संजय सनम
आ रहा नववर्ष... पर क्या आगाज धूम धड़ाके के साथ ही होना चाहिए। जब देश में आतंकियों के बारुद ने मौत का तांडव मचा रखा हो क्या इस माहौल में डिस्को की तर्ज पर कान फोड़ू संगीत की धुन पर थिरकते हुए ही नववर्ष का अभिनंदन किया जा सकता है? मानवीयता के नाम पर शोक विहल उन परिवारों के साथ क्या हम इतने भी खड़े नहीं हो सकते कि कम से कम जश्न की आवाज को तो धीमा कर दे। जो उनकेसाथ हुआ क्या उसके दर्द को हम महसूस नहीं कर पा रहे हैं गर ये हालात हमारे आस पास हुए होते तो क्या हम जश्न की धूमधड़ाके की तर्ज को याद रख पाते? बड़ा दुख होता है जब जवाब में यह सुनने को मिलता है कि मुंबई में जो कुछ हुआ उससे हमको क्या लेना देना, क्या वे लोग हमारी खुशी गम में शरीक होते हैं, फिर हम अपने मनोरंजन के लिए क्यों नहीं झुमें-गायें?बेशक आपकी खुशी-गम में मुंबई के वे लोग नहीं आते पर मानवीयता का जज्बा तो हर उस इंसान से आप तक जरूर पहुंचता है जिसके अंदर इंसानियत की आवाज हो। काश मेरे ये दोस्त "दुआ' की ताकत व जख्मों की पीड़ा को समझते तो वे हजारों किलोमीटर दूर रहकर भी उन अनजानों पीड़ितों के जख्मों पर दुआ का मरहम लगाकर मानवीयता का धर्म निभा सकते हैं।पर हमने अपने आपको अपनी खुदगर्जी की चारदीवारी के अंदर ही समेट लिया है। शायद इसलिए हम अपने आपको विस्तृत करके खुद को सबका नहीं कर पाये पर एक बात तो जरूर उन लोगों को सोचनी होगी कि "अगर हम सबके नहीं हो सकते तो फिर हमारा कौन होगा?'मुंबई हमले के बाद हमारे मुस्लिम भाईयों ने अपना पर्व अत्यंत सादगी के साथ मनाते हुए आतंकी चपेट में आये परिवारों के प्रति दुआ अता की, इसे ही इंसानियत का पाठ कहते हैं। जो हमारे मुस्लिम भाइयों ने कर दिखाया है।पर्व पर उत्साह की घेराबंदी रहे पर हम हालातों को देखकर कुछ वैसा ही रंग लगाये तो फिर वो रंग सकून देता है अन्यथा वो आंख में चुभने लगता है।नववर्ष का अभिनंदन गर्म जोशी के साथ हो पर इसके लिए कुल्हे मटका कर सर को फटा सा देने वाले संगीत की तर्ज पर मचलना थिरकना तो आवश्यक नहीं है। जो हालात हम सुन, पढ़ रहे हैंं क्या उन हालातों में प्रार्थना के स्वरों में आने वाले आगत का स्वागत नहीं किया जा सकता?अगर आज हम उन लोगों के दर्द को नहीं समझ पा रहे हैं जिन लोगों ने पिछले दिनों आतंकी हमले में बहुत कुछ खोया है॥ तो हमारा अपना जश्न एक दिन हमसे सवाल पूछ सकता है कि आंसूओं की तासीर कैसी होती है?हम उनके दर्द को बंटा तो नहीं सके पर आंसूओं से भीगी उन आंखों के सामने जश्न का वो नाच तो न दिखाये जो उनको चिढ़ाता सा दिखे।मेरा निवेदन है कृपया हम अपनी खुशी के प्रदर्शन का तरीका हालातों के आधार पर बदले। हमें खुशी मनाने का अधिकार है पर संवेदना को चोटिल करके झुमने-नाचने का कतई नहीं। इन हालातों में भी अगर हम जश्न के अंदाज को सादगी के रंग से रंगीन नहीं कर रहे हैं तो इंसानियत के उसूल का अतिक्रमण ही कर रहे हैं।अगर हम ऐसा करते हैं तो मैं इसे मनोरंजन नहीं बल्कि खुदगर्जी की मानसिकता कहूंगा.... क्योंकि आपसे हजारों किलोमीटर दूर अगर इंसानियत के पखरचे उड़ते हैं और आपको कोई फर्क नहीं पड़ता इसका सीधा सा अर्थ है कि आप सिर्फ उस पीड़ा को ही महसूस करते हैं जो आपको हुई है इसके अलावा बाहरी पीड़ा आपके लिए कोई अर्थ नहीं रखती।लगता है कि संवेदना की तलैया एकदम सुख गयी है अन्यथा एक बगिया के उजड़ने का दर्द दूसरी बगिया का बागवां जरूर समझता।एक आदमी के दर्द को अगर दूसरा आदमी नहीं समझ रहा तो फिर शिकायत किससे की जा सकती है? आतंक से भी अधिक स्थिति खतरनाक हमारी खुदगर्ज सोच है अगर ये हमले लगातार हो रहे हैं तो इसका एक अहम कारण हमारी मानसिकता की यह कमजोरी भी है। कोई मरे तो मरे, रोये तो रोये, पर हम अपने जश्न का कोई अवसर पीड़ित मानवता के लिए छोड़ना नहीं चाहते। हमारी यह सोच हमारे आस पास होने वाले विस्फोट की खाई बना रही है क्योंकि वे लोग हमारी इस कमजोरी का लाभ उठाने को तैयार बैठें हैं पर तब क्या हम ता ता थैया... करते रह पायेंगे?अब भी अगर आपका जमीर जश्न के उस अंदाज की इजाजत देता है तो आप अपनी चाहत को जरूर पूरा कीजिए, पर मुझे इस पर अपना विरोध अंकित करने की इजाजत भी दीजिए। मैं इन हालातों में जश्न के इस धूम-धड़ाके के अंदाज पर अपना विरोध प्रगट करता हूं।
Sunday, December 14, 2008
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