Tuesday, December 2, 2008

"विसर्जन' को मजाक मत बनाइये

संजय सनम

तेरापंथ समाज को समर्पित

जैन संस्कृति में श्रावक समाज के लिए "विसर्जन' शब्द की अपनी महत्ता है तथा इस शब्द की विशिष्टता अर्जन के साथ विसर्जन की उस परम्परा का बोध करवाती है-जो समाज की विभिन्न गतिविधियों के अंतर्गत कमजोर तबके के लोगों को शक्ति प्रदान करने में अहम भूमिका अदा करता है।पर इस "विसर्जन' शब्द की महत्ता, प्रायोगिकता व उपयोगिता का अर्थ अगर कार्यकर्ताओं की जमात ही भूल जाये तब विसर्जन का यह उपयोग मजाकिया हो जाता है। "विसर्जन' के इस कार्य में समाज के जो लोग अपना समय समाज के लिए प्रदान करते हैं उनके इस नियोजन को मैं हृदय से प्रणाम करता हूं, पर जब कोई कार्यकर्ता "विसर्जन' का अटारा लेकर दांव पेंच का इस्तेमाल करने लगता है तब उस कार्यकर्ता केहाथ से "विसर्जन' शब्द आहत् हो जाता है। "विसर्जन' शब्द की महत्ता तो गुपचुप दान (गुप्तदान) के रूप में होनी चाहिए, पर इसका स्टाइल तो अत्याधुनिक हो गया है। अब कार्यकर्ता स्वयं घरों में जाते हैंंं तथा अपनी श्रद्धा के अनुसार १०० रुपये से लेकर ऊपर आपकी इच्छा के मुताबिक विसर्जन की रसीद कटाने का आग्रह करते हैं। जब मैंने उनसे यह पूछा कि यह तो गुप्तदान के रूप में होना चाहिए, इस तरह रसीद काटने का उपक्रम मुझे समझ में नहीं आ रहा था, तब उन्होंने मुझे समझाने के अंदाज में कहा कि घरों में जा कर रसीद कटाने से तात्पर्य इस बात का भी है कि अगर कोई परिवार की आर्थिक स्थिति १०० रुपये देने की भी नहीं हो तो समाज की जानकारी में उस परिवार की स्थिति आ सके तथा समाज उस परिवार के लिए अपना आवश्यक दायित्व वहन कर सके। मुझे उनके इस जवाब में समाज के कमजोर वर्ग के प्रति समाज की प्रतिबद्धता की भावना तो अच्छी लगी, पर विसर्जन की रसीद के माध्यम से ही आप इनका डाटा जुटा पाये यह तर्क युक्ति संगत नहीं लगा। क्या किसी की कमजोर स्थिति सामने लाकर ही आप उसे जान सकते हैं... या उससे समाज के चार कार्यकर्ताओं के सामने यह कहलवाकर कि उसकी आर्थिक स्थिति १०० रुपये के विसर्जन की रसीद कटवाने की नहीं है, क्या तब हमारा समाज उस परिवार को अधिक जान पायेंगा? अगर कमजोर के मन में उसकी कमजोरी की हीन भावना को जमाकर फिर उसकी सहायता के लिए हम खड़े भी हो जायें तब भी क्या उस परिवार के मन की उस व्यथा को मिटाया जा सकता है? जो अपनी प्रक्रिया के अंतर्गत समाज के द्वारा उसको दी गयी है। खैर... यह भी विसर्जन की प्रक्रिया का एक वैचारिक पक्ष है पर अब मैं उस पक्ष पर आना चाहता हूं जिसकी इजाजत तो परम्परा कतई नहीं देती।"विसर्जन' का कोष जुटाने वाले कार्यकर्ता अगर एक व्यक्ति का नाम दूसरे व्यक्ति के सामने लेकर मनोवैज्ञानिक पासा फेंकने का कार्य करने लग जाये तथा यहां भी अगर सफेद झूठ का प्रयोग करने में भी कार्यकर्ता न हिचकिचाये तो सवाल उठता है कि विसर्जन की झूठ से भारी पोटली उठाने के लिए हमने संस्कारों की विरासती पोटली को कहां फेंक दिया? किसी व्यक्ति का नाम लेकर आप दूसरे व्यक्ति को उसकी झूठी रकम बतलाकर व उस व्यक्ति को मनोवैज्ञानिक रूप से मजबूर करके रसीद काटने की अगर कुटिल चाल चलते हैं...तो "विसर्जन' की मयार्दा से पहिले आप इस पोटली को उठाने का अधिकार भी खो देते हैं तथा वो व्यक्ति जो आपकी छद्म चाल से ठगा जाता है... उसके मन में आपकी यह करतूत "विसर्जन' को नासूर बना देती है। जहां संस्कार निर्माण की कार्यशालाओं का आगाज हो... वहां संस्कार निर्माण की धज्जियां अगर समाज के कार्यकर्ता ही उड़ाते दिखे तो फिर बतलाइये क्या गरिमा रहेगी उन कार्यशालाओं की तथा क्या उपयोगिता रहेगी "विसर्जन' के इस उपक्रम की। मेरा यह आलेख विशेषकर जैन समाज के "तेरापंथ' समाज को समर्पित है जहां विसर्जन के प्रक्रम की रफ्तार तो बहुत तेज है पर इस गाड़ी मेंंं पारंपरिक संस्कारों के कल पूर्जे ढ़ीलें हैं जो विसर्जन को "विष-अर्जन' बना रहे हैं। इसलिए आवश्यक है कि विसर्जन की प्रयोगिकता से पहिले उसके व्यवहारिक तौर तरीकों को कुछ इस तरह से बनाया जाये जिससे न सिर्फ जैन बल्कि अन्य समाज के लोग भी इस पुनीत उद्देश्य में उत्साह के साथ सम्मिलित हो सके पर विसर्जन का ढिंढोरा न पिटवाये कम से कम यह क्षेत्र तो बिना नाम के काम का छोड़ दिया जाये जिससे उस कोष में अपनी सामर्थ्य के अनुसार १०० रुपये देने वाला भी बिना किसी हीन भावना के वह गौरव अनुभूत कर सके तथा हजारों देने वाले भी अपने नाम के अहंकार से बच सके। लेखक-पत्रकार होने के नाते मैंने इस सत्यता को आवाज देने का धर्म निभाया है अगर आपको यह सच स्वीकार योग्य लगे व आप इस पर समुचित मंथन करें तो मुझे आत्मसंतोष मिलेगा। अगर आप इस सच को पचा नहीं पाये और मेरे प्रति विद्वेष पनपे... तो ख्याल रखें कि जिस जमीन पर हम खड़े हैं उसके आदर्श हमें क्या कहते हैं? मेरा धर्म सच को बिना लाग लपेट के सरल शब्दों से पाठक वर्ग तक पहुंचाना है, मैं अपना धर्म निभा रहा हूं। क्या आपसे आशा कर सकता हूं कि आप भी अपनी जवाबदेही का धर्म निभायेंगे?

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