Monday, August 1, 2011

उनकी कृपा याद आती है...


करीब १५ वर्ष पूर्व ३१ जुलाई १९९६ को जब इस स्थूल जगत में मेरे सर से पिता का साया उठा था तब मुझे अहसास हुआ था कि सर पर से पिता रुपी इस वट वृक्ष की अनुपस्थिति का दर्द क्या होता है? इस खालीपन का अहसास उस वक्त तो और अधिक होता था- जब संघर्षों के तूफान सामने खड़े दिखते थे- और पिता के नाम, अपने स्वाभिमान, को बचाने की कवायद में अपनों के कटाक्ष होते थे और इन सबके बीच परिवार के भरण-पोषण की जवाबदेही सामने होती थी...।
यह संघर्ष नहीं भूला जाने वाला संघर्ष था- लेकिन इस व्यथा का बोझ तब कुछ कम हुआ था जब एक पुण्यात्मा ने एक दिन मुझे अपना धर्मपुत्र कह कर मेरे उन जख्मों पर मरहम सा लगा दिया और उस दिन के बाद उन्होंने वट वृक्ष रूपी अपनी सघन छाया प्रदान की... जब भी तकलीफ के क्षण आये तो वो आगे खड़े दिखे... मुझे तनाव मुक्त किया और उस तनाव को अपने ऊपर लिया... अब ऐसी कृपा को क्या कभी भूलाया जा सकता है? क्या ऐसी पुण्यात्मा कभी स्मृति से विस्मृत हो सकती है?
मैं उस व्यक्तित्व की बात कह रहा हूं- जिसने अपने जीवन के ७५ वर्षों को कर्मठता, दक्षता, मानवियता व परोपकार के गुणों से जिया। शारीरिक अस्वस्थता की गम्भीर स्थिति में भी अपने जीवन की आखरी सुबह की पूर्व सन्ध्या में भी घर आये मरीजों को देखा। मुझे गर्व है कि लोग जिसे डॉक्टर के रूप में भगवान कहते थे- उन्होंने मेरे सर पर धर्म पिता के रूप में आर्शीवाद का हाथ रखा था। दिवंगत डॉ० एस.बी.चौधरी की स्मृतियां न जाने कितने दिलों को उनकी अनुपस्थिति से आहत करेगी और भगवान से पूछेगी कि "" हे भगवान'' तुम इस दुनिया में पुण्यआत्मा को लोकोपकार करने के लिए अधिक समय क्यों नहीं देते?
जब कुछ हमारा हमसे छीन जाता है.... तो मन की शिकायत उस विधाता से जायज है...लेकिन जब कोई व्यक्तित्व अपने जीवन की शानदार पारी यादगार लम्हों व प्रतिष्ठा-जनप्रियता की पताका के साथ खेल कर चला जाये तो विधाता से शिकायत नहीं बल्कि यह याचना होनी चाहिए कि "" हे विधाता'' कर्मवीर साधक की पुण्यात्मा ने स्थूल जगत में विश्राम नहीं लिया... अब उन्हें सुख, शांति पूर्ण विश्राम व मुक्ति का द्वार तू प्रदान कर।
३१ जुलाई मेरे पिताजी की पुण्यतिथि है- २८ जुलाई मेरे धर्मपिता की नियती संयोग भी अद्भूत बनाती है... मुझे कर्मशील, यशस्वी, परोपकारी मानवियता की शाखाओं से सुरभित वट वृक्षों की छांव मिली है...।
इस स्थूल जगत में शरीर के रूप में उनका अस्तित्व चाहे न दिखे पर सूक्ष्म जगत से उनकी अनुकंपा के स्पंदन व सुरक्षा कवच की ढ़ाल तो बनी हुई ही है।
मैं इनको सादर वंदन करते हुए इनके आध्यात्मिक उत्कर्ष की प्रार्थना सर्वशक्तिमान से करता हूं।

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