया कि अगर हमारे विभाग का कोई अधिकारी गुनहगार पाया गया तो उसको सजा दी जायेगी। जब फर्स्ट न्यूज प्रतिनिधि शोभा बाजार मेट्रो के पास घटनास्थल पर पहुंच कर वहां ड्यूटीरत सार्जेन्ट से घटना का विवरण जाना तब उन्होंने इस घटना से अनभिज्ञता जाहिर करते हुए उस वक्त घटनास्थल पर कार्यरत ट्रैफिक कांस्टेबल दुर्गा पदो रजक को बुलवाया गया जो कि इस रिश्वतकांड का एक खास पात्र था,ने घटना को स्वीकार किया परंतु रिश्वत लेने से इन्कार किया। हैरत की बात यह रही कि ट्रैफिक कास्टेबल दुर्गापदों ने उस तथाकथित पत्रकार एस. भट्टाचार्य को नहीं पहचानने की भी बात कही इस बीच ट्रैफिक के एडीशनल ओसी ने फर्स्ट न्यूज प्रतिनिधि के साथ ट्रैफिक कांस्टेबल दुर्गापदों को श्यामपुकुर थाने में अपनी गाड़ी से भेजा साथ में बुक बाइन्डर बापी भी था। श्यामपुकुर थाने के सामने तथाकथित पत्रकार एस. भट्टाचार्य अपनी बाइक के पास खड़े थे जिनकी पहचान बापी के द्वारा हमारे प्रतिनिधि को करवाई गयी। आश्चर्य तब हमारे प्रतिनिधि को हुआ जब आरोपी कांस्टेबल दुर्गापदो उस पत्रकार से घुल मिल बात करते दिखे फिर हमारी प्रतिनिधि ने आरोपी पत्रकार एस. भट्टाचार्य से घटनाक्रम के बारे में बात करने की कोशिश की तो एस. भट्टाचार्य ने उस महिला प्रतिनिधि के साथ अशालीन शब्दों का प्रयोग करते हुए यहां तक कह दिया कि यहां तक आने के लिए आपकी हिम्मत कैसे हुई?... एटा आमार इलाका... ओसी व ट्रैफिक कांस्टेबल आमार बांधु... जब यह संवाद फर्स्ट न्यूज प्रतिनिधि व आरोपी पत्रकार एस. भट्टाचार्य के बीच चल रहा था तब श्यामपुकुर थाना प्रभारी एस. के. मित्रा थाने के सामने हो रहे इस तनाव का जायका सामने खड़े होकर ले रहे थे तथा एक महिला पत्रकार को पत्रकारिता की शिक्षा धमकियों से देने वाले उस तथाकथित पत्रकार को नहीं रोक रहे थे। जब फर्स्ट न्यूज प्रतिनिधि ने थाना प्रभारी से सवाल करने की कोशिश की तो उन्होंने झिड़कते हुए न्यूज बनाकर छापने की चुनौती तक दे दी।उक्त आरोपी पत्रकार ने उस पुलिस गाड़ी ड्राइवर को धमकाते हुए कहा कि आजे बाजे लोग को केनो तुले सो? एडशिनल बाबू र कोथाय? उनाके बोलबे आमार संगे कोथाय कोरते....। यहां पर ये आरोपी पत्रकार अपने आपको ऐसा दिखा रहा था जैसे पुलिस विभाग की इस क्षेत्र की चाबी ही उसके पास हो।जब फर्स्ट न्यूज प्रतिनिधि वहां से शोभाबाजार मेट्रो पहुंची तब उक्त आरोपी पत्रकार ने फर्स्ट न्यूज व उसके संपादक के बारे में सवाल पूछने शुरू कर दिये तथा शोभा बाजार के इस इलाके को अपना इलाका बताकर फिर धमकी दी तथा फर्स्ट न्यूज संपादक को घटनास्थल पर आने की चुनौती दी इस अवसर पर आसपास के लोग व ड्यूटीरत पुलिसकर्मी भी थे। मामले को इस सीमा तक बढ़ते देखकर फर्स्ट न्यूज संपादक घटनास्थल पर पहुंचे पर उनके पहुंचने से पहिले ही ये तथाकथित पत्रकार वहां से निकल गया। शोभाबाजार मेट्रो के पास आधे घंटे से भी अधिक फर्स्ट न्यूज संपादक ने वहां खड़े स्थानीय लोगों से बात की तब पता चला कि पत्रकारिता की वर्दी पहन कर यह शख्स श्यामपुकुर थाने व जोड़ाबागान ट्रैफिक कंट्रोल के साथ मिलकर दिन दहाड़े लूट की दुकान चला रहा है। पर स्थानीय लोग पुलिस के झमेले की वजह से प्रतिरोध नहीं कर पा रहे हैं। यहां के लोगों से बात कर फर्स्ट न्यूज संपादक अपने प्रतिनिधि श्रीमती सरबनी दास के साथ श्यामपुकुर थाना प्रभारी से इस घटनाक्रम पर मिलने पहुंचे। जब पत्रकार एस.भट्टाचार्य का नाम आया तब थाना प्रभारी सम्राट के नाम से उसकी पहचान बताने लगे तथा उन्होंने सम्राट भट्टाचार्य व इस घटना की शिकायत स्वीकार करने की तो बात कहीं पर कार्रवाई क्या की जायेगी, उसको टाल गये। थाना प्रभारी ने सम्राट के साथ पारिवारिक रिश्ते से तो इन्कार किया पर गाढ़ी जान पहचान के रूप में दोस्ती के रिश्ते को फिर भी नहीं छुपा सके। थाना प्रभारी ने इस समूची घटना को ट्राफिक पुलिस पर डाल दिया तथा इस सवाल का भी जवाब नहीं दे सके कि थाने के सामने उनकी उपस्थिति में महिला पत्रकार के साथ अगर कोई उनका बन्धु अभद्र व्यवहार कर रहा है तो उस वक्त वो चुपचाप क्यों देखते रहे?थाना प्रभारी के द्वारा सम्राट भट्टाचार्य के विरुद्ध स्टार आनन्द में शिकायत दर्ज करवाने की नसीहत आश्चर्यजनक लगी पर छुटते-छुटते थाना प्रभारी ने जब कानून को हाथ में ले लेने की सलाह कुछ इस तरह जब दी कि "कहीं वो मिले तो धक्का मार दीजिए' तब ऐसा लगा कि थाना प्रभारी अपनी गलती को छुपाने के लिए सामने वाले पक्ष को गुनाह करने के लिए उकसाने की कोशिश में किस हद तक नीचे गिर सकते हैं।इस समूचे घटनाक्रम की सार स्वरूप शिकायत माननीय पुलिस कमिश्नर सहित बंगाल गृह सचिव, डीसी (कंट्रोल रूम) व अन्य उच्च विभागों में कर दी गयी है।इस घटना के प्रतिवाद के माहौल का असर श्यामपुकुर थानान्तर्गत शोभा बाजार मेट्रो के पास देखा जा रहा है। अब पुलिसिया गुण्डागर्दी व दलाल की हेकड़ी का पारा उतरा हुआ बताया जा रहा है तथा सम्राट भट्टाचार्य नाम से वो पत्रकार जो पहले स्टार आनन्द का अपने आपको पत्रकार बतला रहे थे अब उन्होंने नाम बदलने शुरू कर दिये हैं। स्थानीय लोग पुलिस की गुण्डागर्दी व पत्रकार के भेष में पुलिस के इस दलाल की दादागिरी से निजात चाहते हैं।

इनकी वर्दी उतारी जाये

फर्स्ट न्यूज साप्ताहिक में प्रकाशितअगर कानून के रखवाले कानून की रक्षा की वर्दी पहनकर दिन- दहाड़े बीच सड़क पर नियम-कानून की आड़ में भाड़े के दलाल के साथ आम जनता को डराकर-धमकाकर उनके पॉकेट से रुपये निकलवाने जैसा घृणित काम करें... और थाने के अधिकारी दलाल व उस कॉन्स्टेबिल का संरक्षण करें- तो ऐसे लोगों की तत्काल प्रभाव से वर्दी उतार दी जानी चाहिए़।इसी प्रकार पत्रकारिता की गरिमा को कलुषित करने की कोशिश अगर कोई व्यक्ति पुलिस का दलाल सा बनकर बीच सड़क में आम जनता को कानून का डण्डा द़िखाकर रिश्वत का पैसा पुलिस को दिलाने में पुलिस का सहायक बनता दिखे तो ऐसे पत्रकार से कलम चलाने का अधिकार भी छीन जाना चाहिए़़। क्योंकि पुलिस की वर्दी और पत्रकार की इस कलम का दायित्व बहुत बड़ा है। इसलिये इन दोनों का सम्मान व रुतवा अपनी मर्यादा व गरिमा महत्ता को सुरक्षित न रख सके तो ऐसे लोगों को इस सम्मान व रुतवे का सिम्बल किसी भी रूप में नहीं मिलना चाहिेए।कानून का उल्घंन करने की इजाजत तो किसी को नहीं है-पर अगर कोई टैक्सी में पत्रिकाओं को लाद कर ला रहा है और कानून के रखवाले उसको रोककर तथा थाने में अंदर करनें की धमकी देकर अगर उस अल्पशिक्षित व्यक्ति से ३०० रुपये झाड़ ले... तो क्या इनके ऐसा करने से कानून का कायदा पुरा हो जाता है? अगर कहीं भी कानून की अवहेलना होती है तो उसका जुर्माना लेकर उसकी रसीद पकड़ानी चाहिए मगर जब पुलिस अपने साथ बिना वर्दी के दलाल को रखकर आम जनता को डण्डे के जोर पर कानून का पाठ रिश्वत लेकर अपनी पॉकेट को तिजोरी बनाती हुई दिखे तो ऐसे वर्दी वाले गुण्डो और बिना वर्दी वाले दलालों को सजा सुनिश्चित होनी चाहिए।७ अप्रैल को शोभाबाजार मेट्रो के पास हुई घटना की पुरी खबर पाठक पढ़ लें और अपने आपको अन्याय का प्रतिरोध करने के लिये तैयार करें... जब इनकी हरकतों के पिटारेें को आम जनता बजाने लग जायेेगी ..तब ये लोग समझेंगे कि कानून की रक्षा की इस वर्दी के गरिमामय कपड़े के फटने की सजा का दर्द कैसा होता है? ७ अप्रैल को शोभाबाजार मेट्रो के पास हुई घटना को शिकायत के रूप में पुलिस कमिश्नर व अन्य उच्च अधिकारियों को फैक्स कर दिया है।मुझे आशा है कि पुलिस कमिश्नर इस मसले की गम्भीरता को समझते हुये त्वरित कारवाई करेंगे।मैं श्याम थाना प्रभारी श्री एस.के. मित्रा व ट्रेफिक कॉन्स्टेबल दुर्गापदो राजक को तुरंत प्रभाव से बर्खास्त करने कि मांग करता हूं... व पुलिस दलाल की भूमिका निभाने वाले तथाकथित पत्रकार सम्राट भट्टाचार्य की संलिप्तता की जांच की मांग करते हुए यह निवेदन करता हूँ कि ऐसे लोगों को ""पत्रकार'' के रूप में उन सभी सुविधाओं से वंचित किया जाये जिनका दुरुपयोग करके ये लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को कलंकित कर रहें हैं। -संजय सनम

Wednesday, April 8, 2009

अल्पसंख्यक किसे कहते हैं?

इस देश की राजनीति ने मजहब के आधार पर अल्पसंख्यक व बहुसंख्यक की परिभाषा करते हुए वोटों की थाली बटोरने का ऐसा घृणित काम किया है जिसकी वजह से यर्थाथ बहुत पीछे छूट गया है। दरअसल इस शब्द को परिभाषित जाति या मजहब के नाम से नहीं करना चाहिए और न ही इसमें किसी समुदाय को दायरे में लाना चाहिए। अगर वास्तव में इस शब्द को परिभाषित किया जाये तो धनी समृद्ध लोग यहां बहुत कम है इसलिए अल्पसंख्यक तो वो है। चूंकि वो संपन्न है इसलिए ये लोग किसी भी रूप से सरकारी सहायता व संरक्षण व आरक्षण के हकदार नहीं बनते। इस देश की तीन चौथाई आबादी जो गरीबी, भूखमरी, बेकारी से जूझ रही है वो बहुसंख्यक है उसमें सब जाति, धर्म के लोग है। असली आरक्षण, संरक्षण तो उनको होना चाहिए पर सियासत के लोगों ने अपने वोटों का आरक्षण करने के लिए धर्म की लकीर अल्पसंख्यक व बहुसंख्यक के नाम पर खींच दी जिसकी वजह से जिन लोगों को सरकारी धन व सुविधाओं का लाभ मिलना चाहिए था वो उससे वंचित रह गये और लाभ सत्ता के ठेकेदार उठाने लगे।अगर इस शब्द का उपयोग सही रूप से किया जाता तो देश की तीन चौथाई आबादी आज जीवनयापन के लिए जुझती नजर नहीं आती....। पर राजनीति... गरीबी को नहीं मिटा सकती... बेशक वो भूख से गरीबों को मिटा सकती है, और बेकारी, गरीबी को मिटाने के नाम के तवे पर वे सियासतदान अपनी रोटियां सेंकते हैं और मजहब की लकीर रूपी दीवार जनता में जान बुझकर खींचते हैं। अल्पसंख्यक शब्द का महत्व अल्पसंख्यक के लिए नहीं बल्कि राजनीति और राजनेताओं के लिए है। इसलिए इस शब्द को पुनः परिभाषित करने की आवश्यकता है। संजय सनम

Monday, April 6, 2009

रासुका लालू पर लगना चाहिए |

वरुण ने हाथ तोड़ने की बात कही तो हंगामा हो गया और रासुका के तहत उन पर कई तरह के अभियोग लगाकर उनको जेल भिजवा दिया गया ,पर लालू ने एक चुनावी रैल्ली में एक समुदाय को खुश करने के लिए यहाँ तक कह दिया की वो अगर गृह मंत्री होते तो वरुण को बुल्ल्दोजेर से कुचलवा देते .लालू का यह बयां क्या कातिलाना नही है ?माना की वरुण का बयां सांप्रदायिक था पर लालू ने भी शालीनता कहा रखी ?एक समुदाय विशेष को खुश करने के लिए वो कातिल बननेको भी तेयार हो गए .क्या गृह मंत्री को कानून हाथ में लेकरकिसी पर बुल्दोजेर चलानेकी छुट है अब इस विषय पर बहस होनी चाहिए वरुण तो अभी अप्रिपक युवा राजनेता है परलालू ने तो राजनीती में अपने बाल सफेद किए है फ़िर भी अगर वो ऐसी गलती कर सकते है तो वरुण के गुनाह पर परदा ख़ुद पड़ जाता है लालू ने अपने बयां से इस देश की जनता को यह बता दिया है की वोटोंकी गठरी को पकड़ने के लिए वो सरे आम कत्ल भी कर सकते है ...अब इस देश की जनता के लिए यह chunoti है की कत्ल की mansha रखने walo को sanshad में jane से कैसे roke ?
sawal यह भी है की लालू पर attamp तो murder का mamla क्या नही banta ?अगर वरुण पर रासुका लग सकता है तो यहाँ लालू कैसे bach सकते है ?अगर लालू में thodi भी manwiyata है तो उनको अपने बयां पर पलटने की बजाये हाथ जोड़ कर वरुण से माफ़ी मांगनी चाहिए

संजय सनम

Sunday, April 5, 2009

काला धन

विदेशो में जमा
भारतीयों का
करोडो डालरों का काला धन
अगर भारत में आएगा
तो कहा जाएगा ?
मेरा अनुमान है
सब राजनेतिक दल
लोकसभा चुनावों में
हुए खर्च की
खाई को भरने
के लिए
सर्वे सम्मति से
इसका उपयोग
शान्ति से कर लेंगे
जनता को विकाश की
जुटान चखा कर
एक नम्बर में
खर्चा भर देगे
हां ..इससे
जनता का
कुछ आगे भला होगा
क्योकि
राजनीती का पेट
विदेशी काले धन से
जब भरा होगा
तो सरकारी खजाना
इनके भछन से
बच जाएगा
और
जनता का पैसा
फ़िर
जनता के लिए
लग जाएगा

संजय सनम

Saturday, April 4, 2009

मायाजी,ममता को मत ललकारिये |

मेनका गाँधी को जबाब देने के लिए मायावती ने ख़ुद को करोडो बेटो की माँ यह कहते हुए कहा है की सिर्फ़ जनम देने वाली को ही माँ नही कहा जाता ..इसके लिए उन्होंने मदर टेरसा का उदहारण अपने स्पस्टीकरण को मजबूत करने के लिए देते हुए अपने आपको मानवीयता की माँ मदर टेरेसा के बराबर खड़ा करने में हिचक महसूस नही की काश ..मायाजी को कोई यह बतलाये की आप करोडो बेटो को बार-बार बदलने वाली अर्थात कभी दलित तो कभी सवर्ण तो कभी मुस्लिम को रिझाने वाली राजनेतिक माँ तो हो सकती है पर प्रसव वेदना से गुजर कर सीने से सटाकर अपनी छाती का ममत्व रूपी दूध पिलाने वाली न तो मेनका हो सकती है और न ही मानवीयता को अपना कर्म -धर्म बनने वाली मदर टेरेसा सरीखी माँ हो सकती है
मायाजी ,आप वोट बटोरने के लिए राजनितिक ममता का आधुनिक रूप तो हो सकती है पर बेटे से मिलनेके लिए जेल तक आने वाली व ममत्व की आशीष का दूध पिलाने वाली मेनका कभी नही हो सकती इसलिए ममत्व व माँ को राजनीती की चोसर पर लाने की गुस्ताखी कृपया न करे क्योकि माँ का अंचल और उसकी कोख की तड़प कोई राजनितिक माँ नही समझ सकती ..इसलिए दिखावटी ममता से जन्म्दय्नी ममता को मत ललकारिये निठारी कांड को क्या भूल गई है आप?...उन माओ की ममता के क्रंदन ने मुल्याम्सिंह को आउट कर दिया ...इसलिए कुर्सी का नाजायज लाभ मत उठाइए ..वरुण और कानून के बीचराजनीती के दाव पेंच को मत लाइए

चुटकी

माँ की ममता
के
बिच
माया
आ रही है
शायद उसको अब
इस बात का
डर लग रहा है कि
एक गठरी को
बचाने के
जुगत में
वोटो कि
बड़ी गठरी
फिसली जा रही है ।
राजनीती का यह
नजारा साफ बताता है कि
कुर्सी का पहिया
वोट बैंक पर
बठेने के खातिर
एक माँ की
ममता के बिच
बदनीयत के साथ
इस तरह आ जाता है ।

संजय सनम

Friday, April 3, 2009

योग बाबा रामदेव के नाम खुला पत्र



आदरणीय योग गुरु जी,सादर अभिवादन!कल दिनांक २ अप्रैल २००९ को आस्था चैनल के माध्यम से स्वदेशी और स्वाभिमान के प्रेरक विषय पर आपके सान्निध्य में बौद्धिक वक्ताओं के विचारों को सुनकर... मुझे ऐसा लगा कि आप इस देश के करोड़ों लोगों में उत्प्रेरक बनकर प्रेरणा तो जगा रहे हैं पर जिस तरह से आपने शरीर के तंत्र को ठीक करने के लिए प्रायोगिक रूप से योग खुद करके लोगों को सिखाया और बीमार शरीर को स्वस्थ बनाया वैसा प्रयोग बीमार शासन तंत्र को स्वस्थ करने के लिए आप स्वयं करने से कतरा रहे हैं। बाबा,इस देश की राजनीति की गंगा मैली है यह सब जानते हैं, जनता भी जानती है... पर वो क्या करें? उसके पास पांच वर्षों से एक वार निर्णय देने का अवसर आता है॥ और उसमें उसको उन ही लोगों की जमात से चुनना पड़ता है। पार्टी, निशान, नेता तो बदलते है पर फिर भी जनता की तकदीर और इस देश की तस्वीर नहीं बदलती क्योंकि राजनेताओं का चरित्र नहीं बदलता... आखिर एक ही थैले के चट्टेबट्टे जो ठहरे... इसलिए बाबा देश का भाग्य नहीं बदलता... क्योंकि जनता के पास विकल्प कहां है? ऐसे नैतिक, ईमानदार, राष्ट्रप्रेमी नायकों की कतार कहां है? और जो इस तबके के कुछ है वो इस मैली गंगा में कुदकर इसको साफ करने के लिए अपने हाथ गंदे करने को तैयार नहीं है।बाबा,आप भी तो मैली गंगा के किनारे खड़े होकर करोड़ों लोगों को इसके बारे में जता रहे हैं पर आप भी तो छलांग नहीं लगा रहे हैं जबकि इस देश की जनता आपको गुरु मानती है आपके आदेश की अनुपालना के लिए बगले नहीं झांकती आपके पास देशप्रेम से ओतप्रोत, विचारवान, कार्यकर्ताओं की टीम है... फिर भी आप सिर्फ उद्बोधन दे रहे हैं। जिस तरह से शरीर तंत्र की प्रक्रिया को दुरुस्त करने के लिए आपने करोड़ों लोगों को प्राणायाम खुद करते हुए दिखाकर सिखाया.... वैसे ही राष्ट्र के बीमार तंत्र को दुरुस्त करने के लिए आपको राजनीति की मैली गंगा को साफ करने की प्रक्रिया उसमें कूदकर स्वयं साफ करते हुए दिखानी होगी।बाबा,व्यवस्थाएं, नियम, कानून, तो संसद में बनते हैं... अगर इनको बदलना है तो आपको जन प्रतिनिधि का दायित्व ओढ़कर अपने कुछ विशेष बौद्धिक कार्यकर्ताओं के साथ संसद में जाना होगा।आपने कल कहां था, मुझे पी।एम। नहीं बनना, मंत्री नहीं बनना.... मत बनिये। पर इस देश की व्यवस्थाकेतंत्र को बदलने के लिए अर्थात नीति निर्धारण करने के लिए आप अपनी ऊर्जा को जनता से भरे मैदानों में नहीं बल्कि संसद में लगाइए॥ तब देश का भला होगा।बाबा,धर्म, न्याय, की रक्षा के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने अधर्म का सहारा लेने को भी पाप नहीं माना था, क्या आप साधु के इस चोले के लिए राजनीति की इस मैली गंगा में जाने से कतरा रहे हैं? आपको डर है कि लोग क्या कहेंगे? आखिर रामदेव भी नेता बनने के लिए लालायित हो गये.... इसी डर की वजह से आपको बार-बार खुलासा करना पड़ता है॥ कि मुझे मंत्री नहीं बनना... है ना?अगर आप स्वयं प्रयोग करने से हिचकिचाते हैं तो फिर स्वाभिमान की यह शमां मत जलाइये।अगर इस देश के प्रति आपको वास्तव में श्रद्धा है प्यार है.. तो आप अपनी सामर्थ्य का जलवा दिखाइये।आप अपने निष्ठावान, समर्थ, संकल्पी कार्यकर्ताओं को आने वाले लोकसभा चुनाव के मैदान में उतारिए और उनको नेतृत्व प्रदान कीजिए। जिस दिन संसद में राष्ट्रप्रेमी नायकों का एक टुकड़ा जन प्रतिनिधि बनकर आ जायेगा उस दिन भ्रष्ट नेताओं के चंगुल से देश छूट जाएगा और उसका चेहरा बदल जाएगा। अवसर एकदम सामने हैं.... बाबा! अगर आप चाहें तो इस देश की तस्वीर और तकदीर दोनों बदल सकती है पर इसके लिए आपको सड़क से संसद में जन प्रतिनिधि के रूप में जाना होगा। अगर यह हिम्मत नहीं है तो बाबा फिर जनता के दिल की कसक को और मत तड़पाइये, फिर इन करोड़ों को अंधेरों में ही रहने दीजिए झूठी रोशनी मत दिखाइए।मेरा दावा है कि अगर आप इस समाधान को स्वीकार करते हैं तो ६ महीने के अंदर देश के सूरते हाल खुश्गवार नजर आने लगेंगे। पर इसके लिए व्यवस्था तंत्र को कपाल भारती आपको संसद में करनी व करवानी होगी। क्या आप ऐसा कर सकते हैं।संजय सनम



Tuesday, March 31, 2009

वाम के शासन में

प्रगति का ग्राफ

यह कह रहा है की

आपका बंगाल

वाम सरकार की किरपा से

भ्रस्टाचार

गरीबी

बेकारी

और

अराजकता में

तूफानी गति से

आगे बढ़ रहा है

क्योंकि

इनको

बंगाल सरकार

पूरा प्रोत्साहन दे रही है

स्वावलंबी

किसानो से

उनकी जमीं

हड़प कर

बेरोजगारी के ग्राफ में

अपना योगदान दे रही है

सनम

और

Thursday, March 26, 2009

गठबंधन कीराजनीति

कुछ इस तरह दिखती है

जब तक गठबंधन रहता है

तब तक देश हिलता है

औरजब नहीं रहता

तबसरकार हिलती है।

************

चुनावी राजनीति केघोषणा पत्र में

विदेशी खुशबू तब आती है

जब बंगाल की वाम सरकार

बंगाल को सिंगापुर

तथा तृणमूल की ममता दीदी

स्विटजरलैंड बनाने की पेशकश कर जाती है।

राजनीति की इस कुटिल चाल पर

भारतीय मन सहम जाता है

आखिर क्यों?

भारत के फ्रेम में विदेशी तस्वीर लगाने का

राजनीतिक उदघोष वोट बटोरने के लिए लग जाता है

शायद वह नहीं जानते कि

भारतीय जनता

भारत में भारत की ही "नजीर' चाहती है

न कि विदेशी तस्वीर चाहती है।

************

मंदी में

चुनावऐसा लगता है

जैसे अनमने भाव से

दुल्हन अपने ससुराल जाती है

संजय सनम

Saturday, March 14, 2009

चुटकी

थर्ड फ्रंट की सूरत
यह साफ जता रही है की
न तो नो मन तेल होंगा
न ही राधा नाचेगी
फ़िर माया जाने क्यो ?
जमी पर पैर रखे बिना
नाचना चाह रही है
संजय सनम

Tuesday, March 10, 2009

में कैसे कह दू ?

आज बहुरंगी रंगों से

जमी लाल -गुलाब हो गई है

मस्तो की मस्ती जैसे

बरसो पहले की शराब हो गई है

आसमा में रंगों की

गुबार जैसे बहार हो गई है

बाहर का नजारा रंगीन दिखा है जरुर

पर मन की पीडा

फ़िर नजरंदाज हो गई है

अब तुम ही बतलावो ...

में कैसे कह दू की

होली कामयाब हो गई है

संजय सनम

कहां खो गई है मानवीयता?

सवाल हर क्षेत्र से किसी न किसी रूप में तब उठता दिखता है जब वहां किसी का शोषण, उत्पीड़न या फिर दौलत की चाह में मानवीयता के उसूलों को भूलकर सामने वाले की मजबूरी का दोहन किया जाता है।चिकित्सा के क्षेत्र में नर्सिंग होम से लेकर नामी अस्पतालों व नामी गिरामी डाक्टरों के द्वारा अमानवीयता की हद पार कर जाने की घटनाएं सुनने को मिलती है। यह सच है कि मरीज और उसके परिजनों के लिए इलाज करने वाला डाक्टर भगवान स्वरूप ही होता है और अगर वो बेवजह मरीज को उलझा कर रुपये ऐंठता चला जाये तो फिर वो भगवान नहीं हैवान होता है। इसी प्रकार मरे हुए मरीज को वेन्टीलेटर पर रखकर चार्ज उगाहने की घटनाएं भी सुनने को मिलती है। इन सब घटनाओं की वजह से कई वार अच्छे डाक्टर व नर्सिंग होम के संचालक लोगों के आक्रोश व उनके प्रति गलत भावना के शिकार हो जाते हैं। फिर कई घटनाएं ऐसी होती है जब मरीज के परिजन डाक्टर व नर्सिंग होम को उसकी जायज फीस व शुल्क तक नहीं चुकाते व हो हल्ला, बदमाशी पर उतर आते हैं।यह भी तो अमानवीय है।नाजायज कहीं भी हो वो गलत है पर जायज भी अगर हम नहीं दे तब फिर वो नैतिक आदमी खुद को कितना और कब तक नैतिक रखेगा? हम यह क्यों भूल जाते हैं कि डाक्टर के हाथ में जिंदगी या मौत पर नियंत्रण नहीं है वो अपनी चिकित्सीय ज्ञान क्षमता के आधार पर मरीज को स्वस्थ करने की जिम्मेदारी निभाता है। इसमें सफलता या असफलता जो मिलती है। वो ईश्वरीय शक्ति के अधीन होती है। अगर मरीज स्वस्थ होकर नर्सिंग होम से निकलता है तब उसके परिजन नर्सिंग होम के बिल में डिस्काउन्ट की बात करने लग जाते हैं और अगर मरीज नहीं बचता तब उसके परिजन बिल न चुकाकर अगर गाली-गलौज, हुड़दंग पर उतर आये तब मानवीयता का जनाजा ही उठ जाता है। क्या यह उचित है कि हम किसी की मेहनत की कमाई का हक मार दे। हम यह क्यों भूल जाते है कि डाक्टर, नर्सिंग होम चलाने वालों का भी परिवार है उनके भी खर्चे है वो ये सब प्रोफोशनल कर रहे हैं। डाक्टर बनने के लिए उन्होंने कड़ी मेहनत व अध्ययन की फीस चुकाई है वो भी अपने परिवार को भौतिक सुख समृद्धि प्रदान करने की महत्वाकांक्षा रखते हैं।फिर उनकी जायज फीस चुकाने व नर्सिंग होम का बिल चुकाने पर हो-हल्ला क्यों?जरा सोचिए कि आपकी दुकान में आकर अगर कोई ग्राहक समान देखकर आपसे पैक करवा कर अपने बैग में डालकर उसका मूल्य चुकाये बिना चलता बने तब आपको कैसा लगेगा? क्या आप इसे सहन कर पायेगे? नहीं ना... तब फिर हम इनका जायज हक क्यों मारना चाहते हैं? विरोध वहां होना चाहिए जहां आपके साथ सामने वाला पक्ष दगाबाजी कर रहो हो वहां उस व्यवस्था व व्यवस्थापकों के चेहरोंं से नकाब जरूर उतारी जानी चाहिए। लेकिन इलाज करवा कर झूठी तोहमत से अपना पैसा बचाने की अनैतिकता तो नहीं करनी चाहिए। इससे पूर्व मैंने चिकित्सा क्षेत्र की अव्यवस्था पर ही लिखा था- इसके दूसरे पक्ष पर मेरी नजर ही नहीं गयी थी कि किस तरह मरीजों के परिजन डाक्टर व नर्सिंग होम की फीस चुकाये बिना भी चले जाते हैं। इस पहलू पर ख्याल तो तब गया जब सेंट्रल एवेन्यू बिडन स्ट्रीट के पास में रिकवरी नर्सिग होम के संचालक डा। एस.अग्रवाल ने अपनी व्यथा फोन पर सुनाई।डा.अग्रवाल का कहना था कि प्राय नर्सिंग होम में मरीज तब ही आते हैं जब स्थिति बिगड़ जाती है। यद्यपि उस वक्त हमको मरीज की हिस्ट्री की जानकारी नहीं होती फिर भी मानवीयता के नाते हम मरीज को भर्ती करने से इन्कार भी नहीं कर सकते। उस वक्त हम अपनी काबिलियत व क्षमता का पूरा प्रयोग करते है जिसका परिणाम प्रायः अच्छा मिलता है। मरीज कुछ दिनों के बाद स्वस्थता के अनुभव के साथ घर लौटने की स्थिति में आ जाता है। कई बार ऐसा भी होता है कि मरीज मरणासन्न स्थिति में ही आता है और बच नहीं पाता। डा. अग्रवाल का आगे कहना था कि इन दोनों स्थितियों में हम लोगों के साथ कुठराघात होता है। अगर मरीज स्वस्थ होकर जाता है तब उसके परिजन बिल चुकाते समय प्रायः बड़े डिस्काउंट पर उतर जाते हैं व दबाव बनाकर अपनी मर्जी के अनुसार ही चुका कर जाते हैं। और मरीज नहीं बचता तब तो हमारी शामत ही आ जाती है। बिल को छोड़िए फिर तो वो गालियां सुननी पड़ती है जो मन को बहुत गहरे चोट कर जाती है। मैंने जब डा. अग्रवाल से पूछा कि जब मरीज को भर्ती किया जाता है तब क्या आप उनसे राशि अग्रिम जमा नहीं लेते। तब उनका जवाब था कि बहुधा जब गंभीर स्थिति में मरीज को लाया जाता है तब साथ आये लोग प्रायः पड़ोसी ही होते हैं तथा कई बार ऐसा भी होता है कि हड़बड़ाहट में घर के आदमी के पास भी उस वक्त उपयुक्त राशि नहीं होती ऐसी स्थिति में हम जमा राशि की तरफ नहीं देखते बल्कि मरीज की विषम स्थिति को सहज बनाने के लिए जुट जाते हैं हमारी यह मानवीयता अक्सर हमारा गुनाह बन जाती है। डा.अग्रवाल की यह वेदना यह बतलाने के लिए क्या काफी नहीं है कि हमारी खामियां कई बार अच्छे लोगों को भी अनैतिक होने के लिए मजबूर कर देती है फिर हम डाक्टर से मानवीयता की अपेक्षा रखने का भी अधिकार खो देते हैं। किसी के हक को मारना क्या गुनाह नहीं है? बिल चुकाने से बचने के लिए हो हल्ला, गुण्डागर्दी के हालात बनाना क्या अनैतिक नहीं है?निवेदन है कि जो लोग जिस क्षेत्र में नैतिक बनकर अपना कर्म कर रहे हैं उनकी नैतिकता को बचाये रखिए। अगर इनकी नैतिकता का हम मजाक उड़ायेंगे या इनके जायज हक पर कुठराघात करेंगे तो ये नैतिक लोग फिर कब तक नैतिक बने रहेंगे और अगर ये भी अनैतिक हमारी वजह से बन गये तब फिर इस कलियुग में बचेगा क्या?इसलिए किसी के भी जायज हक को देने में मत हिचकिचाइए! हां जहां जान बुझकर आपके साथ कोई धोखाधड़ी कर रहा है तब उसके खिलाफ जरूर आवाज उठाइये फिर वो चाहे कोई कितना ही नामी व्यक्ति या संस्थान क्यों न हो? पर बेवजह ऐसे हालात मत बनाइये जिससे कोई इंसान अपनी इंसानियत को छोड़ने के लिए मजबूर हो जाये। इस आलेख में मैंने एक डाक्टर व नर्सिंग होम संचालक की उस पीड़ा को आप पाठकों तक पहुंचाने की कोशिश की है जो वास्तव में जायज है व विचारणीय है।यद्यपि डाक्टर अग्रवाल से मेरा परिचय सिर्फ फोन के उन पाठक जैसा ही है जो अपने विचार कलम की नोक तक पहुंचाने के लिए फोन से मुझे जताते रहते हैं फिर भी डा. अग्रवाल से फोन पर हुई बातचीत से मुझे ऐसा लगा कि इस प्रसंग को फर्स्ट न्यूज पाठक वर्ग त्वरित पहुंचाया जाना चाहिए, आशा है पाठक वर्ग विषय की गंभीरता को तवज्जो देंगे।

संजय सनम

Monday, March 9, 2009

वो कहाँ है ?

होली में वो धमाल कहाँ है
रंगों की बहार कहाँ है
चेहरों को जो खिल -खिला दे
दिखता नही वो प्यार कहाँ है ?
दर्दे गम को धोने वाला
खुशियों का अंदाज कहाँ है
बेर -विरोध जो मिटा सके
प्रेम का वो पैगाम कहाँ है ?
लाल -गुलाबी करने वाली
प्यार की गुलाल कहाँ है
भाभी की चुनर को तर केर दे
देवर को वो चांस कहाँ है ?
गाल -गल्येया गीत भरा
फागुनी उपहार कहाँ है
झुट्टी हँसी दिखाने वालो
मन में मधुमास कहाँ है ?
संजय सनम

Friday, February 20, 2009

चुटकी

पाक को अपनी करनी का फल मिल रहा है

पड़ोस में आग लगाते लगाते

अब उसका अपना आशियाना जल रहा हैं

अब असली हुक्मरान

जरदारी -गिलानी नहीं

तालिबान

जो बन रहा हैं

अर्थात

पाक का नाम

अब नक्शे से मिट रहा है

संजय सनम

Friday, February 13, 2009

चुटकी

लालू जी

अब पदोन्नति चाह रहे हैुं

अर्थात

राहुल के लिए

तैयार होने वाली कुर्सी

वो अपने लिए मांग रहे है

संजय सनम

दोस्ती की मर्यादा रखिये

दोस्ती की मर्यादा रखिएकिसी ने ठीक ही कहा है कि रिश्ते बनाना जितना आसान होता है उनको निभाना उतना ही कठिन होता है क्योंकि दोस्ती के इस रिश्ते में भी धीरज व सहनशीलता की आवश्यकता होती है। अक्सर ये रिश्ते इसलिए चरमरा जाते हैं जब कोई आपका दोस्त आपको आपकी भूल का अहसास करा कर वो इसमें सुधार की आप से अपेक्षा करे। आपकी हां में हां मिलाने वाला तथा सही गलत का बोध रुपी सच आप तक न पहुंचाने वाला आपका दोस्त हरगिज नहीं हो सकता वो तो.... होता है। पर दुखदः तथ्य यह है कि हम अपनी किसी भूल का इशारा अपने दोस्त से भी जानना नहीं चाहते और उससे एक बार पूछना भी उचित नहीं समझते जिसने आपकी किसी भूल की तरफ इशारा किया हो।गलती किसी से भी हो सकती है... हो सकता है कहीं आप गलत हो या यह भी हो सकता है कि आपका वो मित्र गलत हो जो आपकी भूल बतला रहा है... पर इसका समाधान तो तभी हो सकता है जब आप उसकी भावना को जानने की कोशिश करे कि उसको आपकी गलती कहां और क्यों लगी? मेरे ख्याल में सच्चा मित्र वो ही होता है जो अपने मित्र से कोई भूल हो गयी है॥ तो उस भूल का शोधन करवा दे। जिस प्रकार अपने मित्र की प्रगति से मित्रता खुश होती है उसी प्रकार उसकी भूल से अपने मित्र को परेशानी में घिरा देखकर वो आहत भी होती है। अगर आपके किसी अजीज ने अगर किसी विवाद में आपकी भूल की तरफ इंगित कर दिया और आपको अनुचित लगा तो आपका कर्तव्य यह बनताहै कि आप उससे यह जाने कि उसने ऐसा क्यों कहा? अगर वो आपको संतुष्ट नहीं कर सके तब आपको अधिकार है कि आप अपने उस अजीज पर शब्दों का प्रहार कर सकते हैं। पर बिना उससे जाने अगर आप शब्दों के छोटेपन पर उतर आते हैं तो यहां उस अनजान रिश्ते दोस्ती की मर्यादा का अतिक्रमण होता है और वो अपमान आपके उस तथाकथित मित्र का नहीं बल्कि आप स्वयं आपका ही अपमान करते है। जब आप यह सवाल करते हैं "भूल बतलाने वाला आखिर वो कौन? तब इसका सीधा सा अर्थ यह निकलता है कि आपने "दोस्ती' के इस गहरे रिश्ते को पहचाना ही नहीं। दरअसल हर एक सच्चे मित्र के पास यह अधिकार होता है कि वो अपनी बुद्धि विवेक के अनुसार सही गलत का ज्ञान रखते हुए अपने मित्र को अपनी भावनाओं से अवगत कराये। जो शख्स किसी विवादास्पद मोड़ पर अपने मित्र वाले पक्ष से उस भूल को अपने सर पर लेता हुआ क्षमा मांग लेता है। क्या उसको अपनी भावना बतलाने का अधिकार नहीं बचता? "मित्रता' उसे नहीं कहते कि उकसाकर किसी को आगे बढ़ा दे और जब हो हल्ला होने की आशंका हो तो मैदान छोड़कर दो चार हो जाये। मित्रता को न तो नोटो की गड्यिों से तोला जाना चाहिए न ही किसी के रुतबे से। "मित्रता' भावनाओं का वो बंधन होता है जो सिर्फ भावनाओं की तुला पर ही तुलता है। शायद इसलिए खून के रिश्तों से भी ज्यादा वजनी होता है "मित्रता' का यह रिश्ता । अगर निभा न सके तो फिर इतना गहरा बनाना भी न चाहिए यह कोई धागा नहीं कि जब चाहे खींच कर तोड़ देंं... कम से कम यह ख्याल तो रखना ही चाहिए कि आपकी प्रत्यक्ष परोक्ष में ऐसी कोई हरकत न हो जिससे किसी के दिल पर आपके शब्दों का आघात लगे और उसके दिल से निकली हुई "आह' फिर आपके जीवन में आगे सवाल करें...इसलिए दोस्ती की मर्यादा को रखिए.. कृपया उसे मजाक न बनाएं। -संजय सनम

Tuesday, February 3, 2009

विसर्जन को मजाक मत बनाये



संजय सनम
तेरापंथ समाज को समर्पित
जैन संस्कृति में श्रावक समाज के लिए "विसर्जन' शब्द की अपनी महत्ता है तथा इस शब्द की विशिष्टता अर्जन के साथ विसर्जन की उस परम्परा का बोध करवाती है-जो समाज की विभिन्न गतिविधियों के अंतर्गत कमजोर तबके के लोगों को शक्ति प्रदान करने में अहम भूमिका अदा करता है।पर इस "विसर्जन' शब्द की महत्ता, प्रायोगिकता व उपयोगिता का अर्थ अगर कार्यकर्ताओं की जमात ही भूल जाये तब विसर्जन का यह उपयोग मजाकिया हो जाता है। "विसर्जन' के इस कार्य में समाज के जो लोग अपना समय समाज के लिए प्रदान करते हैं उनके इस नियोजन को मैं हृदय से प्रणाम करता हूं, पर जब कोई कार्यकर्ता "विसर्जन' का अटारा लेकर दांव पेंच का इस्तेमाल करने लगता है तब उस कार्यकर्ता केहाथ से "विसर्जन' शब्द आहत् हो जाता है। "विसर्जन' शब्द की महत्ता तो गुपचुप दान (गुप्तदान) के रूप में होनी चाहिए, पर इसका स्टाइल तो अत्याधुनिक हो गया है। अब कार्यकर्ता स्वयं घरों में जाते हैंंं तथा अपनी श्रद्धा के अनुसार १०० रुपये से लेकर ऊपर आपकी इच्छा के मुताबिक विसर्जन की रसीद कटाने का आग्रह करते हैं। जब मैंने उनसे यह पूछा कि यह तो गुप्तदान के रूप में होना चाहिए, इस तरह रसीद काटने का उपक्रम मुझे समझ में नहीं आ रहा था, तब उन्होंने मुझे समझाने के अंदाज में कहा कि घरों में जा कर रसीद कटाने से तात्पर्य इस बात का भी है कि अगर कोई परिवार की आर्थिक स्थिति १०० रुपये देने की भी नहीं हो तो समाज की जानकारी में उस परिवार की स्थिति आ सके तथा समाज उस परिवार के लिए अपना आवश्यक दायित्व वहन कर सके। मुझे उनके इस जवाब में समाज के कमजोर वर्ग के प्रति समाज की प्रतिबद्धता की भावना तो अच्छी लगी, पर विसर्जन की रसीद के माध्यम से ही आप इनका डाटा जुटा पाये यह तर्क युक्ति संगत नहीं लगा। क्या किसी की कमजोर स्थिति सामने लाकर ही आप उसे जान सकते हैं... या उससे समाज के चार कार्यकर्ताओं के सामने यह कहलवाकर कि उसकी आर्थिक स्थिति १०० रुपये के विसर्जन की रसीद कटवाने की नहीं है, क्या तब हमारा समाज उस परिवार को अधिक जान पायेंगा? अगर कमजोर के मन में उसकी कमजोरी की हीन भावना को जमाकर फिर उसकी सहायता के लिए हम खड़े भी हो जायें तब भी क्या उस परिवार के मन की उस व्यथा को मिटाया जा सकता है? जो अपनी प्रक्रिया के अंतर्गत समाज के द्वारा उसको दी गयी है। खैर... यह भी विसर्जन की प्रक्रिया का एक वैचारिक पक्ष है पर अब मैं उस पक्ष पर आना चाहता हूं जिसकी इजाजत तो परम्परा कतई नहीं देती।"विसर्जन' का कोष जुटाने वाले कार्यकर्ता अगर एक व्यक्ति का नाम दूसरे व्यक्ति के सामने लेकर मनोवैज्ञानिक पासा फेंकने का कार्य करने लग जाये तथा यहां भी अगर सफेद झूठ का प्रयोग करने में भी कार्यकर्ता न हिचकिचाये तो सवाल उठता है कि विसर्जन की झूठ से भारी पोटली उठाने के लिए हमने संस्कारों की विरासती पोटली को कहां फेंक दिया? किसी व्यक्ति का नाम लेकर आप दूसरे व्यक्ति को उसकी झूठी रकम बतलाकर व उस व्यक्ति को मनोवैज्ञानिक रूप से मजबूर करके रसीद काटने की अगर कुटिल चाल चलते हैं...तो "विसर्जन' की मयार्दा से पहिले आप इस पोटली को उठाने का अधिकार भी खो देते हैं तथा वो व्यक्ति जो आपकी छद्म चाल से ठगा जाता है... उसके मन में आपकी यह करतूत "विसर्जन' को नासूर बना देती है। जहां संस्कार निर्माण की कार्यशालाओं का आगाज हो... वहां संस्कार निर्माण की धज्जियां अगर समाज के कार्यकर्ता ही उड़ाते दिखे तो फिर बतलाइये क्या गरिमा रहेगी उन कार्यशालाओं की तथा क्या उपयोगिता रहेगी "विसर्जन' के इस उपक्रम की। मेरा यह आलेख विशेषकर जैन समाज के "तेरापंथ' समाज को समर्पित है जहां विसर्जन के प्रक्रम की रफ्तार तो बहुत तेज है पर इस गाड़ी मेंंं पारंपरिक संस्कारों के कल पूर्जे ढ़ीलें हैं जो विसर्जन को "विष-अर्जन' बना रहे हैं। इसलिए आवश्यक है कि विसर्जन की प्रयोगिकता से पहिले उसके व्यवहारिक तौर तरीकों को कुछ इस तरह से बनाया जाये जिससे न सिर्फ जैन बल्कि अन्य समाज के लोग भी इस पुनीत उद्देश्य में उत्साह के साथ सम्मिलित हो सके पर विसर्जन का ढिंढोरा न पिटवाये कम से कम यह क्षेत्र तो बिना नाम के काम का छोड़ दिया जाये जिससे उस कोष में अपनी सामर्थ्य के अनुसार १०० रुपये देने वाला भी बिना किसी हीन भावना के वह गौरव अनुभूत कर सके तथा हजारों देने वाले भी अपने नाम के अहंकार से बच सके। लेखक-पत्रकार होने के नाते मैंने इस सत्यता को आवाज देने का धर्म निभाया है अगर आपको यह सच स्वीकार योग्य लगे व आप इस पर समुचित मंथन करें तो मुझे आत्मसंतोष मिलेगा। अगर आप इस सच को पचा नहीं पाये और मेरे प्रति विद्वेष पनपे... तो ख्याल रखें कि जिस जमीन पर हम खड़े हैं उसके आदर्श हमें क्या कहते हैं? मेरा धर्म सच को बिना लाग लपेट के सरल शब्दों से पाठक वर्ग तक पहुंचाना है, मैं अपना धर्म निभा रहा हूं। क्या आपसे आशा कर सकता हूं कि आप भी अपनी जवाबदेही का धर्म निभायेंगे?

Saturday, January 31, 2009

बस प्राथना ...

मेरे शहर में फ़िर एक हादसा हुआ -एक मासूम का स्कूल की छुट्टी के बाद अपहरण और फ़िर उसकी हत्या करदी गई समूचा शहर गहरे दर्द में डूब गया .पुलिस प्रशासन के खिलाफ लोग सड़क पे उतर आए पर इस आक्रोश से समाधान फ़िर भी नही मिला कलेजे के टुकड़े को खोने का गम वो परिवार कैसे भूल पायेगा .दरिंदगी एक माशुम के चहेरेपर भी नही पिघली --एक बचपन बे मोत मार दिया गया...दर्द इस बात का है की हम उस माशुम के जीवन के लिए कुछ भी नही कर सके .इंसानियत शेतानो के सामने फ़िर असहाय नजर आई,फिरोती का कोई फ़ोन भी नही आया क्योकि पुलिस ने जाल बिछा दिया था ,बदमाश जब अपने उस मकशद में सफल नही हुए तो उन्होंने वो कर दिया जिसको सुन कर संवेदना ख़ुद रो पड़ी क्या पुलिस में जाना और मीडिया में इस केस का जोरदार उठाना उसकी मोत का कारण बन गया ?आखिर क्या किया जाए ....सवाल अत्यन्त गंभीर है इधर कुवा है उधर खाही है आज मेरा शहर इस हादसे को सहकर बहुत दुखी है हमारे हाथ में उस माशुम के जीवन के लिए कुछ भी नही रहा .अब सिर्फ़ प्राथना ही कर सकते है है इश्वर उस माशुम की आत्मा को ममता की छाव देनाऔर माँ के कालजे को पत्थर कर देना नही तो वो नही जी पायेगी कोलकता (हावडा )का वो यश लखोटिया था ब्लोगेर दोस्त उस की आत्मा की शान्ति के लिए जरुर प्राथना करे ..क्योकि संवेदना यह तो कर ही सकती है

संजय सनम

Thursday, January 29, 2009

बेच रहे है ..

कुर्सी की तजबीज में

वो तहजीब बेच रहे है

आजादी के दीवानों की

तकरीर बेच रहे है

सियासत उन्हें क्या मिल गई

जनता के माथे की

वो

लकीर बेच रहे है ।

संजय सनम

Thursday, January 22, 2009

नाम बड़ा दर्शन छोटा

नव वर्ष स्पेशल के इस अंक में उस घटना का उल्लेख मुझे करना पड़ रहा है जिसे मैं करना नहीं चाहता था पर मुझ तक पहुंचे कुछ सवालों और मेरे द्वारा दिये गये जवाबों का सिलसिला कुछ ऐसा बन गया कि फिर उस चर्चा को कड़वे सच के इस स्तंभ में आने से मैं स्वयं नहीं रोक पाया। घटनाक्रम इस प्रकार है...। महानगर की एक अग्रणी सामाजिक संस्था के सेवा कार्य का कार्यक्रम था। समारोह के दिन उस सामाजिक संगठन के सक्रिय कार्यकर्ता व पदाधिकारी ने फोन द्वारा कई वार भावपूर्ण आमंत्रण दिया जिसकी वजह से उपस्थिति दर्ज करानी आवश्यक थी। मैंने उनकी आत्मीयता का मान रखते हुए अपनी हाजरी लगाई तथा मंचस्थ अतिथियों में शुमार हुआ। जैसा कि होता है अतिथियों का स्वागत सत्कार ,उनका वक्तव्य तथा बाद में धन्यवाद ज्ञापन और फिर दूसरे या तीसरे दिन दैनिक अखबारों में खबर! यहां भी ऐसा ही हुआ महानगर के एक अखबार ने उस पूरी खबर में से मेरा नाम पूरी तरह से उड़ा दिया। मुझे आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि फर्स्ट न्यूज के दीपावली स्पेशल के स्ट्रेट ड्राइव में जहां नीति की सेल लगी है को संभवतया उसने अपने ऊपर ले लिया होः अर्थात उस कड़वे सच को पचा नहीं पाये हो।वैसे उस अखबार के संपादकीय विभाग के एक सदस्य ने किसी माध्यम केद्वारा फर्स्ट न्यूज की सह संपादिका को चाय पर आने का आमंत्रण यह प्रलोभन देते हुए दिया था कि अगर वो आये तो (एक और मधुशाला की सीडी जिसमे ंश्रीमती चौधरी की आवाज है) की समीक्षा अच्छे रूप में प्रकाशित की जायेगी। श्रीमती चौधरी ने इस आमंत्रण का जवाब शब्दों में ठोकर मारकर दे दिया तथा साथ ही साथ अपनी मौखिक शिकायत भी संपादकीय विभाग के वरिष्ठ से कर दी। वहां से बाद में कोई जवाब नहीं आया कि ऐसा आशालीन प्रस्ताव देने की हिम्मत कैसे की गयी व शिकायत पर कार्रवाई क्या हुई?श्रीमती चौधरी ने जब यह घटना मुझे बतलाई तो मुझे लगा कि प्रबंधन को अवगत कराना चाहिए। पर श्रीमती चौधरी ने कहा कि मैंने.... को इस अशालीनता की शिकायत कर दी है अगर भविष्य में फिर ऐसा होता है तो बात प्रबंधन तक पहुंचाई जाये। खैर यह बात तो यहां समाप्त हो गयी पर उस अखबार के जो लोग इस घटना से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष जुड़े हुए हैं। उनकी खीज तो समाप्त नहीं हो सकती अतः मेरा नाम उस सामाजिक संस्था के उस कार्यक्रम से उड़ाना मेरी समझ में तो आ गया पर जो लोग वहां उस कार्यक्रम में उपस्थित थे अगर वो थोड़ी सी गंभीरता से गौर करे तो उन्हें अटपटा लग ही सकता है। शायद तभी फोन पर मुझसे यह सवाल हुआ कि उस कार्यक्रम में आप थे॥ पर अमुक... अखबार ने सिर्फ आपको छोड़कर सबका नाम प्रकाशित किया है। अन्य अखबारों में आई खबर में आपका नाम है पर... ।इस अखबार में नहीं है क्यों?अब मैं इस क्यों? का जवाब क्या देता? क्योंकि मेरा नाम छापना ना छापना उस अखबार के उस पृष्ठ का संपादन करने वाले के अधिकार क्षेत्र की बात थी। मैं यह भी मानता हूं कि कई बार भूल से भी नाम छूट जाता है पर मेरे साथ पहिले भी कुछ ऐसा हुआ था। इसलिए मूल का यह जुमला मुझे जम नहीं रहा था पर फिर भी फोन पर प्रश्नकर्ता को मैंने कहा कि शायद भूल हो गयी होगी। पर वो खुद इससे सहमत नहीं हुआ तब मैंने कहा कि हो सकश्रता है उस कार्यक्रम में मेरा वक्तव्य खबर के योग्य नहीं रहा तो तब उसने इसको भी खारिज कर दिया। अब इस प्रश्नकर्ता का सवाल देखिए... सनम जी आपके कोई खुन्नस निकाल रहा है... उसके मन बयान पर संभवतया बीस-तीस सेंकेंड मैं एकदम चूप रहा मुझे कोई जबाव नहीं सुझ रहा था कि मैं उसे इसका क्या जवाब दूं।मेरा सोचना सही है ना सनम जी.. .मुझे चूप देखकर वो फिर बोल पड़ा। मैंने कहा हो सकता है.. अब उसका सवाल था पर क्यों मुझे लगा कि एक जागरुक बौद्धिक पाठक की इस जिज्ञासा का समाधान अब करना चाहिए... इसलिए मैंने उसको आश्वस्त किया कि आप जिस क्यों? का सवाल उठा रहे हैं उसके कारण एक से अधिक हो सकते हैं। अतः फोन पर यह चर्चा संभव नहीं है। आपकी इस जिज्ञासा का समाधान फर्स्ट न्यूज नव वर्ष स्पेशल के कड़वा सच स्तंभ में आपको मिल जायेगा। अब मैं उनको दिया हुआ वादा पूर्ण कर रहा हूं.. जिस दैनिक पत्र का जिक्र उस पाठक ,श्रोता ने फोन पर किया था उस पत्र से मेरी कोई प्रतिस्पर्धा सही मायने में नहीं हैं क्योंकि तलैया की नदी से तुलना नहीं हो सकती। वो पत्रकारिता के हर क्षेत्र में चाहे प्रसार हो, विज्ञापन हो,खबरोंं का संकलन हो, तथा अर्थ में ,टीम सदस्य में अपने परिचय क्षेत्र में सबसे अव्वल है। अर्थात बहुत बड़े हैं पर मन से बड़े छोटे हैं और उनका यह छोटा मन ही पत्रकारिता के इस क्षेत्र को कलुषित कर रहा है।चूकि अखबार उनका है छापने या ना छापने का अधिकार उनका है इसलिए आप हम उनके इस अधिकार के उपयोग या दुरुपयोग पर सिर्फ अपनी बात ही कह सकते हैं और यह अहसास अगर हर पाठक जागरुक होकर गौर करने लग जाये तब शायद इन बड़े लोगों को अपनी छोटी हरकतों को डरकर बंद करना पड़ सकता है। जहां तक मेरे से खुन्नस का सवाल है यह जानने के लिए आपको फर्स्ट न्यूज का दीप स्पेशल का स्ट्रेट ड्राइव पढ़ना होगा।मैं पुनः इस बात पर आना चाहता हूंं कि मैंने कभी किसी को अपना प्रतिस्पर्धी नहीं माना क्योंकि मेरा यह विश्वास है कि व्यर्थ में किसी की आलोचना करने या अटंगी डालकर उसको गिराने की कोशिश करके आप कभी आगे नहीं बढ़ सकते। अगर कोई आगे बढ़ रहा है आपसे श्रेष्ठ प्रदर्शन कर रहा है तो आप उसकी श्रेष्ठता को पकड़ों व अपने प्रदर्शन में उसकी श्रेष्ठता के उस गुण को मिला दो आपका प्रदर्शन भी स्वतः ही श्रेष्ठ होने लग जायेगा। अगर आप अपने क्षेत्र के किसी प्रगतिशील ब्रांड की गुणवत्ता का सम्मान करना सीख जायेंगे तो फिर प्रतिस्पद्धी नहीं मित्रवत बन जायेंगे। मैं अपनी सीमा,क्षेत्र, स्थिति को भलीभांति समझता हूं पत्रकारिता को इस विशाल सागर में मेरी हस्ती सिर्फ बूंद जैसी ही है इसलिए मैं इस सागर को प्रवाह देने वाली हर धारा को सम्मान करता हूं लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि आपको बूंद के स्वाभिमान को ललकारने की इजाजत दे दी जाये। अगर ऐसा होताहै तो मां शारदे की कृपा से एक छोटी सी बूंद पूरे सागर के प्रवाह को भी प्रभावित कर सकती है। क्योंकि बूंद चाहे छोटी हो पर उसकी सैद्धांतिक गरिमा तथाकथित उन धाराओं से भी बहुत बड़ी है। इसलिए उन तथकथित बड़े लोगों से निवेदन है कि अपना सम्मान बचाये अन्यथा आपका यह छोटापन सबके सामने मजाक बन सकता है। जहां तक मेरे नाम का सवाल है कम से कम वो पत्र विशेष अब मेरा नाम न ही छापे तो मैं कृतज्ञ रहूंगा। मुझे दुख है कि चंद लोगों को इस छोटेपन की वजह से उस पत्र विशेष में काम करने वाले अच्छे लोगों पर भी आंच आती है मैं उन सभी पत्रकार मित्रों से क्षमा चाहता हूं पर जिन लोगों ने मेरे खिलाफ कारस्तानी की है व कर रहे हैं उनकी शिकायत अपनी अधिष्ठात्री तक पहुंचा दी है वे लोग सजा पाने के लिए तैयार रहे। यद्यपि ऐसे घटनाक्रमों से अखबार के प्रबंधन अनभिज्ञ होते हैं क्योंकि अंदर में ये सब भी होता है अंडर द टेबिल भी चलता है उनको इसका पता नहीं होता पर इनका सबका दुष्प्रभाव धीरे-धीरे अखबार पर पड़ता है इसलिए अगर वो थोड़ी भीतरी नजर रखेतो अपने ब्रांड की सुरक्षा कर पायेंगे। अन्यथा कुछ लोग अपने स्वार्थ के लिए कुछ भी कर सकते हैं। अब शायद उन फोन वाले पाठक की जिज्ञासा का समाधान हो गया होगा।

संजय सनम

Thursday, January 15, 2009

फ़िर छेड़खानी ...

भारत की शिकायत
पर
क्या वो (पाक )
सचमुच
करवाई कर
रहा है ...
या फ़िर
दिखावटी आंकडो की
भरपाई कर रहा है ।
क्योंकि
उसका शातिराना अंदाज
अब भी
यह जताता है
की
वो
हमारे जख्मो के साथ
फ़िर
छेड़खानी
कर रहा है
संजय सनम

Saturday, January 10, 2009

सत्यम का असत्यम

फ्राड राजू
से
रात भर
जब पुलिसिया
सवालो की
बोछार हुई
तब
निवेसको की
नींद उडाने
वाले की
रात
ख़राब हुई
पर
आशंका इस बात की भी है
की
जांच का यह खेल
दिखावटी भी
हो सकता है
अपने किए अहसानों
व लुटाये धन
की
बदोलत
यह फ्राड राजू
जेल में भी
कोमल बिछावन
पर चैन की
नींद सो सकता है
अगर सरकार
वास्तव में इसका
समाधान करना चाहे
तो हो सकता है
बस इमानदारी से
नेतावो पर लुटाया
धन अगर
कंपनी के फंड
में वापिस हो सकता है
तो शायद
यह गडा
काफी हद तक
भर सकता है
sanjaysanam

Thursday, January 8, 2009

लाज का पोस्ट मार्टम

दस दरिंदो ने
लूट ली
एकअबला की लाज
और
पुलिस में
फाइल हुई
यह वारदात .
एक गुनाहगार
फटाफट पकडा गया
इधर मुजरिम
मीडिया को
अपनी कालीकरतूत
बेशर्मी से
बयां कर रहा था
उधर नॉएडा पुलिस
लाज रूपी ताले के
टूटने का
चिकित्सीय प्रमाण
मांग रही थी ,
अब सवाल
पुलिसिया जांच पर था
की वो किस तरह
सामने खड़े सबूत
को नजरंदाज कर
जैसे
लाज रूपी लाश
की
पोस्ट मार्टम रिपोर्ट
को ही
सबकुछ मान रही थी ।
क्या लाज के
लुटने का सच
लाज को फिर से
उघाड़ कर
देखने से ही
सत्यापित हो सकता है ?
उस अबला के
हालात
और मुजरिम का
गुनाह कबूलनामा
क्या काफी नहीं होते ?
संजय सनम

Tuesday, January 6, 2009

आपसे ......

शब्दों से शब्दों की जो बात न हुई
बहुत दिन हो गए -
आपसे मुलाकात न हुई
कोई बहाना नही -
न मिलने का
कलम ही शायद
साथ न हुई
में जिस पडाव पर
खड़ा रहा था
वहा
नजरे
दो चार न हुई
मेरी खामोशी का
गुनाहगार कौन है?
आपसे ही तो
शुरूआत नही हुई
संजय सनम

धन्यवाद् दे गया |

पुरे सफर जो तूफान था
जाते -जाते बहार दे गया ।
खूब खटका था ,नजरो में
जाते -जाते खवाब दे गया
इजहार भी न कर सके हम
वो जाते -जाते करार दे गया
हमने तो उसको अलविदा ही कहा
पर वो हमको धन्यवाद दे गया
नव -वर्ष के सफर का
जोश ऐ खुमार दे गया
हम सोचते ही रह गए
वो धीरे से प्यार दे गया
संजय सनम