Thursday, November 27, 2008

जहाँ नीति की सेल लगी है

किसी भी क्षेत्र में अगर कोई प्रतिष्ठित बड़ा नाम संकीर्ण सोच को प्रस्तुत करता है... तब फिर उसे महसूस करके शर्म भी आती है तथा उसे नजरअंदाज करना भी मुश्किल हो जाता है। लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ है ""पत्रकारिता''और इस महत्वपूर्ण स्तम्भ में भी जब कभी प्रतिष्ठित नाम छोटी नियत की खरोचे लगाता रहता है तब सवाल उठता है कि खाते -पीते लोग बेवजह कटोरा सा लेकर क्यों खड़े हो जाते है? यह सही है कि खबर को उठाने से लेकर छपाने तक की विभिन्न प्रक्रियाओं के बड़े खर्च किसी भी प्रकाशन विभाग के लिए सर दर्द के रूप ही होते है पर जिस प्रतिष्ठान का ब्राण्ड पोस्टकार्ड की तरह दौड़ रहा है ...विज्ञापनों की ढ़ेरिया ही लगी है... उस प्रतिष्ठान के अगर कोई जिम्मेवार लोग छोटे पत्र-पत्रिकाओं के विज्ञापन पृष्टों को टटोलते हुए अगर यह कहने लग जाये कि"" ये विज्ञापन कैसे ले आते है'' तब इस जलन पर यब सवाल उठता है कि जैसे दुनिया का माल इन लोंगो ने अपना ही सामान समझ रखा है। खुद के सामने विज्ञापनों रूपी माल पुये की थाली भरी पड़ी है.. पर दुसरे की थाली पर ही इनकी नजर रहती है उसके खाध पदार्थ इनकी नजरों में आखिर क्यों खटकते है? हर कोई अपने उत्पाद को श्रेष्ठ कहता है पर श्रेष्ठता खुद के कहने से नही बल्कि जमाने के बोलने से अंकन में आती है।किसी जब बड़े पत्र का जिम्मेवार व्यति फोन पर यह कहे कि आपने अमुख... हमारे पत्र में क्यों नही भेजा? आप भेजते तो हम प्रकाशित कर देते क्योकि हमारे पत्र में नाम छापना विशेष अर्थ रखता हैआखिर किस नाते ये अपनी इस तरह की श्रेष्ठता साबित करना चाहते है? प्रसार व विज्ञापनों की भरमार के बल पर इतना इतराने की जरूरत क्या है। खबरों का दम तो उनके प्रतिस्पधिर्यों में उनसे कही अधिक है तथा नीति की अगर बात करे तो इनसे तो वह लोग श्रेष्ठ है। जिनकी प्रसार संख्या चाहे इनकी तुलना में े ेनग्ण्य हो पर जो पैसे के लिए अपने जमीर तो नही बेचते।किस तरह फोटुओं ेका प्रकाशन व समाचार के रूप में रूपये देने वालों की वरदावली इन सम्मानित पत्र में छपती है। क्या पाठक वर्ग ये भीतरी सत्य नही समझते? वो सब जानते है कि यहॉं बिन रूपेयों के कोई अच्छी बात भी न छपे तथा पैसा देकर बेतुकी बात भी छप जाये यहॉं वो शिकायत रूपी खबर नहीं छप सकती जो किसी बड़े विज्ञापन दाता के खिलाफ हो चाहे शिकायतकर्ता की शिकायत कितनी ही उचित क्यों ना हो? फर्स्ट न्यूज ने एक प्रतिष्ठान की ग्राहक वर्ग से मिली शिकायत क ो आधार बनाकर खबर प्रकाशित की थी। उस खबर का प्रभाव इतना हुआ कि उस प्रतिष्ठान के प्रबंधक को फर्स्ट न्यूज की खबर का जबाब एक प्रतिष्ठित पत्र में वरदावली के रूप में छपवाना पड़ा , बाद में उन्होंने मुझे फोन पर इसकी जानकारी जब दी तो मुझे हॅंसी आ गई। तब मुझे ऐसा लगा कि मॉं शारदे की कृपा से हम उस जगह पर तो जरूर है जहॉं पर हमारी कलम का जबाब देने के लिए सामने वाले को अपने तरकश व तुणिर के नामी ब्राण्ड ही खोजने पड़ते है।पर असली सवाल तो यह है कि इतने प्रतिष्ठित समाचार पत्रों में अगर बड़े विज्ञापन दाता क ो खुश करने के लिए अपनी नीति की खुली सेल लगा ली जाती है तो फिर वो सर्वश्रेष्ठ होने का दम्भकैसे भरते है। उनसे अगर पूछा जाये की नीतिगत निर्णयों में आपका व्यव्सायिक पक्ष निर्णय करता है या जमीर... अगर ईमानदारी से वह जबाब देते तो उनको यह ही कहना पड़ेगा कि हमने अपना जमीर तो कब का ही बेच दिया है? शायद इसलिए यह रूपयों के चस्कों के पीछे शब्दों का मस्खा लगाने से नही चूकते।एक निवेदन और आज अगर वे शिखर पर है तो इसका अर्थ यह नहीं कि इस मुकाम पर बनें रहने का उन्होंने पट्टा लिखवा लिया है। श्रीमान, समय का चक्र अपना मिजाज कब बदल देगा और उनके आज के इस मुकाम पर कल किसका नाम लिखा होगा यह कौन जानता है? इसलिये टटोलिये अपनी नीति को व औरों की थाली में झांकना बंद कीजिये... कही ऐसा न हो कि व्यर्थ की ताका झांकी में कोई आपकी भरी पुरी थाली को चटकर जाये?हमने तो सुना है कि जिसकी सोच बड़ी होती है बड़ा तो वो होता है। जिसकी सोच छोटी उसे क्या कहेंगे? उनकी सोच का नजरिया व नीतियां तो उनको बड़ा नही कहती। फैसला तो समय ही करेगा कि ऐसी संकीर्ण नीति रखने वाले ""पत्रों'' का कद आगे कैसा होगा?इनकी सोच तो इतनी छोटी कि पुस्तक । सीडी की समीक्षा प्रकाशित करने के लिये भी वे उस उत्पाद के विज्ञापन के लिए देखते रहते है।विज्ञापन छापने में कोई बुराई नही है पर विज्ञापन के लिए व ईर्ष्यावश उसे न प्रकाशित करने अर्थात अटकानें की प्रवृति उनके व्यक्तित्व का स्तर खुद बता देती है। जिनकी सोच का नजरिया अगर धरातल कों देख रहा है तब फिर उनकी आकाशी उड़ान आखिर कब तक संभव है?पत्रकारिता में नीति का एक घिनौना सच तो यहॉं तक सुनने को मिलता है।खबर बनने के बाद भी लेन देन का हिसाब हो जाने पर छपती नही। सीडी बन जाने के बाद भी टीवी चैनल में चलती नहीं। इस वजह से मीडिया के मार्फत सहारा उस कमजोर,असहाय पक्ष को नहीं मिल पाता व अन्याय करने वाला पक्ष रूपया उछालकर अपनी जीत के नगाड़े बजा लेता है।मीडिया में ऐसे लोगों की काली करतूते उन लोगों को महंगी पड़ती है जो दौलत की तुला में अपने जमीर को नहीं तौलते। सामर्थ्यवान पत्रों की यह कमजोरी पत्रकारिता को आहत करती है। भूखा पेट अगर ऐसा करें तो फिर भी उसकी मजबुरी समझ में आती है लेकिन जिनके पेट की भूख मिटी हुई हो फिर भी रोटी रोटी करें ... तो उन्हें क्या कहा जाये।

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