Friday, February 13, 2009

दोस्ती की मर्यादा रखिये

दोस्ती की मर्यादा रखिएकिसी ने ठीक ही कहा है कि रिश्ते बनाना जितना आसान होता है उनको निभाना उतना ही कठिन होता है क्योंकि दोस्ती के इस रिश्ते में भी धीरज व सहनशीलता की आवश्यकता होती है। अक्सर ये रिश्ते इसलिए चरमरा जाते हैं जब कोई आपका दोस्त आपको आपकी भूल का अहसास करा कर वो इसमें सुधार की आप से अपेक्षा करे। आपकी हां में हां मिलाने वाला तथा सही गलत का बोध रुपी सच आप तक न पहुंचाने वाला आपका दोस्त हरगिज नहीं हो सकता वो तो.... होता है। पर दुखदः तथ्य यह है कि हम अपनी किसी भूल का इशारा अपने दोस्त से भी जानना नहीं चाहते और उससे एक बार पूछना भी उचित नहीं समझते जिसने आपकी किसी भूल की तरफ इशारा किया हो।गलती किसी से भी हो सकती है... हो सकता है कहीं आप गलत हो या यह भी हो सकता है कि आपका वो मित्र गलत हो जो आपकी भूल बतला रहा है... पर इसका समाधान तो तभी हो सकता है जब आप उसकी भावना को जानने की कोशिश करे कि उसको आपकी गलती कहां और क्यों लगी? मेरे ख्याल में सच्चा मित्र वो ही होता है जो अपने मित्र से कोई भूल हो गयी है॥ तो उस भूल का शोधन करवा दे। जिस प्रकार अपने मित्र की प्रगति से मित्रता खुश होती है उसी प्रकार उसकी भूल से अपने मित्र को परेशानी में घिरा देखकर वो आहत भी होती है। अगर आपके किसी अजीज ने अगर किसी विवाद में आपकी भूल की तरफ इंगित कर दिया और आपको अनुचित लगा तो आपका कर्तव्य यह बनताहै कि आप उससे यह जाने कि उसने ऐसा क्यों कहा? अगर वो आपको संतुष्ट नहीं कर सके तब आपको अधिकार है कि आप अपने उस अजीज पर शब्दों का प्रहार कर सकते हैं। पर बिना उससे जाने अगर आप शब्दों के छोटेपन पर उतर आते हैं तो यहां उस अनजान रिश्ते दोस्ती की मर्यादा का अतिक्रमण होता है और वो अपमान आपके उस तथाकथित मित्र का नहीं बल्कि आप स्वयं आपका ही अपमान करते है। जब आप यह सवाल करते हैं "भूल बतलाने वाला आखिर वो कौन? तब इसका सीधा सा अर्थ यह निकलता है कि आपने "दोस्ती' के इस गहरे रिश्ते को पहचाना ही नहीं। दरअसल हर एक सच्चे मित्र के पास यह अधिकार होता है कि वो अपनी बुद्धि विवेक के अनुसार सही गलत का ज्ञान रखते हुए अपने मित्र को अपनी भावनाओं से अवगत कराये। जो शख्स किसी विवादास्पद मोड़ पर अपने मित्र वाले पक्ष से उस भूल को अपने सर पर लेता हुआ क्षमा मांग लेता है। क्या उसको अपनी भावना बतलाने का अधिकार नहीं बचता? "मित्रता' उसे नहीं कहते कि उकसाकर किसी को आगे बढ़ा दे और जब हो हल्ला होने की आशंका हो तो मैदान छोड़कर दो चार हो जाये। मित्रता को न तो नोटो की गड्यिों से तोला जाना चाहिए न ही किसी के रुतबे से। "मित्रता' भावनाओं का वो बंधन होता है जो सिर्फ भावनाओं की तुला पर ही तुलता है। शायद इसलिए खून के रिश्तों से भी ज्यादा वजनी होता है "मित्रता' का यह रिश्ता । अगर निभा न सके तो फिर इतना गहरा बनाना भी न चाहिए यह कोई धागा नहीं कि जब चाहे खींच कर तोड़ देंं... कम से कम यह ख्याल तो रखना ही चाहिए कि आपकी प्रत्यक्ष परोक्ष में ऐसी कोई हरकत न हो जिससे किसी के दिल पर आपके शब्दों का आघात लगे और उसके दिल से निकली हुई "आह' फिर आपके जीवन में आगे सवाल करें...इसलिए दोस्ती की मर्यादा को रखिए.. कृपया उसे मजाक न बनाएं। -संजय सनम

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