Saturday, October 1, 2011

पूछिये सवाल- क्या और क्यों?

वित्तमंत्री और गृहमंत्री के दिलों में २जी स्पेक्ट्रम पर एक पत्र को लेकर आई दरार को पी.एम.ओ व दस जनपथ की सीमेंट माटी ने चाहे लाख पाट दिया हो पर इस देश के१२० करोड़ लोगों के दिलों-दिमाग पर जो एक के बाद एक सियासती प्रहार से दरार-दर-दरार आती गई है- न तो सरकार ने इस दरार के प्रति अपनी जिम्मेदारी को स्वीकारा है और न ही इस दरार को भरने के लिए उसने गम्भीरता दिखाई है।
सरकार के लिए मंत्री और मंत्रियों के लिए सरकार-शेष चाहे रहे बेहाल-अर्थात जनता की महत्ता सिर्फ उस वक्त तक है जब चुनाव का मौसम आये तब राजनीति और राजनेताओं के लिए जनता बहार होती है-और ये भंवरों की तरह मंडराने की और उस वक्त जनता की चप्पल भी सर पर लगा लेने में कोताही नहीं बरतते-उसके बाद जनता रुपी बहार उनको अपने चमन से बाहर ही दिखती है- ये भंवरे फिर सत्ता की बहार की मौज लेने चल देते हैं। राजनीति का चरित्र जब ऐसा है तो राजनेताओं का चाल-चलन कैसा होग? कल्पना में भी कुछ अच्छा चित्रण नहीं उतरता।
ये लोग घोटालों के फूटे घड़ों को ढ़कने की प्रक्रिया जारी रख सकते हैं पर गरीबों के उघड़े तन पर कपड़े ओढ़ाने की ये लोग प्रक्रिया नहीं कर सकते... क्योंकि इनकी आंखोें में वो शर्म नहीं है जो नंगे बदन को ढ़कने की सोच भी सके!
इनके पास करोड़ों-अरबों का अकूत धन है- पर मन है कि मानता ही नहीं... फिर भी गरीबों का निवाला निगलने के लिए व देश की संपदा को विदेशों में रखने से बाज नहीं आते। इन सियासती अमीरों को अपने कर्मों का हिसाब सुद सहित देना पड़ेगा... वक्त आ रहा है.. अब वो जनता के हाथ में सिर्फ अंगुठे से छाप देने के अधिकार के साथ लाठी भी पकड़ा सकता है..अब जनता अपनी लाठी से बेरहम, बेशर्म राजनेता का कॉलर पकड़कर जवाब लेना शुरु कर दे तो आश्चर्य मत कीजिएगा... अब सियासत को जनता के लिए गम्भीर दिखने की आवश्यकता नहीं वरन जनता को अपने अधिकारों के प्रति स्वयं गम्भीर होने की आवश्यकता है- तभी राजनीति के इस दलदल में गिने-चुने कुछ अच्छे लोगों को उनका वास्तविक सम्मान भी मिलेगा और शेष को राजनीति के दंगल से बाहर भी फेंक दिया जायेगा।
राजनीति का शुद्धिकरण होना चाहिए- और लूटेरों सी भूमिका निबाहने वालों की लूट का माल जब्त करके उनको देशनिकाला दे दिया जाना चाहिए! ऐसे गद्दारो के हाथ में देश की कमान तो दूर बल्कि देश में रहने की जगह भी नहीं मिलनी चाहिए!
जनता को अपने जनप्रतिनिधियों व बड़े प्रशासनिक अधिकारियों को हजूर कहने से बाज आना चाहिए- हमने अपने सर्मथन की ताकत से इनको सांसद, विधायक, पार्षद बनाया है- अर्थात इनको बनाने वाले जब स्वयं हम हैं तो ये हजूर कैसे?
मैं यह नहीं कहता कि हम अपने जनप्रतिनिधि को सम्मान न दें- बेशक वे स्नेह, सम्मान के अधिकारी हैं- पर इसके लिए उनकी पात्रता होनी चाहिए। उनका सामन्ती अंदाज हमारे स्नेह-सम्मान के लिए उनकी पात्रता को रद्द कर जाता है। जनता को अपने-अपने क्षेत्र के जनप्रतिनिधि के आचरण-व्यवहार-योग्यता की समीक्षा करनी चाहिए व सवाल भी पूछने शुरु कर देने चाहिए- यहां पर जात-पात-मजहब व पार्टी निष्ठा को परे रख कर जनता को अपना काम शुरु कर देना चाहिेए। आपके सवाल उनकी नींद उड़ा देंगे- और वो आपके दरबार में हाजरी देने खुद आयेंगे... बस आप पूछिये सवाल क्या और क्यों?
अगर कोई जनोपयोगी कार्य नहीं हुआ तो क्यों नहीं हुआ और कोई गलत काम हुआ तो क्यों हुआ?
जिस दिन से आप सवालों की श्रृंखला शुरु कर देंगे तब उनको लगेगा कि जनता जगी हुई है- और उनके कार्यों की समालोचना होनी तय है- तब अच्छे काम करने वाले जनप्रतिनिधि प्रोत्साहित होकर और अच्छा काम करेंगे- और गलत काम करने वाले गलत काम करने से पहले बार-बार सोचेंगे! परिवर्तन की मानसिक प्रक्रिया इस तरह शुरु होगी और उजियाले की फटती पो का नजारा भी दिखेगा- पर इसके लिये जनमानस को जागना होगा-और अपने-अपने क्षेत्र से प्रक्रिया शुरु करनी होगी। आप उनसे सवाल पर सवाल तब तक पूछते रहे जब तक वो आपके सवालों का जवाब देने के लिए बाध्य न हो जाये।

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