चुटकी
राष्ट्रपति पद पर
महिला।
लोकसभा अध्यक्षा भी
महिला।
रिमोट से सरकारचलाने वाली भी
महिला।
फिर भीमहिलाओं की स्थिति
दयनीयअगर है...तो
यह सवाल विचारणीय है।
संजय सनम
कितने बेशरम है ये
जो जनता के सामने
जुबान से नंगे होकर लड़ते है
पर दिल्ली की कुर्सी पर
काबिज होने के लिए
फ़िर गले मिल लेते है
तब ऐसा लगता है कि
वो जनता के वोट को
मजाक बनाकर
जबरन कुर्सी का
अधिग्रहण
कर लेते है
कुर्सी के इस तंत्र को
फ़िर जनतंत्र क्यो कहा जाता है ?
जमीर के कपड़े
उतारने वालो के लिए
जनता के वोट को
तब क्यो ?
नंगा किया जाता है
संजय सनम
आदरणीय योग गुरु जी,सादर अभिवादन!कल दिनांक २ अप्रैल २००९ को आस्था चैनल के माध्यम से स्वदेशी और स्वाभिमान के प्रेरक विषय पर आपके सान्निध्य में बौद्धिक वक्ताओं के विचारों को सुनकर... मुझे ऐसा लगा कि आप इस देश के करोड़ों लोगों में उत्प्रेरक बनकर प्रेरणा तो जगा रहे हैं पर जिस तरह से आपने शरीर के तंत्र को ठीक करने के लिए प्रायोगिक रूप से योग खुद करके लोगों को सिखाया और बीमार शरीर को स्वस्थ बनाया वैसा प्रयोग बीमार शासन तंत्र को स्वस्थ करने के लिए आप स्वयं करने से कतरा रहे हैं। बाबा,इस देश की राजनीति की गंगा मैली है यह सब जानते हैं, जनता भी जानती है... पर वो क्या करें? उसके पास पांच वर्षों से एक वार निर्णय देने का अवसर आता है॥ और उसमें उसको उन ही लोगों की जमात से चुनना पड़ता है। पार्टी, निशान, नेता तो बदलते है पर फिर भी जनता की तकदीर और इस देश की तस्वीर नहीं बदलती क्योंकि राजनेताओं का चरित्र नहीं बदलता... आखिर एक ही थैले के चट्टेबट्टे जो ठहरे... इसलिए बाबा देश का भाग्य नहीं बदलता... क्योंकि जनता के पास विकल्प कहां है? ऐसे नैतिक, ईमानदार, राष्ट्रप्रेमी नायकों की कतार कहां है? और जो इस तबके के कुछ है वो इस मैली गंगा में कुदकर इसको साफ करने के लिए अपने हाथ गंदे करने को तैयार नहीं है।बाबा,आप भी तो मैली गंगा के किनारे खड़े होकर करोड़ों लोगों को इसके बारे में जता रहे हैं पर आप भी तो छलांग नहीं लगा रहे हैं जबकि इस देश की जनता आपको गुरु मानती है आपके आदेश की अनुपालना के लिए बगले नहीं झांकती आपके पास देशप्रेम से ओतप्रोत, विचारवान, कार्यकर्ताओं की टीम है... फिर भी आप सिर्फ उद्बोधन दे रहे हैं। जिस तरह से शरीर तंत्र की प्रक्रिया को दुरुस्त करने के लिए आपने करोड़ों लोगों को प्राणायाम खुद करते हुए दिखाकर सिखाया.... वैसे ही राष्ट्र के बीमार तंत्र को दुरुस्त करने के लिए आपको राजनीति की मैली गंगा को साफ करने की प्रक्रिया उसमें कूदकर स्वयं साफ करते हुए दिखानी होगी।बाबा,व्यवस्थाएं, नियम, कानून, तो संसद में बनते हैं... अगर इनको बदलना है तो आपको जन प्रतिनिधि का दायित्व ओढ़कर अपने कुछ विशेष बौद्धिक कार्यकर्ताओं के साथ संसद में जाना होगा।आपने कल कहां था, मुझे पी।एम। नहीं बनना, मंत्री नहीं बनना.... मत बनिये। पर इस देश की व्यवस्थाकेतंत्र को बदलने के लिए अर्थात नीति निर्धारण करने के लिए आप अपनी ऊर्जा को जनता से भरे मैदानों में नहीं बल्कि संसद में लगाइए॥ तब देश का भला होगा।बाबा,धर्म, न्याय, की रक्षा के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने अधर्म का सहारा लेने को भी पाप नहीं माना था, क्या आप साधु के इस चोले के लिए राजनीति की इस मैली गंगा में जाने से कतरा रहे हैं? आपको डर है कि लोग क्या कहेंगे? आखिर रामदेव भी नेता बनने के लिए लालायित हो गये.... इसी डर की वजह से आपको बार-बार खुलासा करना पड़ता है॥ कि मुझे मंत्री नहीं बनना... है ना?अगर आप स्वयं प्रयोग करने से हिचकिचाते हैं तो फिर स्वाभिमान की यह शमां मत जलाइये।अगर इस देश के प्रति आपको वास्तव में श्रद्धा है प्यार है.. तो आप अपनी सामर्थ्य का जलवा दिखाइये।आप अपने निष्ठावान, समर्थ, संकल्पी कार्यकर्ताओं को आने वाले लोकसभा चुनाव के मैदान में उतारिए और उनको नेतृत्व प्रदान कीजिए। जिस दिन संसद में राष्ट्रप्रेमी नायकों का एक टुकड़ा जन प्रतिनिधि बनकर आ जायेगा उस दिन भ्रष्ट नेताओं के चंगुल से देश छूट जाएगा और उसका चेहरा बदल जाएगा। अवसर एकदम सामने हैं.... बाबा! अगर आप चाहें तो इस देश की तस्वीर और तकदीर दोनों बदल सकती है पर इसके लिए आपको सड़क से संसद में जन प्रतिनिधि के रूप में जाना होगा। अगर यह हिम्मत नहीं है तो बाबा फिर जनता के दिल की कसक को और मत तड़पाइये, फिर इन करोड़ों को अंधेरों में ही रहने दीजिए झूठी रोशनी मत दिखाइए।मेरा दावा है कि अगर आप इस समाधान को स्वीकार करते हैं तो ६ महीने के अंदर देश के सूरते हाल खुश्गवार नजर आने लगेंगे। पर इसके लिए व्यवस्था तंत्र को कपाल भारती आपको संसद में करनी व करवानी होगी। क्या आप ऐसा कर सकते हैं।संजय सनम
गठबंधन कीराजनीति
कुछ इस तरह दिखती है
जब तक गठबंधन रहता है
तब तक देश हिलता है
औरजब नहीं रहता
तबसरकार हिलती है।
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चुनावी राजनीति केघोषणा पत्र में
विदेशी खुशबू तब आती है
जब बंगाल की वाम सरकार
बंगाल को सिंगापुर
तथा तृणमूल की ममता दीदी
स्विटजरलैंड बनाने की पेशकश कर जाती है।
राजनीति की इस कुटिल चाल पर
भारतीय मन सहम जाता है
आखिर क्यों?
भारत के फ्रेम में विदेशी तस्वीर लगाने का
राजनीतिक उदघोष वोट बटोरने के लिए लग जाता है
शायद वह नहीं जानते कि
भारतीय जनता
भारत में भारत की ही "नजीर' चाहती है
न कि विदेशी तस्वीर चाहती है।
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मंदी में
चुनावऐसा लगता है
जैसे अनमने भाव से
दुल्हन अपने ससुराल जाती है
संजय सनम
आज बहुरंगी रंगों से
जमी लाल -गुलाब हो गई है
मस्तो की मस्ती जैसे
बरसो पहले की शराब हो गई है
आसमा में रंगों की
गुबार जैसे बहार हो गई है
बाहर का नजारा रंगीन दिखा है जरुर
पर मन की पीडा
फ़िर नजरंदाज हो गई है
अब तुम ही बतलावो ...
में कैसे कह दू की
होली कामयाब हो गई है
संजय सनम
सवाल हर क्षेत्र से किसी न किसी रूप में तब उठता दिखता है जब वहां किसी का शोषण, उत्पीड़न या फिर दौलत की चाह में मानवीयता के उसूलों को भूलकर सामने वाले की मजबूरी का दोहन किया जाता है।चिकित्सा के क्षेत्र में नर्सिंग होम से लेकर नामी अस्पतालों व नामी गिरामी डाक्टरों के द्वारा अमानवीयता की हद पार कर जाने की घटनाएं सुनने को मिलती है। यह सच है कि मरीज और उसके परिजनों के लिए इलाज करने वाला डाक्टर भगवान स्वरूप ही होता है और अगर वो बेवजह मरीज को उलझा कर रुपये ऐंठता चला जाये तो फिर वो भगवान नहीं हैवान होता है। इसी प्रकार मरे हुए मरीज को वेन्टीलेटर पर रखकर चार्ज उगाहने की घटनाएं भी सुनने को मिलती है। इन सब घटनाओं की वजह से कई वार अच्छे डाक्टर व नर्सिंग होम के संचालक लोगों के आक्रोश व उनके प्रति गलत भावना के शिकार हो जाते हैं। फिर कई घटनाएं ऐसी होती है जब मरीज के परिजन डाक्टर व नर्सिंग होम को उसकी जायज फीस व शुल्क तक नहीं चुकाते व हो हल्ला, बदमाशी पर उतर आते हैं।यह भी तो अमानवीय है।नाजायज कहीं भी हो वो गलत है पर जायज भी अगर हम नहीं दे तब फिर वो नैतिक आदमी खुद को कितना और कब तक नैतिक रखेगा? हम यह क्यों भूल जाते हैं कि डाक्टर के हाथ में जिंदगी या मौत पर नियंत्रण नहीं है वो अपनी चिकित्सीय ज्ञान क्षमता के आधार पर मरीज को स्वस्थ करने की जिम्मेदारी निभाता है। इसमें सफलता या असफलता जो मिलती है। वो ईश्वरीय शक्ति के अधीन होती है। अगर मरीज स्वस्थ होकर नर्सिंग होम से निकलता है तब उसके परिजन नर्सिंग होम के बिल में डिस्काउन्ट की बात करने लग जाते हैं और अगर मरीज नहीं बचता तब उसके परिजन बिल न चुकाकर अगर गाली-गलौज, हुड़दंग पर उतर आये तब मानवीयता का जनाजा ही उठ जाता है। क्या यह उचित है कि हम किसी की मेहनत की कमाई का हक मार दे। हम यह क्यों भूल जाते है कि डाक्टर, नर्सिंग होम चलाने वालों का भी परिवार है उनके भी खर्चे है वो ये सब प्रोफोशनल कर रहे हैं। डाक्टर बनने के लिए उन्होंने कड़ी मेहनत व अध्ययन की फीस चुकाई है वो भी अपने परिवार को भौतिक सुख समृद्धि प्रदान करने की महत्वाकांक्षा रखते हैं।फिर उनकी जायज फीस चुकाने व नर्सिंग होम का बिल चुकाने पर हो-हल्ला क्यों?जरा सोचिए कि आपकी दुकान में आकर अगर कोई ग्राहक समान देखकर आपसे पैक करवा कर अपने बैग में डालकर उसका मूल्य चुकाये बिना चलता बने तब आपको कैसा लगेगा? क्या आप इसे सहन कर पायेगे? नहीं ना... तब फिर हम इनका जायज हक क्यों मारना चाहते हैं? विरोध वहां होना चाहिए जहां आपके साथ सामने वाला पक्ष दगाबाजी कर रहो हो वहां उस व्यवस्था व व्यवस्थापकों के चेहरोंं से नकाब जरूर उतारी जानी चाहिए। लेकिन इलाज करवा कर झूठी तोहमत से अपना पैसा बचाने की अनैतिकता तो नहीं करनी चाहिए। इससे पूर्व मैंने चिकित्सा क्षेत्र की अव्यवस्था पर ही लिखा था- इसके दूसरे पक्ष पर मेरी नजर ही नहीं गयी थी कि किस तरह मरीजों के परिजन डाक्टर व नर्सिंग होम की फीस चुकाये बिना भी चले जाते हैं। इस पहलू पर ख्याल तो तब गया जब सेंट्रल एवेन्यू बिडन स्ट्रीट के पास में रिकवरी नर्सिग होम के संचालक डा। एस.अग्रवाल ने अपनी व्यथा फोन पर सुनाई।डा.अग्रवाल का कहना था कि प्राय नर्सिंग होम में मरीज तब ही आते हैं जब स्थिति बिगड़ जाती है। यद्यपि उस वक्त हमको मरीज की हिस्ट्री की जानकारी नहीं होती फिर भी मानवीयता के नाते हम मरीज को भर्ती करने से इन्कार भी नहीं कर सकते। उस वक्त हम अपनी काबिलियत व क्षमता का पूरा प्रयोग करते है जिसका परिणाम प्रायः अच्छा मिलता है। मरीज कुछ दिनों के बाद स्वस्थता के अनुभव के साथ घर लौटने की स्थिति में आ जाता है। कई बार ऐसा भी होता है कि मरीज मरणासन्न स्थिति में ही आता है और बच नहीं पाता। डा. अग्रवाल का आगे कहना था कि इन दोनों स्थितियों में हम लोगों के साथ कुठराघात होता है। अगर मरीज स्वस्थ होकर जाता है तब उसके परिजन बिल चुकाते समय प्रायः बड़े डिस्काउंट पर उतर जाते हैं व दबाव बनाकर अपनी मर्जी के अनुसार ही चुका कर जाते हैं। और मरीज नहीं बचता तब तो हमारी शामत ही आ जाती है। बिल को छोड़िए फिर तो वो गालियां सुननी पड़ती है जो मन को बहुत गहरे चोट कर जाती है। मैंने जब डा. अग्रवाल से पूछा कि जब मरीज को भर्ती किया जाता है तब क्या आप उनसे राशि अग्रिम जमा नहीं लेते। तब उनका जवाब था कि बहुधा जब गंभीर स्थिति में मरीज को लाया जाता है तब साथ आये लोग प्रायः पड़ोसी ही होते हैं तथा कई बार ऐसा भी होता है कि हड़बड़ाहट में घर के आदमी के पास भी उस वक्त उपयुक्त राशि नहीं होती ऐसी स्थिति में हम जमा राशि की तरफ नहीं देखते बल्कि मरीज की विषम स्थिति को सहज बनाने के लिए जुट जाते हैं हमारी यह मानवीयता अक्सर हमारा गुनाह बन जाती है। डा.अग्रवाल की यह वेदना यह बतलाने के लिए क्या काफी नहीं है कि हमारी खामियां कई बार अच्छे लोगों को भी अनैतिक होने के लिए मजबूर कर देती है फिर हम डाक्टर से मानवीयता की अपेक्षा रखने का भी अधिकार खो देते हैं। किसी के हक को मारना क्या गुनाह नहीं है? बिल चुकाने से बचने के लिए हो हल्ला, गुण्डागर्दी के हालात बनाना क्या अनैतिक नहीं है?निवेदन है कि जो लोग जिस क्षेत्र में नैतिक बनकर अपना कर्म कर रहे हैं उनकी नैतिकता को बचाये रखिए। अगर इनकी नैतिकता का हम मजाक उड़ायेंगे या इनके जायज हक पर कुठराघात करेंगे तो ये नैतिक लोग फिर कब तक नैतिक बने रहेंगे और अगर ये भी अनैतिक हमारी वजह से बन गये तब फिर इस कलियुग में बचेगा क्या?इसलिए किसी के भी जायज हक को देने में मत हिचकिचाइए! हां जहां जान बुझकर आपके साथ कोई धोखाधड़ी कर रहा है तब उसके खिलाफ जरूर आवाज उठाइये फिर वो चाहे कोई कितना ही नामी व्यक्ति या संस्थान क्यों न हो? पर बेवजह ऐसे हालात मत बनाइये जिससे कोई इंसान अपनी इंसानियत को छोड़ने के लिए मजबूर हो जाये। इस आलेख में मैंने एक डाक्टर व नर्सिंग होम संचालक की उस पीड़ा को आप पाठकों तक पहुंचाने की कोशिश की है जो वास्तव में जायज है व विचारणीय है।यद्यपि डाक्टर अग्रवाल से मेरा परिचय सिर्फ फोन के उन पाठक जैसा ही है जो अपने विचार कलम की नोक तक पहुंचाने के लिए फोन से मुझे जताते रहते हैं फिर भी डा. अग्रवाल से फोन पर हुई बातचीत से मुझे ऐसा लगा कि इस प्रसंग को फर्स्ट न्यूज पाठक वर्ग त्वरित पहुंचाया जाना चाहिए, आशा है पाठक वर्ग विषय की गंभीरता को तवज्जो देंगे।
संजय सनम
पाक को अपनी करनी का फल मिल रहा है
पड़ोस में आग लगाते लगाते
अब उसका अपना आशियाना जल रहा हैं
अब असली हुक्मरान
जरदारी -गिलानी नहीं
तालिबान
जो बन रहा हैं
अर्थात
पाक का नाम
अब नक्शे से मिट रहा है
संजय सनम
संजय सनम
तेरापंथ समाज को समर्पित
जैन संस्कृति में श्रावक समाज के लिए "विसर्जन' शब्द की अपनी महत्ता है तथा इस शब्द की विशिष्टता अर्जन के साथ विसर्जन की उस परम्परा का बोध करवाती है-जो समाज की विभिन्न गतिविधियों के अंतर्गत कमजोर तबके के लोगों को शक्ति प्रदान करने में अहम भूमिका अदा करता है।पर इस "विसर्जन' शब्द की महत्ता, प्रायोगिकता व उपयोगिता का अर्थ अगर कार्यकर्ताओं की जमात ही भूल जाये तब विसर्जन का यह उपयोग मजाकिया हो जाता है। "विसर्जन' के इस कार्य में समाज के जो लोग अपना समय समाज के लिए प्रदान करते हैं उनके इस नियोजन को मैं हृदय से प्रणाम करता हूं, पर जब कोई कार्यकर्ता "विसर्जन' का अटारा लेकर दांव पेंच का इस्तेमाल करने लगता है तब उस कार्यकर्ता केहाथ से "विसर्जन' शब्द आहत् हो जाता है। "विसर्जन' शब्द की महत्ता तो गुपचुप दान (गुप्तदान) के रूप में होनी चाहिए, पर इसका स्टाइल तो अत्याधुनिक हो गया है। अब कार्यकर्ता स्वयं घरों में जाते हैंंं तथा अपनी श्रद्धा के अनुसार १०० रुपये से लेकर ऊपर आपकी इच्छा के मुताबिक विसर्जन की रसीद कटाने का आग्रह करते हैं। जब मैंने उनसे यह पूछा कि यह तो गुप्तदान के रूप में होना चाहिए, इस तरह रसीद काटने का उपक्रम मुझे समझ में नहीं आ रहा था, तब उन्होंने मुझे समझाने के अंदाज में कहा कि घरों में जा कर रसीद कटाने से तात्पर्य इस बात का भी है कि अगर कोई परिवार की आर्थिक स्थिति १०० रुपये देने की भी नहीं हो तो समाज की जानकारी में उस परिवार की स्थिति आ सके तथा समाज उस परिवार के लिए अपना आवश्यक दायित्व वहन कर सके। मुझे उनके इस जवाब में समाज के कमजोर वर्ग के प्रति समाज की प्रतिबद्धता की भावना तो अच्छी लगी, पर विसर्जन की रसीद के माध्यम से ही आप इनका डाटा जुटा पाये यह तर्क युक्ति संगत नहीं लगा। क्या किसी की कमजोर स्थिति सामने लाकर ही आप उसे जान सकते हैं... या उससे समाज के चार कार्यकर्ताओं के सामने यह कहलवाकर कि उसकी आर्थिक स्थिति १०० रुपये के विसर्जन की रसीद कटवाने की नहीं है, क्या तब हमारा समाज उस परिवार को अधिक जान पायेंगा? अगर कमजोर के मन में उसकी कमजोरी की हीन भावना को जमाकर फिर उसकी सहायता के लिए हम खड़े भी हो जायें तब भी क्या उस परिवार के मन की उस व्यथा को मिटाया जा सकता है? जो अपनी प्रक्रिया के अंतर्गत समाज के द्वारा उसको दी गयी है। खैर... यह भी विसर्जन की प्रक्रिया का एक वैचारिक पक्ष है पर अब मैं उस पक्ष पर आना चाहता हूं जिसकी इजाजत तो परम्परा कतई नहीं देती।"विसर्जन' का कोष जुटाने वाले कार्यकर्ता अगर एक व्यक्ति का नाम दूसरे व्यक्ति के सामने लेकर मनोवैज्ञानिक पासा फेंकने का कार्य करने लग जाये तथा यहां भी अगर सफेद झूठ का प्रयोग करने में भी कार्यकर्ता न हिचकिचाये तो सवाल उठता है कि विसर्जन की झूठ से भारी पोटली उठाने के लिए हमने संस्कारों की विरासती पोटली को कहां फेंक दिया? किसी व्यक्ति का नाम लेकर आप दूसरे व्यक्ति को उसकी झूठी रकम बतलाकर व उस व्यक्ति को मनोवैज्ञानिक रूप से मजबूर करके रसीद काटने की अगर कुटिल चाल चलते हैं...तो "विसर्जन' की मयार्दा से पहिले आप इस पोटली को उठाने का अधिकार भी खो देते हैं तथा वो व्यक्ति जो आपकी छद्म चाल से ठगा जाता है... उसके मन में आपकी यह करतूत "विसर्जन' को नासूर बना देती है। जहां संस्कार निर्माण की कार्यशालाओं का आगाज हो... वहां संस्कार निर्माण की धज्जियां अगर समाज के कार्यकर्ता ही उड़ाते दिखे तो फिर बतलाइये क्या गरिमा रहेगी उन कार्यशालाओं की तथा क्या उपयोगिता रहेगी "विसर्जन' के इस उपक्रम की। मेरा यह आलेख विशेषकर जैन समाज के "तेरापंथ' समाज को समर्पित है जहां विसर्जन के प्रक्रम की रफ्तार तो बहुत तेज है पर इस गाड़ी मेंंं पारंपरिक संस्कारों के कल पूर्जे ढ़ीलें हैं जो विसर्जन को "विष-अर्जन' बना रहे हैं। इसलिए आवश्यक है कि विसर्जन की प्रयोगिकता से पहिले उसके व्यवहारिक तौर तरीकों को कुछ इस तरह से बनाया जाये जिससे न सिर्फ जैन बल्कि अन्य समाज के लोग भी इस पुनीत उद्देश्य में उत्साह के साथ सम्मिलित हो सके पर विसर्जन का ढिंढोरा न पिटवाये कम से कम यह क्षेत्र तो बिना नाम के काम का छोड़ दिया जाये जिससे उस कोष में अपनी सामर्थ्य के अनुसार १०० रुपये देने वाला भी बिना किसी हीन भावना के वह गौरव अनुभूत कर सके तथा हजारों देने वाले भी अपने नाम के अहंकार से बच सके। लेखक-पत्रकार होने के नाते मैंने इस सत्यता को आवाज देने का धर्म निभाया है अगर आपको यह सच स्वीकार योग्य लगे व आप इस पर समुचित मंथन करें तो मुझे आत्मसंतोष मिलेगा। अगर आप इस सच को पचा नहीं पाये और मेरे प्रति विद्वेष पनपे... तो ख्याल रखें कि जिस जमीन पर हम खड़े हैं उसके आदर्श हमें क्या कहते हैं? मेरा धर्म सच को बिना लाग लपेट के सरल शब्दों से पाठक वर्ग तक पहुंचाना है, मैं अपना धर्म निभा रहा हूं। क्या आपसे आशा कर सकता हूं कि आप भी अपनी जवाबदेही का धर्म निभायेंगे?
मेरे शहर में फ़िर एक हादसा हुआ -एक मासूम का स्कूल की छुट्टी के बाद अपहरण और फ़िर उसकी हत्या करदी गई समूचा शहर गहरे दर्द में डूब गया .पुलिस प्रशासन के खिलाफ लोग सड़क पे उतर आए पर इस आक्रोश से समाधान फ़िर भी नही मिला कलेजे के टुकड़े को खोने का गम वो परिवार कैसे भूल पायेगा .दरिंदगी एक माशुम के चहेरेपर भी नही पिघली --एक बचपन बे मोत मार दिया गया...दर्द इस बात का है की हम उस माशुम के जीवन के लिए कुछ भी नही कर सके .इंसानियत शेतानो के सामने फ़िर असहाय नजर आई,फिरोती का कोई फ़ोन भी नही आया क्योकि पुलिस ने जाल बिछा दिया था ,बदमाश जब अपने उस मकशद में सफल नही हुए तो उन्होंने वो कर दिया जिसको सुन कर संवेदना ख़ुद रो पड़ी क्या पुलिस में जाना और मीडिया में इस केस का जोरदार उठाना उसकी मोत का कारण बन गया ?आखिर क्या किया जाए ....सवाल अत्यन्त गंभीर है इधर कुवा है उधर खाही है आज मेरा शहर इस हादसे को सहकर बहुत दुखी है हमारे हाथ में उस माशुम के जीवन के लिए कुछ भी नही रहा .अब सिर्फ़ प्राथना ही कर सकते है है इश्वर उस माशुम की आत्मा को ममता की छाव देनाऔर माँ के कालजे को पत्थर कर देना नही तो वो नही जी पायेगी कोलकता (हावडा )का वो यश लखोटिया था ब्लोगेर दोस्त उस की आत्मा की शान्ति के लिए जरुर प्राथना करे ..क्योकि संवेदना यह तो कर ही सकती है
संजय सनम
कुर्सी की तजबीज में
वो तहजीब बेच रहे है
आजादी के दीवानों की
तकरीर बेच रहे है
सियासत उन्हें क्या मिल गई
जनता के माथे की
वो
लकीर बेच रहे है ।
संजय सनम
नव वर्ष स्पेशल के इस अंक में उस घटना का उल्लेख मुझे करना पड़ रहा है जिसे मैं करना नहीं चाहता था पर मुझ तक पहुंचे कुछ सवालों और मेरे द्वारा दिये गये जवाबों का सिलसिला कुछ ऐसा बन गया कि फिर उस चर्चा को कड़वे सच के इस स्तंभ में आने से मैं स्वयं नहीं रोक पाया। घटनाक्रम इस प्रकार है...। महानगर की एक अग्रणी सामाजिक संस्था के सेवा कार्य का कार्यक्रम था। समारोह के दिन उस सामाजिक संगठन के सक्रिय कार्यकर्ता व पदाधिकारी ने फोन द्वारा कई वार भावपूर्ण आमंत्रण दिया जिसकी वजह से उपस्थिति दर्ज करानी आवश्यक थी। मैंने उनकी आत्मीयता का मान रखते हुए अपनी हाजरी लगाई तथा मंचस्थ अतिथियों में शुमार हुआ। जैसा कि होता है अतिथियों का स्वागत सत्कार ,उनका वक्तव्य तथा बाद में धन्यवाद ज्ञापन और फिर दूसरे या तीसरे दिन दैनिक अखबारों में खबर! यहां भी ऐसा ही हुआ महानगर के एक अखबार ने उस पूरी खबर में से मेरा नाम पूरी तरह से उड़ा दिया। मुझे आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि फर्स्ट न्यूज के दीपावली स्पेशल के स्ट्रेट ड्राइव में जहां नीति की सेल लगी है को संभवतया उसने अपने ऊपर ले लिया होः अर्थात उस कड़वे सच को पचा नहीं पाये हो।वैसे उस अखबार के संपादकीय विभाग के एक सदस्य ने किसी माध्यम केद्वारा फर्स्ट न्यूज की सह संपादिका को चाय पर आने का आमंत्रण यह प्रलोभन देते हुए दिया था कि अगर वो आये तो (एक और मधुशाला की सीडी जिसमे ंश्रीमती चौधरी की आवाज है) की समीक्षा अच्छे रूप में प्रकाशित की जायेगी। श्रीमती चौधरी ने इस आमंत्रण का जवाब शब्दों में ठोकर मारकर दे दिया तथा साथ ही साथ अपनी मौखिक शिकायत भी संपादकीय विभाग के वरिष्ठ से कर दी। वहां से बाद में कोई जवाब नहीं आया कि ऐसा आशालीन प्रस्ताव देने की हिम्मत कैसे की गयी व शिकायत पर कार्रवाई क्या हुई?श्रीमती चौधरी ने जब यह घटना मुझे बतलाई तो मुझे लगा कि प्रबंधन को अवगत कराना चाहिए। पर श्रीमती चौधरी ने कहा कि मैंने.... को इस अशालीनता की शिकायत कर दी है अगर भविष्य में फिर ऐसा होता है तो बात प्रबंधन तक पहुंचाई जाये। खैर यह बात तो यहां समाप्त हो गयी पर उस अखबार के जो लोग इस घटना से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष जुड़े हुए हैं। उनकी खीज तो समाप्त नहीं हो सकती अतः मेरा नाम उस सामाजिक संस्था के उस कार्यक्रम से उड़ाना मेरी समझ में तो आ गया पर जो लोग वहां उस कार्यक्रम में उपस्थित थे अगर वो थोड़ी सी गंभीरता से गौर करे तो उन्हें अटपटा लग ही सकता है। शायद तभी फोन पर मुझसे यह सवाल हुआ कि उस कार्यक्रम में आप थे॥ पर अमुक... अखबार ने सिर्फ आपको छोड़कर सबका नाम प्रकाशित किया है। अन्य अखबारों में आई खबर में आपका नाम है पर... ।इस अखबार में नहीं है क्यों?अब मैं इस क्यों? का जवाब क्या देता? क्योंकि मेरा नाम छापना ना छापना उस अखबार के उस पृष्ठ का संपादन करने वाले के अधिकार क्षेत्र की बात थी। मैं यह भी मानता हूं कि कई बार भूल से भी नाम छूट जाता है पर मेरे साथ पहिले भी कुछ ऐसा हुआ था। इसलिए मूल का यह जुमला मुझे जम नहीं रहा था पर फिर भी फोन पर प्रश्नकर्ता को मैंने कहा कि शायद भूल हो गयी होगी। पर वो खुद इससे सहमत नहीं हुआ तब मैंने कहा कि हो सकश्रता है उस कार्यक्रम में मेरा वक्तव्य खबर के योग्य नहीं रहा तो तब उसने इसको भी खारिज कर दिया। अब इस प्रश्नकर्ता का सवाल देखिए... सनम जी आपके कोई खुन्नस निकाल रहा है... उसके मन बयान पर संभवतया बीस-तीस सेंकेंड मैं एकदम चूप रहा मुझे कोई जबाव नहीं सुझ रहा था कि मैं उसे इसका क्या जवाब दूं।मेरा सोचना सही है ना सनम जी.. .मुझे चूप देखकर वो फिर बोल पड़ा। मैंने कहा हो सकता है.. अब उसका सवाल था पर क्यों मुझे लगा कि एक जागरुक बौद्धिक पाठक की इस जिज्ञासा का समाधान अब करना चाहिए... इसलिए मैंने उसको आश्वस्त किया कि आप जिस क्यों? का सवाल उठा रहे हैं उसके कारण एक से अधिक हो सकते हैं। अतः फोन पर यह चर्चा संभव नहीं है। आपकी इस जिज्ञासा का समाधान फर्स्ट न्यूज नव वर्ष स्पेशल के कड़वा सच स्तंभ में आपको मिल जायेगा। अब मैं उनको दिया हुआ वादा पूर्ण कर रहा हूं.. जिस दैनिक पत्र का जिक्र उस पाठक ,श्रोता ने फोन पर किया था उस पत्र से मेरी कोई प्रतिस्पर्धा सही मायने में नहीं हैं क्योंकि तलैया की नदी से तुलना नहीं हो सकती। वो पत्रकारिता के हर क्षेत्र में चाहे प्रसार हो, विज्ञापन हो,खबरोंं का संकलन हो, तथा अर्थ में ,टीम सदस्य में अपने परिचय क्षेत्र में सबसे अव्वल है। अर्थात बहुत बड़े हैं पर मन से बड़े छोटे हैं और उनका यह छोटा मन ही पत्रकारिता के इस क्षेत्र को कलुषित कर रहा है।चूकि अखबार उनका है छापने या ना छापने का अधिकार उनका है इसलिए आप हम उनके इस अधिकार के उपयोग या दुरुपयोग पर सिर्फ अपनी बात ही कह सकते हैं और यह अहसास अगर हर पाठक जागरुक होकर गौर करने लग जाये तब शायद इन बड़े लोगों को अपनी छोटी हरकतों को डरकर बंद करना पड़ सकता है। जहां तक मेरे से खुन्नस का सवाल है यह जानने के लिए आपको फर्स्ट न्यूज का दीप स्पेशल का स्ट्रेट ड्राइव पढ़ना होगा।मैं पुनः इस बात पर आना चाहता हूंं कि मैंने कभी किसी को अपना प्रतिस्पर्धी नहीं माना क्योंकि मेरा यह विश्वास है कि व्यर्थ में किसी की आलोचना करने या अटंगी डालकर उसको गिराने की कोशिश करके आप कभी आगे नहीं बढ़ सकते। अगर कोई आगे बढ़ रहा है आपसे श्रेष्ठ प्रदर्शन कर रहा है तो आप उसकी श्रेष्ठता को पकड़ों व अपने प्रदर्शन में उसकी श्रेष्ठता के उस गुण को मिला दो आपका प्रदर्शन भी स्वतः ही श्रेष्ठ होने लग जायेगा। अगर आप अपने क्षेत्र के किसी प्रगतिशील ब्रांड की गुणवत्ता का सम्मान करना सीख जायेंगे तो फिर प्रतिस्पद्धी नहीं मित्रवत बन जायेंगे। मैं अपनी सीमा,क्षेत्र, स्थिति को भलीभांति समझता हूं पत्रकारिता को इस विशाल सागर में मेरी हस्ती सिर्फ बूंद जैसी ही है इसलिए मैं इस सागर को प्रवाह देने वाली हर धारा को सम्मान करता हूं लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि आपको बूंद के स्वाभिमान को ललकारने की इजाजत दे दी जाये। अगर ऐसा होताहै तो मां शारदे की कृपा से एक छोटी सी बूंद पूरे सागर के प्रवाह को भी प्रभावित कर सकती है। क्योंकि बूंद चाहे छोटी हो पर उसकी सैद्धांतिक गरिमा तथाकथित उन धाराओं से भी बहुत बड़ी है। इसलिए उन तथकथित बड़े लोगों से निवेदन है कि अपना सम्मान बचाये अन्यथा आपका यह छोटापन सबके सामने मजाक बन सकता है। जहां तक मेरे नाम का सवाल है कम से कम वो पत्र विशेष अब मेरा नाम न ही छापे तो मैं कृतज्ञ रहूंगा। मुझे दुख है कि चंद लोगों को इस छोटेपन की वजह से उस पत्र विशेष में काम करने वाले अच्छे लोगों पर भी आंच आती है मैं उन सभी पत्रकार मित्रों से क्षमा चाहता हूं पर जिन लोगों ने मेरे खिलाफ कारस्तानी की है व कर रहे हैं उनकी शिकायत अपनी अधिष्ठात्री तक पहुंचा दी है वे लोग सजा पाने के लिए तैयार रहे। यद्यपि ऐसे घटनाक्रमों से अखबार के प्रबंधन अनभिज्ञ होते हैं क्योंकि अंदर में ये सब भी होता है अंडर द टेबिल भी चलता है उनको इसका पता नहीं होता पर इनका सबका दुष्प्रभाव धीरे-धीरे अखबार पर पड़ता है इसलिए अगर वो थोड़ी भीतरी नजर रखेतो अपने ब्रांड की सुरक्षा कर पायेंगे। अन्यथा कुछ लोग अपने स्वार्थ के लिए कुछ भी कर सकते हैं। अब शायद उन फोन वाले पाठक की जिज्ञासा का समाधान हो गया होगा।
संजय सनम